Disclaimer

यह ब्लॉग पूरी तरह काल्पनिक है। किसी से समानता संयोग होगी। बिना डॉक्टर की सलाह के दवाइयाँ ((जैसे स्तन वर्धक या हार्मोन परिवर्तन)न लें - यह जानलेवा हो सकता है।— अनीता (ब्लॉग एडमिन)

Body swap boy transformed into girl

📝 Story Preview:

राकेश का मन किसी तूफ़ान में उलझा हुआ था। वो गुस्से और टूटे हुए दिल के बीच कहीं फँसा बैठा था। उसके कानों में अभी-अभी अपने सबसे क़रीबी दोस्त की आवाज़ गूंज रही थी— "रौशनी की सगाई हो गई, यार!"

सुनते ही जैसे ज़मीन खिसक गई हो।
"क्या?"
उसका दिल मानने को तैयार ही नहीं था।

राकेश और रौशनी — पाँच साल की मोहब्बत, हँसी, लड़ाई, एक-दूसरे में खो जाना, छोटे-छोटे सपने... ये सब झूठ था क्या?

वो सोचने लगा — कल ही तो रौशनी उससे मिली थी, बिल्कुल वैसे ही जैसे हर बार मिलती थी। उसकी मुस्कान, उसकी आँखें, वो मासूम सी हरकतें... क्या सब नक़ली था?

लेकिन... कल उसने एक बार भी नहीं बताया कि उसकी सगाई होने वाली है।
"कैसे कर सकती है वो ऐसा?"
राकेश की मुट्ठियाँ भींच गईं।

और फिर, जैसे कोई पर्दा उठा हो, उसके ज़ेहन में रौशनी की मुस्कराहटें घूमने लगीं।
वो शामें, जब दोनों सड़कों पर बेवजह चलते रहते थे...
वो हाथ थाम कर किए गए वादे...
वो पहली बारिश, जिसमें भीगते हुए रौशनी ने उससे कहा था, "मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी..."

और अब?

राकेश की आँखें अनायास ही नम हो आईं।
वो नहीं जानता था, ये ग़लती किसकी है — वक़्त की, रौशनी की... या खुद उसकी?

पर एक बात साफ़ थी — उसके दिल का एक टुकड़ा आज हमेशा के लिए उससे छिन गया था।



राकेश का दिल बार-बार एक ही बात दोहरा रहा था —
"काश... काश मैं रौशनी से एक बार मिल पाता... उससे पूछ पाता कि आख़िर मेरी गलती क्या थी? क्यों उसने मुझे इस तरह बिना बताए छोड़ दिया? मैं क्या इतना अजनबी हो गया था उसके लिए?"

आँखों से बहते आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वो वहीं बेंच पर बैठा देर तक रोता रहा... अकेला, टूटता हुआ, और ख़ामोशी से अपने ही सवालों में डूबता हुआ।

काफी देर बाद वो लड़खड़ाते कदमों से घर लौटा। पूरे दिन की थकावट और टूटे मन से वो बस बिस्तर पर गिर पड़ा। आँखें तो बंद थीं, लेकिन नींद उससे कोसों दूर।

रात के करीब दो बजे, मोबाइल की स्क्रीन चमकी — "रौशनी calling..."

राकेश की धड़कन एक पल को जैसे रुक गई।

पर फिर ग़ुस्से और दुख की मिली-जुली भावना से उसने मोबाइल उठा कर सीधा स्विच ऑफ कर दिया।
"अब क्या बात करनी है उससे?"
उसने खुद से कहा, और करवट बदलकर लेट गया।

अगले दिन भी कई बार रौशनी ने कॉल किए। मैसेज पर मैसेज भेजे।
"प्लीज़ बात करो..."
"तुमसे एक बार मिलना है..."
"मुझे तुम्हें कुछ ज़रूरी बताना है..."

पर राकेश का दिल पत्थर बन चुका था — उसने कोई कॉल रिसीव नहीं किया, कोई मैसेज नहीं खोला।

फिर... अचानक से सब कुछ शांत हो गया।

कॉल्स बंद। मैसेज आना भी रुक गया।

और फिर आया एक आख़िरी मैसेज
"अगर आज शाम तुम मुझसे उस गार्डन में नहीं मिले, तो मैं हमेशा के लिए तुम्हारी ज़िंदगी से चली जाऊँगी। कभी लौटकर नहीं आऊँगी..."

राकेश के हाथ से मोबाइल गिरते-गिरते बचा।

ग़ुस्सा अब भी उसके अंदर था, लेकिन उस ग़ुस्से के पीछे एक बेचैन दिल था... जो आज भी रौशनी के लिए धड़कता था।
वो खुद से लड़ता रहा...
"जाऊँ या न जाऊँ?"
"शायद वो फिर कोई नाटक कर रही है..."

पर फिर उस पाँच सालों की मोहब्बत ने उसे मजबूर कर दिया।

शाम होते-होते, वो खुद को रोक नहीं पाया।
दिल में तूफ़ान लिए, पुराने उस गार्डन की ओर बढ़ चला...
जहाँ उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी, जहाँ वक़्त रुक जाया करता था।

उसे नहीं पता था — आज रौशनी क्या कहेगी।
पर ये बात तय थी — आज कुछ ऐसा होने वाला था, जो हमेशा के लिए सब बदल देगा...



शाम की हल्की-हल्की ठंडी हवा चल रही थी।
गार्डन की वो पुरानी बेंच, जहाँ कभी हँसी के ठहाके गूंजते थे, आज कुछ ज्यादा ही खामोश लग रही थी।

वहीं बेंच पर बैठी थी रौशनी।

आज उसने पीली हाफ स्लीव वाली सलवार कमीज पहनी थी, जैसे कभी राकेश को पसंद थी।
हाथों में मेहंदी अब भी ताज़ा दिख रही थी — कोहनी तक भरी हुई, हरी और गहरी।
उसकी रिंग फिंगर में एक चमचमाती डायमंड रिंग थी, जो शायद उसकी सगाई की निशानी थी।

वो बैठी थी — दूसरी तरफ मुँह किए हुए।
बाल हल्के बिखरे हुए थे, और उसकी आँखें बार-बार गेट की तरफ देख रही थीं।

राकेश धीमे कदमों से उसके पास पहुँचा।

ग़ुस्से में, ठंडी आवाज़ में बस एक ही शब्द निकला —
"रौशनी..."

और जैसे ही रौशनी ने पलट कर देखा...
उसकी आँखें भर आईं।
एक पल में उठी और सीधे राकेश के गले लग गई।
बिलक-बिलक कर रोने लगी।

पर आज राकेश की आँखें बिल्कुल सूखी थीं।
ना कोई झलक, ना कोई तड़प।

रौशनी बोलती रही —
"राकेश, मेरी कोई गलती नहीं है... सच में नहीं...
घरवालों ने अचानक ये रिश्ता तय कर दिया... मुझे कुछ बताने का मौका ही नहीं मिला...
सब कुछ बहुत जल्दी हो गया... मैं चाहकर भी तुमसे बात नहीं कर सकी..."

पर राकेश के चेहरे पर एक ही बात लिखी थी —
"अब बहुत देर हो चुकी है।"

वो चुपचाप खड़ा रहा, जैसे पत्थर बन गया हो।

रौशनी ने उसका हाथ थामने की कोशिश की, पर वो हाथ भी अब पराया लग रहा था।

आख़िर थक कर, टूटी हुई आवाज़ में रौशनी बोली —
"काश, तुम मेरी जगह होते राकेश... तब समझ पाते कि मैं क्या झेल रही हूँ...
मैं सिर्फ तुमसे प्यार करती हूँ... और आज भी करती हूँ...
पर शायद तुमने अब मन बना लिया है मुझसे अलग होने का..."

उसने एक लंबी साँस ली।

"ठीक है राकेश... मैं जा रही हूँ।"

और फिर —
उसने राकेश के गाल पर आँसू भरा एक अंतिम किस दिया।

"एक दिन आएगा... जब तुम्हें अपनी गलती का अहसास होगा..."

और फिर वो मुड़कर चली गई...
रोती हुई, लेकिन अब और कुछ कहे बिना।

राकेश वहीं खड़ा रहा...
कुछ पल, कुछ घंटे जैसे वही थम गए थे।
फिर धीरे-धीरे लड़खड़ाते कदमों से घर लौटा।

उस रात उसने न कुछ खाया, न किसी से बात की।
बस बिस्तर पर लेट गया...
और आँखें बंद कर लीं...
शायद हमेशा के लिए उन यादों को बंद करने के लिए...



रात का कोई अनजाना पहर था...
बाहर सब शांत था, पर राकेश के भीतर एक तूफान उठ रहा था।

अचानक उसकी आँखें खुलीं।
सिर में जैसे कोई भारी हथौड़ा बज रहा हो।
नसें तनी हुई थीं, जैसे भीतर से कोई चीज उन्हें खींच रहा हो।

राकेश ने तकिए पर सिर रगड़ा, दर्द सहने की कोशिश की —
पर जितना वो हिलता, उतना ही उसके बाल खिंचते गए
उसे लगा कि जैसे उसके सिर के बाल अचानक तेजी से बढ़ रहे हैं...

और कुछ ही मिनटों में, वे कंधों तक लहराते हुए उसके चेहरे पर बिखर गए
इतने घने कि उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।

फिर शुरू हुआ एक और अजीब अहसास —
उसके होंठों में हल्की खिंचावट... फिर सूजन।
जैसे कोई उन्हें मुलायम और उभरे हुए आकार में ढाल रहा हो।

गाल अंदर की ओर धँसने लगे,
गर्दन सिकुड़ने लगी,
कंधे झुकते जा रहे थे।

और फिर जैसे पूरे शरीर का ढांचा बदलने लगा
पेट अंदर जा रहा था,
कमर पतली होती जा रही थी,
और कूल्हे चौड़े

उसकी छाती पर किसी भारीपन का एहसास हुआ —
जैसे वहाँ कुछ बन रहा हो।
उसके पैरों की बनावट भी बदल रही थी, पतली और नाज़ुक होती जा रही थी।

सबसे डरावना था वो अहसास...
जब उसके प्राइवेट पार्ट्स में एक अजीब सी सिकुड़न शुरू हुई।

राकेश चीखना चाहता था, पर आवाज नहीं निकल रही थी।
वो हाँफ रहा था, उसके शरीर से पसीना टपक रहा था।

उसे लग रहा था —
"क्या मैं सपना देख रहा हूँ... या कोई अजीब हकीकत बन रही है?"

और फिर —
एक ज़ोरदार रोशनी से पूरा कमरा चमक उठा।
इतनी तेज़ के राकेश को कुछ दिख नहीं रहा था।

और अगले ही पल —
सब अंधेरा।

गहरी, स्याह चुप्पी।
राकेश की बॉडी अब थमी सी लग रही थी, पर वो हिल भी नहीं पा रहा था।

वो थक गया था...
जैसे कोई अनजानी ताकत ने उसका सारा होश निचोड़ लिया हो।
वो लेटा रहा...
आँखें बंद... शरीर अजीब सा हल्का... और मन डर से भारी।

और फिर वो उसी हालत में... सो गया।


सुबह की पहली रौशनी राकेश की पलकों पर पड़ी...
लेकिन जागते ही जो अहसास हुआ, उसने उसकी रूह तक हिला दी।

उसका सिर भारी था,
आँखों में हल्की सूजन और जलन,
चेहरे पर घने बालों की लटें लटक रही थीं,
जिनकी वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।

उसने जैसे ही हाथ बढ़ाया बाल हटाने के लिए —
एक खनखनाहट सी हुई।

"ये... ये आवाज़?"
उसने चौक कर अपनी कलाई देखी।
काँच की नीली चूड़ियाँ...!

हाथ में चुभन थी, और थोड़ा वज़न भी।
उसने सर और मुँह पर हाथ फेरा,
तो उंगलियों से टकराई एक पतली सी अंगूठी।

राकेश कभी अंगूठी नहीं पहनता था।

वो झटके से उठकर बैठा —
लेकिन उसका दिल धक से रह गया...

उसके कंधों से कमर तक लहराते, रेशमी लंबे बाल!

"नहीं... ये नहीं हो सकता...
ये सपना है... सपना है..."
वो खुद को बार-बार समझाने लगा।

लेकिन हकीकत अब सामने खड़ी थी —
उसके हाथ नाज़ुक और छोटे लग रहे थे,
और... उनपर नीला नेल पॉलिश चमक रहा था।

उसकी ऊँचाई भी कम महसूस हो रही थी...
और जिस चीज़ ने उसकी सांसें ही रोक दीं —

उसके तन पर लिपटी थी एक सुनहरी बॉर्डर वाली नीली साड़ी...!

पसीने की धार उसकी रीढ़ से बहने लगी।

वो घबरा कर साड़ी को समेटते हुए,
लड़खड़ाते कदमों से पास की अलमारी के सामने पहुँचा,
जहाँ एक बड़ा सा फुल-लेंथ काँच लगा था।

और जैसे ही उसने खुद को उस शीशे में देखा...
उसके मुँह से एक तेज़ चीख निकल गई —

"ये मैं नहीं हूँ!!"

क्योंकि शीशे में जो चेहरा था —
वो राकेश का नहीं,
रौशनी का था...!

उसी जैसे लंबे बाल,
वैसी ही आँखें,
वही चेहरा, वही रूप... वही साड़ी...

राकेश, अब रौशनी जैसा दिख रहा था।

उसकी साँसे तेज़ हो गईं।
उसने चारों तरफ नज़रें दौड़ाईं —
पर ये जगह भी तो उसका कमरा नहीं थी।

हर कोना, हर दीवार...
गुलाबी, सफेद, नीले रंगों से सजा हुआ,
एक लड़की का कमरा था।

पर्दे पर दिल और तितलियाँ बनी थीं,
ड्रेसिंग टेबल पर ज्वेलरी बिखरी थी,
और कोने में नीले सैंडल रखे थे।

"ये कहाँ आ गया मैं...?
ये मेरे साथ क्या हो रहा है...?"

वो बुदबुदाया...
और अपने ही बदले हुए स्वर को सुनकर डर गया।
उसकी आवाज़ अब कोमल और स्त्री-सदृश हो चुकी थी।

राकेश अब अपने ही जिस्म में अजनबी बन चुका था...
या शायद, अब वो राकेश था ही नहीं...


कमरे की हल्की रौशनी में जब वो थरथराता हुआ शीशे के सामने खड़ा था,
तभी अचानक दरवाज़ा खुला।

"रौशनी...!"
एक मध्यम उम्र की महिला भीतर आईं —
गहरी नीली साड़ी, माथे पर बड़ी सी बिंदी, हाथ में पूजा की थाली।

"क्या हुआ बेटी? इतनी ज़ोर से क्यों चिल्लाई?
सब ठीक है ना? कोई बुरा सपना देखा क्या?"

राकेश सन्न रह गया।

उसने उस महिला को कभी पहले नहीं देखा था,
पर उनके हावभाव में माँ जैसी चिंता थी।

"अब मैं क्या बोलूँ...?
कहीं कुछ कह दिया और मेरी आवाज़ से राज़ खुल गया तो?"

वो चुप रहा, मगर महिला बार-बार पूछ रही थीं।
थोड़ी हिम्मत करके उसने बस इतना ही कहा —
"हाँ... ठीक हूँ... एक बुरा सपना देखा था... अब ठीक हूँ..."

और जब उसके गले से 'रौशनी' की आवाज़ निकली,
तो वो खुद दहल गया।

"ठीक है बेटा, तुम थोड़ा आराम करो,"
वो महिला मुस्कुराईं,
"मैं किचन में हूँ, ज़रूरत हो तो बुला लेना।"
और बाहर चली गईं।

कमरा फिर से शांत हो गया...
मगर राकेश के अंदर एक तूफ़ान मच गया था।

"ये क्या हो रहा है मेरे साथ...?
मैं... राकेश... अब इस शरीर में... रौशनी...?
अगर मैं उसके घर में हूँ और उसकी बॉडी में...
तो असली रौशनी कहाँ है? किस हाल में है?"

उसका दिमाग़ हजारों ख्यालों से घिर गया।

"कल ही तो उसने कहा था कि घरवाले जबरदस्ती उसकी सगाई करवा रहे हैं...
अगर उसने... अगर उसने कुछ कर लिया खुद को...
तो... क्या उसकी आत्मा... मुझमें समा गई...?
क्या मरते वक़्त उसने कोई श्राप दिया...?"

वो सोचते-सोचते काँपने लगा।

"ओह भगवन, कहीं ऐसा तो नहीं कि रौशनी अब इस दुनिया में ही नहीं है...?
नहीं... नहीं... प्लीज़, ऐसा मत करना..."

उसे कुछ करना था।
वो इस अनजाने शरीर, अनजाने रिश्तों, अनजाने कमरे में फँस कर रह गया था।

उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि किससे मदद माँगे,
किसे सच बताए।

तभी एक ख्याल आया —
"क्यों न मैं अपने नंबर पर कॉल करूँ...?
अगर कोई उस मोबाइल को उठाए,
तो शायद कुछ जवाब मिले।"

उसने तेजी से बेड के बगल से रौशनी का मोबाइल उठाया,
पर जैसे ही ऑन किया —
स्क्रीन पर एक पैटर्न लॉक...

वो ठगा सा खड़ा रह गया।

"मैंने कभी रौशनी से उसका पैटर्न नहीं पूछा...
कभी सोचा ही नहीं कि ज़रूरत पड़ेगी..."

अब फोन उसके हाथ में था,
पर वो एक कॉल भी नहीं कर सकता था।

उसने बिस्तर पर बैठते हुए दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया।

"क्या करूँ...?
कैसे निकलूँ यहाँ से...?
कैसे बताऊँ कि मैं राकेश हूँ...?
कोई मानेगा भी नहीं..."

आँखें भर आईं।

"ओह गॉड... प्लीज़, रौशनी को कुछ मत होने देना...
उससे मिलने दो एक बार...
सब कुछ ठीक कर दो..."

वो तकिए में मुँह छुपाकर लेट गया,
और भीतर ही भीतर फूट-फूट कर रोने लगा।

अब वो राकेश नहीं रहा था...
उसकी पहचान, उसका शरीर, उसका घर,
सब कुछ कहीं छूट चुका था।

अब तो सिर्फ एक सवाल बचा था —
क्या ये सब रौशनी की नियति थी,
या किसी शक्ति की सज़ा...?



कमरे की खामोशी, राकेश की धड़कनों की आवाज़ से टूट रही थी।
उसका दिल बार-बार यही सोच रहा था —
"अब क्या होगा...? किससे मदद माँगूं...? और अगर कोई आ गया तो क्या कहूंगा?"

तभी अचानक रौशनी के मोबाइल पर एक कॉल आया
वाइब्रेशन के साथ स्क्रीन पर नाम उभरा — "राकेश"
(जो अब उसी के हाथों में था!)

राकेश का दिल जोर से धड़कने लगा।

"कोई और... मेरी बॉडी में है?"

थरथराते हाथों से कॉल उठाया।
गले से पतली, कोयल जैसी आवाज़ निकली —
"ह...हेलो?"

सामने से एक जानी-पहचानी मगर अब बदली हुई आवाज़ आयी —
"थैंक गॉड... तुमने कॉल उठा लिया..."
ये रौशनी की आत्मा थी, लेकिन राकेश के शरीर से बोल रही थी!

"मैं ही रौशनी बोल रही हूँ... कल रात पता नहीं क्या हुआ,
मैं सोई और उठी तो खुद को तुम्हारे शरीर में पाया...
मैं राकेश बन चुकी हूँ..."

राकेश का दिल बैठ गया।

"तब तो ये सच में हो रहा है... मैं भी रौशनी के शरीर में हूँ!"

"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा रौशनी... ये कैसे हुआ...?
क्या सपना है? या... कोई श्राप?"
राकेश का गला सूख रहा था।

रौशनी बोली —
"मुझे भी नहीं पता। लेकिन अब घबराने से कुछ नहीं होगा।
हमें मिलना होगा — आमने-सामने, ताकि इस प्रॉब्लम को सुलझा सकें।
ज्यादा देर बात नहीं कर सकती, मम्मी ने देख लिया तो मोबाइल ले लेंगी।"

राकेश को अब थोड़ा सुकून मिला कि कम से कम कोई तो है जो उसकी स्थिति समझ सकता है।

"अच्छा तो वो सुबह जो लेडी आयी थी, जो पूजा की थाली लेकर आयी थीं...
वो तुम्हारी मम्मी थीं?"

रौशनी हँस पड़ी,
"हाँ... और अब तुम्हें उन्हें मुझ जैसा बनकर ही झेलना होगा..."

राकेश के चेहरे पर पसीना आ गया।

"रौशनी, यार मैं नहीं कर सकता ये सब... ना वो चलने की अदा, ना वो बात करने की मिठास..."

रौशनी हँसते हुए बोली —
"अभी तो बस शुरुआत है, राकेश बाबू।
तुम मेरी बॉडी में हो, तो अब वही करना होगा जो मैं करती थी।
साड़ी सँभालना, चूड़ियाँ पहनना, पार्लर जाना — सब कुछ।
आज तुम मम्मी से कह देना कि 'आई ब्रो सेट करवाने पार्लर जाना है'
बस बहाना मिल जाएगा बाहर निकलने का।"

"नहीं रौशनी, मैं ये नहीं कर सकता..."
राकेश ने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया।

"करना तो पड़ेगा,"
रौशनी अब एकदम सीरियस हो गई।
"अगर बाहर नहीं निकलोगे तो हम कभी मिल नहीं पाएंगे।
और अगर मिलकर सच्चाई ना खोजी,
तो शायद... हम हमेशा यूं ही फँसे रह जाएं —
एक-दूसरे के शरीर में..."

कमरे की खामोशी गहरा गई।

राकेश ने मोबाइल धीमे से रखा और शीशे में खुद को देखा —
अब वो जो देख रहा था, वो उसकी पहचान नहीं थी...
वो था — रौशनी। एक लड़की। और आज से शायद... उसकी ज़िंदगी जीनी होगी।



फिर रौशनी, राकेश को चिढ़ाते हुए बोली, “तो बताओ अब आज क्या पहन रहे हो नहाने के बाद?”

राकेश थोड़ा परेशान होकर बोला, “ओह सच में, मैं तो पूछना ही भूल गया कि नहाने के बाद कपड़े कहां रखे हैं... और कैसे पहनूंगा मैं उन्हें?”

रौशनी हँसते हुए बोली, “अभी टाइम सुबह के 6 बज रहे हैं। 10 मिनट बाद मम्मी आ जाएंगी और कहेंगी कि नहा कर ब्रेकफास्ट टेबल पर आओ। तो तुम एक काम करो — बाथरूम में जाओ, कपड़े उतारो, नहाओ और अलमारी के राइट साइड में जो ब्रा-पैंटी रखी हैं, उनमें से जो पसंद आए वो पहन लेना। फिर जो भी ड्रेस पहननी हो, वही पहन लेना... समझे?”

राकेश ने माथा पकड़ लिया, “यार ये सब तुम कैसे मैनेज करती हो! मेरा तो सिर दुख रहा है... कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। ये सब झंझट मेरे बस का नहीं है। पता नहीं क्यों लड़कियां इतने झंझट झेलती हैं!”

रौशनी मुस्कराकर बोली, “अब करना तो पड़ेगा न जनाब! अब तुम मेरी बॉडी में हो, तो जो मुझे झेलना पड़ता है, वो सब अब तुम्हें भी झेलना पड़ेगा... समझे?”

राकेश झुंझलाते हुए बोला, “प्लीज़ जल्दी मिलो मुझसे... वरना कुछ गड़बड़ न हो जाए।”

रौशनी बोली, “ठीक 12 बजे दिव्या ब्यूटी पार्लर के पास मिलना... और हाँ, कोई गड़बड़ नहीं करनी। टाइम से आ जाना।”
इतना कहकर उसने कॉल काट दिया।


रौशनी की बात बिल्कुल सच निकली। सुबह ठीक 6:10 पर उसकी मम्मी कमरे के दरवाज़े पर आईं और हल्की आवाज़ में बोलीं, “रौशनी, उठ जा बेटा, नहा ले... फिर आकर ब्रेकफास्ट कर लेना।” कहकर वो चली गईं।

राकेश के पास सोचने का ज्यादा वक्त नहीं था। उसने झटपट अलमारी खोली, जैसा रौशनी ने बताया था — राइट साइड में से ब्रा और पैंटी निकालीं और धीरे-धीरे साड़ी के पिन, पेटीकोट की नाड़ी और ब्लाउज़ के हुक खोलकर, सावधानी से सब उतार दिया। फिर ब्रा और पैंटी पहनकर वो वॉशरूम की ओर बढ़ गया।

वॉशरूम में एक बड़ी दीवार भर की शीशा लगी थी। उसमें उसने खुद को — यानि अब रौशनी की शरीर में खुद को — पहली बार इस तरह देखा।  पर उसे समझ नहीं आ रहा था के वो एक्ससिटेमेंट को निकले कैसे क्यों के आज उसके पास उसका एक्ससिटेमेंट रोमवाल का हथियार मिसिंग था वो अपनी बॉडी को इधर उधर हाथ लगा कर रौशनी की बॉडी को प्राइसे करने लगा वाओ कितनी सॉफ्ट है वो एक पल के लिए ठिठक गया। सब कुछ एकदम नया, अजीब और अविश्वसनीय लग रहा था। उसने खुद को समझाया, "अब ये मेरा शरीर नहीं है, लेकिन मुझे इस वक़्त इसकी जिम्मेदारी निभानी है।" ये फिर उसे याद आया नहाकर ब्रेकफास्ट के लिए भी जाना है कही कोई गड़बड़ न हो तो उसने जल्दी से नाहा कर गीले ब्रा और पंतय धो दिए और दूसरे पहन लिए फिर सिर्फ ब्रा पंतय में तौलिये को कमर से बांध कर वाशरूम से बहार निकला और अलमारी के सामने खड़े हो कर सोचने लगा के क्या पहेनू क्यूंकि रौशनी की अलमारी महंगी साड़ी और सलवार कमीज से भरी पड़ी थी बहुत मुश्किल से उसने रौशनी के अलमारी से एक टॉप और जीन्स ढूंढा जो की उसने कपडे के निचे छुपा रखा था जो की राकेश ने गिफ्ट दिया था क्यों के रौशनी के पेरेंट्स से वो बहुत डर्टी थी इसलिए उसने कभी ये कपडे नहीं पहने थे पर आज तो राकेश को मौका मिल गया था तो उसने बिना कुछ सोचे समझे टॉप और स्कर्ट पहन लिए और कुछ सेल्फी क्लिक की और ब्रेक फ़ास्ट के टेबल पर आ गया इस बात से अनजान के उसके पेरेंट्स वेस्टर्न ड्रेस के सख्त नफरत करते थे और जिसकी बजह से रौशनी हमेशा इंडियन ड्रेसेस जैसे सलवार कमीज़ ही पहनती थी.. 

राकेश जैसे ही जीन्स और टॉप पहनकर ब्रेकफास्ट टेबल की तरफ़ आया, रौशनी के पापा ने एक नज़र में ही उसे देख लिया। अगले ही पल उनका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा।

“ये क्या पहन रखा है? अकल नाम की चीज़ है या नहीं? कोई ज़रूरत नहीं है ये सब मोडर्न बनने की! अगर इतना ही फैशन का शौक है तो शादी कर, अपने घर जाकर जो मन आए पहन, लेकिन मेरे घर में ये सब नहीं चलेगा!”

उनकी आवाज़ घर की दीवारों से टकरा रही थी।

राकेश स्तब्ध खड़ा था। वो तो बस रौशनी के दिए कपड़े पहनकर आया था — न कोई सोच, न कोई नीयत। पर इस एक पल में जैसे सब कुछ टूट गया।

उसे समझ नहीं आया — ये गुस्सा उसके लिए था, या उस शरीर के लिए जिसमें वो फंसा था। उसकी आंखें भर आईं। वही आंखें, जिनसे कभी वो रौशनी को चिढ़ाया करता था जब वो रोती थी।

अब वही आंसू उसकी पलकों से टपकने लगे... और वो चाहकर भी उन्हें रोक नहीं पाया।

रौशनी के पापा का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा था, लेकिन राकेश का मन अब अंदर से कुछ और कह रहा था। वह उठ खड़ा हुआ, एक लंबी सांस ली... और पहली बार, उसने खुद को रौशनी की पहचान के पीछे खोने नहीं दिया।

वो पलटा, और तेज़ आवाज़ में कहा:

"किसी को कोई शौक नहीं है जीन्स-टॉप पहनने का। ये जो आप अपने दामाद खोज कर लाए हैं न, उन्होंने ही रिक्वेस्ट की थी मुझसे ऐसा पहनने की। अगर इतनी ही तकलीफ़ है तो अपने दामाद से कहिए, मुझसे ऐसी रिक्वेस्ट दोबारा न करें!"

इतना कहकर वो बिना किसी और जवाब का इंतज़ार किए अपने कमरे की ओर भाग गया।

रौशनी के पापा के लिए ये जैसे बिजली गिरने जैसा था। उनकी बेटी — जिसने आज तक उनसे कभी ऊंची आवाज़ में बात तक नहीं की — आज पलट कर जवाब दे गई?

उन्हें नहीं पता था कि वो रौशनी नहीं, राकेश था… जो आज उनकी रूढ़ियों से लड़ रहा था।

गुस्से में उन्होंने टेबल से उठकर टिफिन भी नहीं लिया, और ऑफिस के लिए निकल गए… पीछे सिर्फ़ सन्नाटा छोड़ते हुए।


थोड़ी देर बाद दरवाज़े की हल्की सी आवाज़ हुई, और रौशनी की मम्मी कमरे में दाखिल हुईं। उन्होंने राकेश के सिर पर प्यार से हाथ फेरा, और बेहद शांत लहजे में बोलीं,
"कोई बात नहीं बेटा... तुझे पता है न, तेरे पापा को ये सब बिल्कुल पसंद नहीं। उनके सामने ऐसे कपड़े मत पहनना प्लीज़। तू जानती है, उन्हें दिल की बीमारी है… दो बार हार्ट अटैक आ चुका है। तेरा गुस्सा अपनी जगह ठीक है, लेकिन तू ही समझदारी दिखा। उनके गुस्से में भी तेरा ही प्यार है… तू उनकी जान है।"

फिर एक पल रुककर बोलीं,
"अब चलो, जाओ उनसे माफ़ी मांग लो।"

माँ की आवाज़ में न तो दबाव था, न ही डर... बस एक ममता भरी विनती थी, जिसे अनसुना करना मुश्किल था।

राकेश का दिल अंदर ही अंदर भारी हो चला था। उसे एहसास हुआ कि वो कितना कुछ सोच ही नहीं पा रहा था — न अपने लिए, न रौशनी के लिए, न इस शरीर के साथ जुड़े रिश्तों के लिए।
उसने खुद को संभाला, गहरी सांस ली और हिम्मत जुटाकर रौशनी के पापा को कॉल किया।
कॉल उठते ही बस एक शब्द निकला:
"सॉरी पापा... आगे से ऐसी गलती नहीं होगी, प्रॉमिस है..."

सामने से कोई जवाब नहीं आया... बस एक सन्नाटा... और फिर कॉल कट गया।

रौशनी की मम्मी ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की।
"चलो अब कपड़े चेंज कर लो।"
फिर हँसते हुए बोलीं,
"और हाँ, एक काम करती हूँ — आज तुझे साड़ी पहनना सिखा देती हूँ। वरना शादी के बाद हमारे खानदान का नाम मिट्टी में मिलाएगी!"
और हल्के से उसके सिर पर एक प्यारी सी चपत मारी।

राकेश — जो अब इस शरीर में रौशनी था — मुस्कुरा पड़ा, लेकिन उसकी आंखों में सुबह के उस अपमान और तनाव का बोझ अब भी भरा हुआ था।

ये पहला मौका था जब राकेश सच में महसूस कर रहा था कि एक लड़की कैसे भावनाओं के बोझ के साथ बड़ी होती है।
क्यों उसे हर बात में दूसरों का ख्याल रखना सिखाया जाता है।
क्यों उसका दिल जल्दी टूट जाता है… और फिर खुद ही उसे जोड़ने की जिम्मेदारी भी उसी की होती है।

उसे अब यह डर भी सताने लगा था कि क्या वह कभी फिर से राकेश बन पाएगा? या फिर ये शरीर और ये ज़िंदगी ही अब उसकी नयी हकीकत बन जाएंगी?

वो बोला, “मम्मी, सर में थोड़ा दर्द है। शायद कल की नींद पूरी नहीं हुई।”
मम्मी ने तुरंत चिंता से कहा,
“कोई बात नहीं बेटा... बैठ जा, मैं अभी तेल लाती हूँ।”

वो शीशी लेकर आईं, राकेश को जमीन पर बिठाया और उसके लंबे बालों में प्यार से कंघी करते हुए धीरे-धीरे तेल की मालिश करने लगीं। उनकी उंगलियों का हल्का दबाव, माथे और स्कैल्प पर उतरता गया — और राकेश को एक अजीब-सा सुकून महसूस हुआ।

जब से वह रौशनी बना था, ये शायद पहली बार था जब उसे कुछ अच्छा, सच्चा और सुकूनदायक लग रहा था।

आँखें अपने आप बंद हो गईं। मम्मी अब बालों को दो हिस्सों में बाँटकर दो छोटी बना रही थीं। उन्होंने दोनों चोटियों को मोड़कर कान के पास लाकर लाल रिबन से बाँध दिया — जैसे छोटी बच्चियाँ स्कूल जाती हैं।

"चलो, अब थोड़ा सूखने दो तेल। फिर शैम्पू कर लेना... फिर मैं तुझे साड़ी पहनना सिखाऊँगी," मम्मी बोलीं।

"ओके मम्मी..." राकेश ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।

"अब थोड़ी देर लेट जा, आराम कर। ज़्यादा स्ट्रेस मत ले बेटा।"

मम्मी के जाते ही राकेश ने आइने में अपनी चोटियों को देखा... और फिर उन्हें दोनों हाथों में पकड़ा।
यक़ीन नहीं हो रहा था कि ये चोटियाँ, ये रिबन, अब उसी के सिर पर बंधी थीं।
कितनी टाइट, कितनी सलीकेदार... और कितनी मासूम।
पर अजीब बात ये थी कि अब उसे अच्छा लगने लगा था।
बाल आंखों में नहीं आ रहे थे। सब कुछ व्यवस्थित था।

और तभी, फोन की रिंग बजी।

रौशनी का कॉल था।

राकेश ने बिना एक पल गंवाए कॉल उठा लिया...



फोन की स्क्रीन पर "रौशनी कॉलिंग..." लिखा देख कर एक अजीब-सी उलझन हुई। कॉल उठाते ही दूसरी तरफ से आवाज़ आई —

"हाय रौशनी!"

राकेश ने झल्लाते हुए कहा,
"मैं राकेश हूँ, तुम रौशनी हो, समझी!"

तो उधर से खिलखिलाती हँसी के साथ जवाब आया —
"अब आदत डाल लो, क्योंकि अब तुम ही रौशनी हो। समझे?"

राकेश गुस्से में कुछ बोलता, उससे पहले ही रौशनी शरारत से बोली —
"तो बताओ, आज रौशनी ने क्या पहना है?"

राकेश ने ठंडी सांस ली, और फिर सुबह से अब तक जो भी हुआ — पापा का गुस्सा, मम्मी की नाराज़गी, सॉरी बोलना, तेल मालिश और दो चोटियाँ — सब कुछ एक सांस में सुना दिया।

रौशनी हँसी नहीं रोक पाई,
"अब समझ आया न कि मैं तुम्हारी बात क्यों नहीं मानती थी? और कुछ भी उठा के क्यों नहीं पहनती थी? अब सब भुगतो!"

राकेश बोला,
"अब क्या करूँ? तुमसे मिलने कैसे आऊँ, कुछ समझ नहीं आ रहा है।"

रौशनी थोड़ी नरमी से बोली,
"डर मत, मम्मी अच्छी हैं। उनसे बोल देना कि श्रुति के घर जा रही हूँ, निकल आओ। वो कुछ नहीं कहेंगी।"

और फिर मज़ाकिया लहज़े में कहा —
"और आज रौशनी क्या पहनकर आने वाली है?"

राकेश ने झुंझलाते हुए कहा,
"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा... अभी भी जीन्स-टीशर्ट में ही हूँ।"

रौशनी ने निर्देश दिया —
"मेरी अलमारी में एक कॉटन की लाइट रेड कुर्ती है, साथ में पैरियाला सलवार है, वो पहन लो।"

राकेश झेंपते हुए बोला,
"मुझे तुम्हारा नैरा बाँधना नहीं आता!"

रौशनी खिलखिलाई —
"तुम लड़कों को आता ही क्या है? इसलिए तो वो ड्रेस बताई जिसमें इलास्टिक है, कुछ बाँधना नहीं पड़ेगा!"

फिर बोली —
"एक और बात सुनो... मम्मी से सीधे मत बोल देना कि बाहर जाना है। पहले बाहर जाओ, हँसते हुए उनसे एक ब्लैक बिंदी माँगो। फिर थोड़ी देर उनसे बात करो, धीरे-से बोलना कि जाने दो। अगर मूड ठीक रहा तो हाँ कहेंगी, नहीं तो चुपचाप वापस आ जाना... वो खुद बुलाएँगी फिर!"

राकेश ने सर पकड़ा —
"यार इतना ड्रामा?"

रौशनी गंभीर होते हुए बोली —
"और नहीं तो क्या? तुम लड़के जैसे उठे, नहाए बिना, परफ्यूम डालकर चले गए... हम लड़कियों की ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती! अब समझोगे तुम, कि मैं क्या-क्या सह कर तुम्हारे पास आती थी!"

राकेश ने झल्लाकर कहा,
"ठीक है यार, अब फोन रखो, मैं कपड़े चेंज कर लूँ!"

रौशनी ने चिढ़ाते हुए कहा —
"मैं कौन-सा तुम्हें देख रही हूँ, कर लो चेंज!"

फोन रखते ही राकेश ने हल्के-हल्के मन में बुदबुदाते हुए रौशनी की बताई हुई ड्रेस निकाली और पहन ली। बाल खोलने का मन हुआ, पर फिर सोचा —
"अगर बालों के चक्कर में पड़ा तो पहुंच ही नहीं पाऊँगा..."

इसलिए उसने चोटियों को वैसे ही रहने दिया।

कपड़े पहनकर वह कमरे से बाहर निकला और धीरे-धीरे चलता हुआ किचन तक पहुँचा। मम्मी बर्तन धो रही थीं।

राकेश बोला —
"मम्मी, एक कप चाय बना दो।"

मम्मी ने चौंक कर देखा —
"आज तुझे क्या हुआ? तबियत तो ठीक है? तू तो चाय पीती भी नहीं थी!"

राकेश को याद आया —
"ओह! रौशनी को चाय से उल्टी होती है..."
तो बात बदलते हुए बोला —
"ऐसे ही... मन किया आज।"

मम्मी मुस्कुराईं —
"ठीक है, बना ले। दो कप बनाना, मैं भी पिऊँगी।"
और वो बाहर चली गईं।

राकेश ने खुद से बुदबुदाया —
"ये क्या हो गया... अब मैं वो नहीं रहा जो 'आर्डर' देता था और काम हो जाता था। अब तो वो शरीर है जो 'खुद' सब करता है!"

तभी उसे रौशनी की सलाह याद आई —
"ब्लैक बिंदी माँगनी थी!"

वो मम्मी के कमरे में गया, बिंदी का पैक निकाला और एक काली बिंदी लगाई। आइने में देखा... और अनजाने में खुद को एक पोज़ देते हुए पाया।

थोड़ी देर बाद उसने खुद को संभाला... और बाहर आ गया।


...और फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया हो, वो अचानक चौंकी और बोली —

"अरे! मेरी फ्रेंड का कॉल आया है... मैं अभी आती हूँ।"

ये कहते हुए वह बिना मम्मी की तरफ देखे तेजी से दरवाज़े से निकल गई।

दरवाज़े के बाहर हवा ज़रा तेज़ थी... और दिल की धड़कनें उससे भी तेज़। एक पल को लगा —
"मैं सच में बाहर निकल आई हूँ... लड़की की तरह... रौशनी बनकर।"

पर अगले ही पल माथे पर एक चिंता की लकीर उभर आई —
"फोन... पर्स... कुछ नहीं लाया!"

राह चलते लोग यूँ घूर रहे थे जैसे कोई अजनबी ग्रह से उतर आया हो। उसने खुद को थोड़ा संभालने की कोशिश की, पर भीतर घबराहट हावी थी। सड़क के किनारे खड़ी होकर उसने आँखें बंद कीं और मन ही मन दुआ माँगी —

"भगवान, कुछ कर दो... कुछ चमत्कार हो जाए..."

और जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसकी पुकार सुन ली हो, उसके पैरों के पास एक सिक्का चमकता हुआ दिखा।

"कॉइन बॉक्स!"
ख्याल आते ही वह सिक्का उठाकर पास की छोटी-सी पान दुकान की तरफ दौड़ी, जहाँ एक पुराना सिक्का डालने वाला पीसीओ बूथ अभी भी लगा हुआ था।

कांपते हाथों से उसने सिक्का डाला और नंबर मिलाया... राकेश का नंबर, जो अब रौशनी के पास था।

ट्रिन... ट्रिन...

"हैलो?"
उधर से तुरंत आवाज़ आई —
"मैं घर से निकल आई हूँ, पर मोबाइल और पर्स नहीं लाया..."
"मैं पास की दुकान पर खड़ी हूँ... आ जाओ।"

फोन कट होते ही उसके दिल की धड़कन और तेज़ हो गई।

कुछ ही मिनटों बाद एक पीली-हरी ऑटो उसके सामने आकर रुक गई।

धीरे से परदे से झाँक कर देखा... वो राकेश था — रौशनी की बॉडी में।

रौशनी तुरंत ऑटो में चढ़ गई, और अगले ही पल दोनों एक-दूसरे की ओर ऐसे लपके जैसे कोई बिछड़ा हुआ हिस्सा फिर से मिल गया हो।

उसने झिझकते हुए, हल्के-से काँपते हाथों से सामने बैठे राकेश को — अब रौशनी के शरीर में — कस कर गले से लगा लिया।

कुछ क्षणों के लिए सब कुछ थम गया।

ना कोई राहगीर, ना कोई आवाज़ — बस दो आत्माएँ जो एक-दूसरे में फिर से समा गईं।

राकेश ने हल्के से कान में फुसफुसाया —
"कितने दिनों बाद मिल रहे हैं..."

और जवाब में रौशनी की आँखों से एक छोटी-सी मुस्कान और एक ठंडी साँस निकली —
"बहुत हुआ, अब साथ चलते हैं... अपने असली रूप में नहीं, तो इस नई पहचान में ही सही..."

ऑटो धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा...

गार्डन की हरी-हरी घास पर चलकर, दोनों आखिरकार एक कोने की बेंच तक पहुँच गए।

चारों ओर फूल खिले थे, बच्चे खेल रहे थे, लेकिन उनके बीच में जैसे समय थम गया था।

जैसे ही बैठने लगे, रौशनी — जो अब राकेश की बॉडी में थी — अचानक झुककर राकेश को कसकर गले लगा लिया।

"वाओ!"
उसने चुटीले अंदाज़ में कहा,
"ये हेयरस्टाइल तो तुम पर बहुत सूट कर रही है!"

और अगले ही पल उसने राकेश की दोनों चोटियाँ पकड़कर ज़ोर से खींच दीं।

"आउच!"
राकेश तड़पते हुए बोला,
"प्लीज़ यार, हँसना बंद करो। मेरी जान निकल रही है..."

रौशनी ठहाका लगाकर हँसने लगी,
"सच में यार, तुम तो पूरी लड़की बन गए हो!"

राकेश सिर पकड़ते हुए बैठ गया, और थोड़ी देर बाद गंभीर होकर बोला —

"पर ये सब हुआ कैसे? तुमने ऐसा क्या कर दिया जिसकी वजह से हमारी बॉडीज़ स्वैप हो गईं?"

रौशनी की मुस्कुराहट थोड़ी धीमी हुई। उसने आसमान की तरफ देखा... और फिर बेंच की पीठ पर टिकते हुए बोली —

"मैंने कुछ नहीं किया।"

"उस दिन जब तुमने मुझसे बात करना बंद कर दिया था, मैं यहाँ से रोती हुई घर गई। अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया और बहुत देर तक रोती रही..."

फिर एक लंबा सन्नाटा। राकेश चुपचाप उसकी आँखों में देखता रहा।

"उसी वक्त मैंने आसमान में एक टूटा तारा देखा," रौशनी बोली,
"और मैंने दिल से विश माँगी — काश जो दर्द मैं झेल रही हूँ, वो तुम भी समझ पाते..."

"क्या पता था वो विश सच हो जाएगी... और हमारी बॉडीज़ ही बदल जाएँगी।"

राकेश अब बिल्कुल शांत था। उसके पास कहने के लिए शब्द नहीं थे।

रौशनी ने उसे देखा और हल्के से मुस्कराई —
"वैसे ठीक ही हुआ... उस दिन तो तुम बात भी नहीं कर रहे थे मुझसे। अब क्यों आए हो?"

रौशनी अचानक खड़ी हो गई, और मुड़ते हुए बोली —
"अब जा रही हूँ। अब तुम खुद झेलो अपनी मुश्किलों को।"

वो जैसे ही पलटी, राकेश ने उसका हाथ पकड़ लिया।

"प्लीज़, रौशनी... मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। मुझे माफ़ कर दो।"
उसने मासूम-सी, लगभग रोने वाली शक्ल बना ली।

रौशनी रुकी, पर चेहरा सख़्त रखा।
"हरगिज़ नहीं। तुम्हें कोई माफ़ी नहीं मिलेगी। तुम्हें अपनी गलती की सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी।"

राकेश ने गहरी साँस ली और कहा —
"जो भी सज़ा दोगी, मंज़ूर है... पर प्लीज़, मुझे अकेला मत छोड़ो..."

रौशनी ने भौंहें उठाईं और तंज से कहा —

"अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे? याद है जब मैं लेट आती थी तुमसे मिलने, या नहीं आ पाती थी, तो तुम क्या करते थे?"

"अब तुम्हारी बारी है — वो सब करने की!"

राकेश कराहते हुए बोला —
"यार, वैसे ही बहुत परेशान हूँ... अगली बार कर लूँगा?"

रौशनी ने गुस्से से कहा —
"हरगिज़ नहीं! अभी और इसी वक्त!"

राकेश ने हार मान ली। उसने घुटनों के बल बैठकर अपने कान पकड़ लिए और बोला —

"रौशनी, मुझे माफ़ कर दो। आगे से समय से आऊँगा तुमसे मिलने... कभी शिकायत का मौका नहीं दूँगा..."

रौशनी की आँखों में जैसे नमी सी आ गई... मगर उसने मुस्कुराते हुए चेहरा छिपा लिया।
फिर बोली —
"हम्म... अब ठीक है। चलो, माफ किया।"



"तो अब क्या करें रौशनी?"
राकेश ने हताश होकर पूछा, जैसे किसी डूबते को तिनके की तलाश हो।

रौशनी ने गहरी साँस ली और बोली,
"देखो, मेरे हाथ में तो कुछ नहीं है... जब अगली बार टूटा तारा दिखेगा, तो विश माँगूंगी — शायद फिर से सब ठीक हो जाए..."

"ठीक है..."
राकेश ने धीमे से कहा।

"अब घर जाओ। अगर मेरी मम्मी ने तुम्हें ऐसे भटकते देखा, तो तुम्हारी खैर नहीं..."
रौशनी ने मुस्कुरा कर कहा।

"अरे यार, कम से कम अपने मोबाइल का पैटर्न लॉक तो बता दो... जरुरत पड़ी तो कॉल ही कर सकूं!"

रौशनी हँसते हुए बोली,
"U, फिर L — और आख़िर में एक Z बना देना..."

"ठीक है," राकेश बोला,
"चलो फिर..."

"मैं छोड़ देती हूँ तुम्हें घर तक,"
रौशनी ने कहा और दोनों साथ चल पड़े।

रास्ते में रौशनी ने एक चुटीली मुस्कान के साथ पूछा —
"वैसे अभी तो बस शुरुआत है... शाम को जो होने वाला है, उसके लिए तैयार रहना!"

"क्या मतलब?"
राकेश चौंक गया।

"कुछ नहीं..."
वो खिलखिलाकर हँस दी।

⟪ दृश्य परिवर्तन – रौशनी का घर ⟫

राकेश जैसे ही घर में घुसा, रौशनी की माँ — जो अब उसकी 'माँ' बन चुकी थीं — सवालों की मशीन बन गईं।

"कहाँ गई थी?"
"फोन क्यों नहीं उठा रही थी?"
"किससे मिलने गई थी?"

राकेश ने घबराकर कहा —
"घर में आऊं या यहीं से जवाब देना शुरू करूँ?"

फिर बेशर्मी से हँसते हुए घर में दाख़िल हुआ। किचन से पानी लिया, दो घूँट पिए और बोला —
"फ्रेंड से मिलने गई थी, अब आ गई हूँ..."

चेहरा थका हुआ था, और मन उलझनों में डूबा हुआ। मुँह-हाथ धोकर वो अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गया।

कुछ ही देर में माँ कमरे में आ गईं।

"आज तुझे क्या हो गया है? बड़ी अजीब सी लग रही है... थकी-थकी, बोझिल..."
उन्होंने बिस्तर के पास बैठते हुए कहा।

"तुझे याद नहीं है क्या? पड़ोस की श्रुति के यहाँ आज मेहँदी सेरेमनी है। चल, जल्दी से तैयार हो जा!"

उन्होंने वॉर्डरोब खोला और एक पीली साड़ी निकाल कर दी — चमचमाती, सिल्क की।

"ये पहन ले। ब्लाउज और पेटीकोट बाँध ले, मैं साड़ी पहना देती हूँ। कब समझदारी आएगी तुझे?"

राकेश का दिल धड़क उठा।
"ब्लाउज? पेटीकोट? ये मैं कैसे पहनूँगा?"

उसका गला सूखने लगा। फिर भी डरते-डरते ब्लाउज उठाया। उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं।

धीरे-धीरे उसे पहना, हुक बंद किए, फिर पेटीकोट को कमर में बाँधा — जो अब रौशनी की पतली कमर थी। सब कुछ नया था, अजीब, असहज... पर मजबूरी थी।

फिर माँ ने उसे बड़े प्यार से साड़ी पहनाई। हर प्लीट को करीने से जमाया। पल्लू कंधे पर लटकाया, और एक छोटी सी बिंदी माथे पर लगा दी।

राकेश अब एकदम रौशनी लग रहा था।

"चल बेटी, देर हो रही है!"

माँ ने उसका हाथ पकड़ा, और दोनों चल पड़े — एक नए अनुभव की तरफ।

⟪ दृश्य परिवर्तन – श्रुति का घर, मेहँदी सेरेमनी ⟫

लाइटिंग, फूल, ढोलक की आवाज़ें और हल्की सी खुशबू में भीगी हुई शाम।

राकेश की चाल थोड़ी डगमग थी। हर कदम पर लगता जैसे सब उसे घूर रहे हों — उसके चलने के तरीके में हिचकिचाहट, उसकी साड़ी को बार-बार संभालना, पल्लू को टिकाना, और सबसे बढ़कर — उसके चेहरे की झिझक।

और तभी एक लड़की ने आकर कहा —

"रौशनी! तू कितनी प्यारी लग रही है आज! तेरी हेयरस्टाइल भी बहुत सूट कर रही है..."

राकेश ने बस एक हल्की मुस्कान दी, और मन ही मन सोचा —
"रौशनी... तुम्हारी ज़िंदगी सच में आसान नहीं है..."



सारा माहौल हर्षोल्लास से भरा था। ढोलक की थाप पर लड़कियाँ ठुमके लगा रही थीं, किसी के हाथ में कोन पकड़ा था, किसी की हथेलियाँ पहले से रंग चुकी थीं। बीच में बैठी श्रुति, दुल्हन की तरह सजी-धजी, खिलखिलाते हुए हर आने-जाने वाले का स्वागत कर रही थी।

राकेश, जो अब रौशनी की बॉडी में था — पीली साड़ी, झुकी नज़र और कांपते पाँवों के साथ — धीरे-धीरे श्रुति की ओर बढ़ा।

श्रुति ने उसे देखा और खुश हो कर गले लगा लिया

"कहाँ मर गई थी तू? सुबह से कितने कॉल किए हैं तुझे! कभी तो राकेश को छोड़ दिया कर अकेला..."
और फिर प्यार से उसके गाल पर एक हल्की किश भी दे दी।

राकेश को एक अजीब झटका लगा — पहली बार किसी ने यूँ पब्लिक में किस किया था।

"देखो सब सुन रहे हैं..." वो कुछ कह पाता, इससे पहले ही श्रुति ने बगल में बैठी मेहँदी वाली लड़की से कहा —
"ये मेरी एकदम खास सहेली है, इसे भी सबसे बेस्ट डिज़ाइन लगाना!"

"न-नहीं, प्लीज़..."
राकेश ने हड़बड़ाकर कहा।

श्रुति ने आँख तरेरते हुए कहा —
"नहीं क्या? अब बैठ जा चुपचाप, वरना तेरी शादी में मैं भी बस फॉर्मेलिटी करूँगी!"

बेबस, राकेश को बैठना पड़ा। लड़की ने उसके दोनों हाथों में कोहनी तक हिना लगा दी — डिजाइनें ऐसी, जैसे किसी दुल्हन की हथेलियाँ सजाई जा रही हों।


अब जब सब झूमने लगे ढोलक की धुन पर, तो राकेश भी उस भीड़ में जैसे डाल दिया गया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, बस जैसे बाकी लड़कियाँ कर रही थीं, वैसे ही हाथ हिलाए, कमर मटकाई, और दिल ही दिल में डरता रहा — "कहीं ये साड़ी खुल न जाए..."

और तभी उसकी नजर पड़ी — भीड़ के उस पार "रौशनी", जो राकेश के शरीर में थी, श्रुति के पास बैठी थी।

दोनों की नज़रें मिलीं। एक चुप्पा सा इशारा हुआ —
"बाहर मिलो।"

राकेश ने नज़रें झुका कर इशारे की स्वीकृति दी। फिर श्रुति से धीरे से कहा —
"थोड़ी देर बाहर जा रही हूँ..."

"जा न, वैसे भी अब तू कहाँ रुकने वाली है!"
श्रुति ने हँसते हुए छेड़ा।


⟪ सीन: घर के बाहर, थोड़ी दूरी पर एक कोना ⟫

दोनों ने एक-दूसरे से दूर चेयर खींच ली — एक-दूसरे को सामने मुँह दिखाने की भी हिम्मत नहीं थी।

"क्या कर दिया है तुमने..."
राकेश फुसफुसाया।

"मैंने?"
रौशनी मुस्कुराई — "मजा तो तुम्हें आ रहा है। कहते थे ना लड़कियों की लाइफ मज़ेदार होती है, रंगीन होती है... अब लो, पहन लो साड़ी, लगवा लो महेंदी!"

"यार मेरी कमर में बहुत तेज़ खुजली हो रही है... और दोनों हाथों में महेंदी है... कुछ करो!"
राकेश बेचैन हो उठा।

"पागल हो क्या? अगर किसी ने देख लिया तो समझो मर गए।"
रौशनी फुसफुसाई।

"प्लीज़... नहीं हो रहा कंट्रोल..."

रौशनी ने इधर-उधर देखा, फिर अपनी चेयर पास खिसकाई। धीरे से अपने हाथ पीछे ले जाकर राकेश की कमर पर हल्के से सहलाया।

राकेश के बदन में जैसे बिजली सी दौड़ गई।

उसके रोंगटे खड़े हो गए। छाती में कसाव, सांसों में तेजी, और पेट में अजीब सी हलचल... जैसे तितलियाँ उड़ रही हों।

"क्या हो रहा है मुझे?"
राकेश ने आँखें बंद करते हुए कहा —
"लग रहा है मेरी ब्रा टाइट हो रही है... और सब कुछ अंदर से हिल रहा है..."

रौशनी ने मुस्कुराते हुए कहा —
"हम्म... आखिर है तो मेरी ही बॉडी। हम लड़कियों को ऐसा ही लगता है — जब कोई अपना, कोई खास टच करता है। अब ध्यान रखना — यहाँ बहुत लड़के हैं... किसी ने कुछ गलत कर दिया तो मेरी बॉडी में तू भुगतेगा!"

राकेश सकपका गया।
उसने अपनी नज़रें झुका लीं।

⟪ सीन: मेहँदी के बाद का वो अजीब अनुभव... ⟫

राकेश: "क्या मतलब था उस बात का?"

रौशनी: (हँसते हुए) "बेटा… अभी तो नई-नई लड़की बनी हो, धीरे-धीरे सब समझ आ जाएगा।"

राकेश हँसते हुए झेंप गया।

"चलो, अब मैं चलती हूँ… एक फोटो क्लिक कर लूँ।"

रौशनी ने मोबाइल उठाया।

"तू वहीं बैठ, मैं थोड़ा दूर जाकर फोटो खींचती हूँ — अच्छे से पोज़ देना हाँ, जैसे लड़कियाँ देती हैं!"

राकेश मुस्कराया, लेकिन अंदर से झिझक रहा था। ये पहली बार था जब वह कैमरे के सामने खुद एक लड़की की तरह पोज देने जा रहा था। पहले तक तो वो ही रौशनी की फोटो क्लिक करता था… अब रोल बदल गए थे।

हल्के से गर्दन टेढ़ी करके, पल्लू संभालते हुए, मुस्कुराने की कोशिश करते हुए उसने कुछ पोज़ दिए — अजीब महसूस हुआ, पर रौशनी की हँसी और मोबाइल की क्लिक-क्लिक आवाज़ ने जैसे उसे साकार कर दिया।

फोटो क्लिक करने के बाद रौशनी हँसती हुई निकल गई।


अब राकेश फिर से मेहँदी वाले हाथों के साथ श्रुति के पास जा बैठा था। लेकिन इस बार माहौल बदला-बदला सा लगा।

चारों तरफ से लड़कों की नजरें उस पर टिक गई थीं। कोई पानी लाने का बहाना बना रहा था, कोई रास्ता पूछ रहा था, कोई पास से गुजरते हुए अजीब नज़रें डाल रहा था।
राकेश को खुद पर गुस्सा आ रहा था। "ये क्या हो रहा है? ये सब मेरे साथ? क्यों?"

वो तो हमेशा रौशनी को छेड़ता था — अब उसकी ही बॉडी में बंद था, और छेड़ा जा रहा था।

राकेश ने नज़रें नीची कर लीं।

तभी उसकी मम्मी आईं — उसे देखती रहीं, शायद कुछ समझ गईं।

"आजा बेटा, तू तो कुछ खा ही नहीं रही... मैं ही खिला देती हूँ।"
और फिर माँ ने खुद अपने हाथों से, चम्मच से उसे खाना खिला दिया।

राकेश चुपचाप खाता रहा — न कुछ कहा, न आँखें मिलाईं।

थोड़ी देर बाद, प्यास लगी। मेहँदी लगे हाथों से तो कुछ कर नहीं सकता था, वो उठ कर पानी लेने गया।

और तभी…
एक लड़का जो सामने से गुजर रहा था, पीछे से आया और उसके हिप्स पर जोर से हाथ मार गया।

"ठप्प!"

राकेश का शरीर एक झटके में कांप गया। वो चौक पड़ा।

गाल गुस्से से तपने लगे, साँसें गर्म हो गईं, आँखे जलने लगीं।

वो पल — बेइज्जती, डर, शर्म और गुस्से का मिला-जुला तूफ़ान था।

पर वो कुछ कर नहीं सका… मेहँदी लगे हाथ, साड़ी में जकड़ा शरीर… और सबसे बड़ी बात, अब वो एक लड़की दिख रहा था।

क्या करता? किससे कहता? कौन मानता?

वो प्यासा ही वापस आकर अपनी मम्मी के पास बैठ गया।

मम्मी ने देखा — चेहरा लाल हो रहा था, आँखें गुस्से से भरी थीं।

"क्या हुआ बेटा?"
उन्होंने प्यार से पूछा।

राकेश बस एक गहरी साँस लेकर रह गया। कुछ समझ नहीं आया क्या कहे… कुछ कह भी नहीं सकता था।

⟪ सीन: घर लौटते वक्त ⟫

रात ढलने लगी थी। मम्मी और राकेश चुपचाप घर लौट आए।

मम्मी बोलीं —
"मेहँदी तो बहुत सुंदर लग रही है… देखना, कल सुबह जब धोएगी, तब असली रंग चढ़ेगा। रौशनी की तरह हाथ सुर्ख हो जाएँगे।"

फिर प्यार से राकेश के माथे पर एक गुड नाईट किस दिया और अपने कमरे की ओर चली गईं।

⟪ सीन: अकेला कमरा, बंद दरवाज़ा और चुप्पी का बोझ ⟫

राकेश अब अपने कमरे में अकेला था। पलंग पर बैठा, हाथों को देखता रहा।

डिज़ाइन कितनी सुंदर थी... पर ये हाथ अब उसके अपने नहीं लगते थे।

कमर पर अब भी वो स्पर्श महसूस हो रहा था। गुस्सा… डर… और शर्म…
उसने सिर पकड़ लिया — "क्या यही महसूस करती होंगी लड़कियाँ? हर दिन… बिना बोले, सहती हुईं?"

उसकी आँखों से दो बूँदें चुपचाप गिरीं।



रात के करीब ग्यारह बजे, कमरे की खामोशी में राकेश छत की ओर देखता रहा।
साड़ी के पल्लू और ब्लाउज की पकड़ अब उसके लिए भारी पड़ने लगी थी — और महेंदी की महक उसकी नींद की राह में दीवार बन गई थी।

तभी उसे ख्याल आया —
"अरे, रौशनी को विश तो किया ही नहीं… कहीं सच में वो टारे के टूटने का इंतज़ार करती रही तो?"

उसने झटपट फोन उठाया और कॉल कर दिया।

ट्रिंग... ट्रिंग...

रौशनी ने कॉल उठाया — उसकी आवाज़ में नींद और नाराजगी का मीठा मिश्रण था।

"क्या है? इतनी रात को क्यों कॉल किया?"

"बस… विश करने… तुम्हें याद दिलाने… के आज रात टारा टूटेगा और हम विश करेंगे…"

रौशनी हँस दी —
"हरगिज़ नहीं! अभी तो शुरुआत है। और आज तो मुझे बहुत नींद आ रही है। कल देखेंगे ये सब।"

राकेश ने मुँह बना लिया —
"अरे यार… तूने तो वादा किया था…"

"अच्छा ठीक है!" — रौशनी ने कहा —
"वेट करूँगी… पर एक शर्त पर!"

"क्या शर्त?"

"कल मुझसे मिलने साड़ी पहन कर आना… उसी जगह जहाँ पहले मिला करते थे। समझे?"

राकेश चौंक गया —
"क्या? यार मम्मी से तो आज ही बड़ी मुश्किल से निकला था। इतने सवाल किए कि मैं थक गया।"

रौशनी ने तुर्शी से कहा —
"ठीक है, मत आना… फिर मैं भी सोने जा रही हूँ।"

राकेश ने हार मान ली —
"ठीक है बाबा, आ जाऊँगा साड़ी पहन कर… बस तू खुश रह।"

"ऐसे नहीं! प्रॉमिस करो।"

"प्रॉमिस।"

रौशनी की मुस्कान फोन के दूसरी ओर से महसूस हो रही थी —
"अब हम बहुत खुश हैं!"

थोड़ा ठहरकर, वह गंभीर हो गई —
"अरे हाँ, मेरे जाने के बाद कुछ गड़बड़ तो नहीं हुई?"

राकेश का स्वर थोड़ा भारी हो गया —
"हुआ… मैं पानी पीने गया था, पर किसी ने मेरे पीछे कस कर हाथ मारा… बहुत दर्द हुआ। महेंदी के कारण सहला भी नहीं सका।"

फिर हँसते हुए बोला —
"और ऊपर से मम्मी का आर्डर है कि महेंदी सुबह धोनी है, रातभर ऐसे ही रहना होगा… ये ब्लाउज, ये पेटीकोट… कैसे सोऊँगा, सोच नहीं पा रहा।"

रौशनी अब ज़ोर से हँस पड़ी —
"अभी तो पार्टी शुरू हुई है, बेटा!"

"चलो… बाय! कल टाइम से आ जाना…"

और कॉल कट गया।

⟪ सीन: कमरे की खामोशी, रात का बोझ ⟫

राकेश ने फोन मेज़ पर रखा।

कमरे में घुप्प अंधेरा था, पर मन में हलचल थी।
साड़ी की सिलवटें, कमर की खिचावट, ब्लाउज की टाइटनेस… सब कुछ जैसे चुपचाप उसे घेर रहा था।

खिड़की से आसमान में टकटकी लगाए वो बस एक टूटते तारे की उम्मीद कर रहा था…

शायद एक विश — "बस सुबह तक सब नॉर्मल हो जाए…"



रात भर की करवटों, कमर की खुजली, और ब्लाउज की चुभन के बाद
राकेश जैसे-तैसे सो पाया था।

सुबह जब माँ ने उसे तीसरी बार पुकारा —
"रौशनी! उठ जा बेटा… वरना नाश्ता ठंडा हो जाएगा!"
— तब जाकर वह आँखें मसलता हुआ उठा।

साड़ी का पल्लू आधा बिस्तर पर लटका था, और महेंदी की गंध अब भी नथुनों में अटकी हुई थी।

वह बमुश्किल बाथरूम तक पहुँचा
धीरे-धीरे महेंदी धोयी, चेहरा पानी से धोया, और आइने में खुद को देखा।

बाल बिखरे हुए थे।
रात की बनी चोटी पूरी तरह खुल चुकी थी।
उसने झल्लाते हुए सारे बाल पीछे खींचे और एक ढीली-सी पोनी बना ली —
जो एकदम से लड़की जैसी लग रही थी।

अब बारी थी साड़ी की।
वह साड़ी को जैसे-जैसे लपेटने की कोशिश करता —
वो उतनी ही खुलती जाती।
पल्लू फिसलता, प्लीट्स उलझतीं, पेटीकोट का नाड़ा चुभता… और राकेश पसीने-पसीने हो गया।

"यार ये क्या बला है…!" — उसने बुदबुदाते हुए साड़ी को फिर से कसना चाहा।

तभी अचानक…
पीछे से माँ की खिलखिलाती आवाज़ आयी —
"कब बड़ी होगी तू, रौशनी!"

राकेश चौंक कर मुड़ा — माँ दरवाजे पर खड़ी मुस्कुरा रही थीं।

"इतनी बार तुझे साड़ी पहनना सिखाया है… पर तुझसे होता ही नहीं। ससुराल जा कर तो तू हमारा नाम ही डुबोएगी!"

राकेश हड़बड़ा गया, साड़ी को ठीक करने की कोशिश करने लगा।

माँ पास आईं, उसके पल्लू को ठीक किया, प्लीट्स जमाईं —
फिर धीरे से बोलीं:

"ऐसे तो काम नहीं चलेगा।
आज से तू रोज़ साड़ी ही पहनेगी।
ना कोई सलवार, ना जीन्स, ना कुर्ता।
सिर्फ साड़ी…
तभी तो ससुराल जाकर कुछ काम आओगी!"

राकेश की आँखें फटी की फटी रह गईं।

"मम्मी! मज़ाक मत करो यार… मैं तो मर ही जाऊँगा—"

फिर झट से सुधरकर बोला —
"मर जाऊँगी…"

माँ ज़ोर से हँस पड़ीं —
"देखो, बोलने लगी है अब रौशनी जैसी!"

उन्होंने धीरे-धीरे उसकी सारी साड़ी ठीक की, बालों में एक क्लिप लगा दी —
और बोलीं:
"अब जल्दी आ जा, नाश्ता कर ले।"

और मुस्कुराती हुई बाहर चली गईं।

⟪ सीन एंड: आईने में अजनबी सी रौशनी ⟫

राकेश कुछ पल वहीं खड़ा रहा…
आईने में खुद को देखा।

साड़ी पहने, पोनी में बंधे बाल, और हल्की-सी महेंदी की लाली।

"ये मैं हूँ?"

"या रौशनी… जो अब मुझमें बसने लगी है?"

उसे याद आया —
आज उसे रौशनी से मिलना है… वही जगह, पर पहली बार साड़ी में।



"ये क्या मुसीबत है यार…"
उसने बुदबुदाते हुए अपना बिखरा हुआ कमरा देखा — तकिया उल्टा पड़ा था, ड्रेसिंग टेबल का दराज़ खुला, और अलमारी आधी लटक रही थी।

"मोबाइल कहाँ गया…?"

बार-बार अपना दुपट्टा संभालते हुए राकेश ने पसीना पोंछा।

उसे याद ही नहीं आ रहा था
आख़िरी बार मोबाइल कहाँ रखा था।

दिमाग में सिर्फ़ रौशनी घूम रही थी।
"अगर आज नहीं मिली उससे उस जगह… तो वो नाराज़ हो जाएगी।
और कहीं मेरा मोबाइल किसी ने देख लिया तो…?"

तभी दरवाज़ा हल्का सा खटका —
माँ अंदर आईं और कुछ खीझी हुई आवाज़ में बोलीं:

"इतनी देर लगा दी बेटा, नाश्ता ठंडा हो जाएगा!"

राकेश हड़बड़ाया —
"मम्मी मेरा मोबाइल नहीं मिल रहा…"

माँ ने पल भर सोचा फिर बोलीं:
"अरे, तुम्हारे पापा का मोबाइल कल कहीं खो गया। तो उन्होंने तुम्हारा मोबाइल ले लिया, उसमें अपनी सिम डाल दी। और तुम्हारा सिम ये रहा, देखो मेरी हथेली में है।"

राकेश का चेहरा उतर गया।
"अब तो पापा के पास मेरा पूरा मोबाइल है… और उसमें रौशनी के सारे चैट्स, फोटो, कॉल्स…"

"हे भगवान!"

उसे जैसे ठंडे पसीने आ गए।

वो बिना कुछ बोले माँ के साथ डाइनिंग टेबल पर चाय पीने बैठ गया।

माँ ने ध्यान से उसकी थकी आँखों और चुप-चुप चेहरे को देखा।
फिर अचानक बोलीं:

"एक बात पूछूं?"

राकेश ने चाय का कप उठाते हुए कहा —
"बिलकुल मम्मी, पूछो।"

माँ ने कप नीचे रखा और धीमे से बोलीं:

"पिछले दो-तीन दिन से तू कुछ बदली-बदली सी लग रही है…
सच बता, सब ठीक है न?"

राकेश ने थोड़ा सा घबरा कर कहा:

"मुझे क्या होगा मम्मी…"

माँ अब सीधे आँखों में देख रही थीं:

"पहले तो तू हमेशा एक्टिव रहती थी, हर चीज़ में टांग अड़ाती थी,
हर साड़ी, हर फैब्रिक पर बहस करती थी…
अब बस कमरे में बंद रहती है।
ऐसा लगता है जैसे रौशनी है ही नहीं… बस उसकी शक्ल वाली कोई लड़की घर में आ गई है।"

राकेश का गला सूखने लगा।

माँ ने आगे जोड़ा:

"कोई गेम-वेमें में तो नहीं फँस गई है तू?
वो क्या है… ब्लू व्हेल गेम, कुछ ऐसा ही सुना था।
आजकल की लड़कियाँ पता नहीं किस चक्कर में पड़ जाती हैं।"

राकेश ने खुद को हँसी रोकते हुए कहा:

"मम्मी… मैं थोड़ी बहुत पागल हूँ, लेकिन इतनी नहीं।
देखो मेरा हाथ… कोई कट-वट दिख रहा है क्या?"

और उसने दोनों हाथ आगे कर दिए।

"इतनी सुंदर मेहंदी लगाई है आपने… और आपने तो देखी भी नहीं!"

माँ को जैसे अचानक याद आया —
"अरे हाँ, सॉरी बेटा! दिखा ज़रा..."

जैसे ही राकेश ने अपने महेंदी वाले हाथ माँ की तरफ बढ़ाए —
माँ की आँखों में प्यार तैरने लगा।

"हाय मेरी बच्ची…
कितनी सुंदर रंगी है ये मेहंदी…
किसी की नज़र न लगे!"

और माँ ने उसे गले से लगा लिया —
वो माँ का गले लगाना कुछ अलग ही था —
जैसे माँ को सब पता है,
पर वो कह कुछ नहीं रही।

फिर माँ बोलीं:

"चल अब नहा ले…
फिर आज तुझे साड़ी पहनना अच्छे से सिखाऊँगी।
कितनी बार कहा है, पेटीकोट में प्लीट्स सीधा करो।"

राकेश चुपचाप मुस्कुरा दिया…

नहाने के बाद राकेश ने अपनी भीगी देह पर रेड कलर का ब्लाउज़ और मैचिंग रेड पेटीकोट पहन लिया था।
कमर में डोरी बाँधते समय उसके हाथ काँप रहे थे — शायद शर्म से, शायद उलझन से, या शायद डर से कि माँ फिर डाँटेगी।

जैसे ही वो आइने के सामने खड़ा हुआ, पेटीकोट ढीला होकर नीचे सरकने लगा।

माँ पीछे से आ गईं और मुस्कुराते हुए बोलीं:

"तेरे को तो पेटीकोट बाँधना भी नहीं आता, मेरी गुड़िया!"

और फिर उन्होंने राकेश के कमर की डोरी खोल कर, कमर को कस कर बाँधा —
इतना कस कर कि राकेश को साँस खींचनी पड़ी।

फिर माँ ने साड़ी उठाई — एक भारी एम्ब्रॉइडरी वाली डिज़ाइनर साड़ी।
रेशमी कपड़ा हाथ में लेते ही वो बोलीं:

"मन किया आज तुझे ज़रा सजाऊँ… देखूँ तो, मेरी गुड़िया कैसी लगेगी पूरी दुल्हन बनकर!"

राकेश के चेहरे पर हल्की सी कठिन मुस्कान आई।

"मम्मी… आज ही बीड़ा उठवाओगी क्या मुझसे?"

माँ ने हँसते हुए कहा —
"अभी से घबरा गई? अभी तो ये शुरुआत है…"

फिर जैसे एक अनोखा ‘श्रृंगार पर्व’ शुरू हो गया।

माँ ने हाथ पकड़कर उसे अपने कमरे में ले लिया।
वहाँ उन्होंने एक बॉक्स निकाला — चूड़ियों का सेट।

एक-एक चूड़ी राकेश के दोनों हाथों में पहनाई।
फिर भारी डिज़ाइनर झुमके उसके कानों में झूलने लगे।

गले में एक भारी नेकलेस, माथे पर मांग-टिका,
और कमर में चाँदी का रिंग वाला कमरबंद — जो हर हरकत में झनझनाता था।

फिर एक सुंदर सी पायल की जोड़ी,
जिसमें भी छोटे-छोटे रिंग्स टँके थे — उसकी हर चाल अब आवाज़ में बदल गई थी।

माँ ने उसके बालों की सिंगल चोटी बनाकर ब्लाउज़ से पिन कर दी और साड़ी का पल्लू सिर पर डालकर अच्छे से टक कर दिया।

"अब मेकअप रह गया…"

माँ ने उसे लिपस्टिक थमाई —
राकेश ने जैसे रौशनी को याद किया,
उसकी होंठों की हरकतें, उसकी उंगलियाँ लिपस्टिक लगाते हुए…

उसी अंदाज़ में राकेश ने पहली बार खुद को 'लाल' किया।

माँ ने उसकी आँखों में काजल और आईलाइनर लगाया।
आँखों के कोने तक माँ के हाथ काँप रहे थे — शायद ख़ुशी से या किसी अनकही कल्पना से।

माँ ने उसे गहराई से देखा और बोलीं:

"हाय… मेरी बच्ची कितनी प्यारी लग रही है…
किसी की नज़र न लगे!"

फिर अपनी आँख से काजल निकाल कर
राकेश के माथे पर लगा दिया — एक सुरक्षा बिंदु, एक माँ की ममता।

राकेश कुछ भी नहीं बोल सका —
बस आँखे नीचे किए बैठा रहा।
उसकी पलकों पर लिपस्टिक की लाली और माँ की उम्मीदें तैर रही थीं।

तभी बाहर दरवाज़े की घंटी बजी…
माँ झटपट उठीं और बोलीं:
"देखती हूँ कौन आया है… तुम बैठो यहीं, पल्लू ठीक से रखना!"

और वो कमरे से बाहर चली गईं।

कमरे में अब मैं अकेला था।
धीरे से अपने पैरों पर उठा, साड़ी की पायल छनकी, और पल्लू अपने आप नीचे सरकने लगा।

मैंने सामने लगे बड़े कांच में खुद को देखा।

…और कुछ सेकंड को साँस ही रुक गई।

आइने में रौशनी थी।
वो रौशनी जिसे देखने की, छूने की, महसूस करने की चाह में मैंने न जाने कितनी रातें बिताई थीं…
…वो अब मेरे सामने थी — मेरे ही रूप में।

ब्लाउज़ की गिरती आस्तीनें, मांग में सजी बिंदी, झुमकों की झनकार, कमरबंध की चाँदी की चमक, और आँखों में काजल की हल्की सी मासूमियत — सब कुछ मुझे रौशनी जैसा बना रहा था।

मगर ये एक कसक भी थी —
अब जब मैं रौशनी जैसा लग रहा था,
तो मैं खुद रौशनी को कैसे देख सकता था?

"अगर आज रौशनी सामने होती, तो पक्का मुझे देख कर तड़पती… कॉल करती, छेड़ती, ताने मारती…"
सोचते हुए मेरे अंदर एक शरारती चिंगारी जल उठी।

"तो आज क्यों न रौशनी को मैं तड़पाऊँ?"

तभी मेरी नज़र ड्रेसिंग टेबल पर रखे मम्मी के मोबाइल पर पड़ी।
तुरंत उठाया,
रौशनी के नंबर पर एक मिस कॉल दी।

सिर्फ एक घंटी ही गई थी कि फोन कट गया…
…और अगले ही पल रौशनी की कॉल आ गई।

"हैलो! ये तुम्हारा मोबाइल क्यों बंद आ रहा है?"

मैंने खुद को थोड़ा और साड़ी में टाइट किया,
पल्लू को कंधे पर ठीक से जमाया, और फिर मधुर आवाज़ में बोला:

"तुम्हारे पापा का मोबाइल बिगड़ गया है, तो उन्होंने मेरा ले लिया है… अब मेरा नंबर उनके पास है…"

रौशनी एक पल को चुप हो गई।
फिर बोली:

"तो मुझसे बात करने के लिए मम्मी का फोन चुराया गया?"

मैं मुस्कुरा कर बोला:

"नहीं, मम्मी ने खुद दिया… कहा — मेरी गुड़िया बहुत सुंदर लग रही है, अब रौशनी को दिखा देना…"

रौशनी जैसे सन्न रह गई।
"तुम सच में साड़ी पहन कर आए हो?"

मैंने धीमे से जवाब दिया:

"सिर्फ साड़ी ही नहीं… जो तुमने सोचा भी नहीं होगा — झुमके, चूड़ियाँ, कमरबंध, पायल… और सबसे भारी चीज़ — तेरी यादें…"

फोन पर कुछ सेकंड की ख़ामोशी छा गई।
मैंने आँखों में एक शरारत लिए पूछा:

"अब तो बता… तड़प रही हो न मुझे देखने के लिए?"

रौशनी की हँसी की आवाज़ आई — वो हँसी जो teasing और admire के बीच झूल रही थी।

"तू कहीं बहुत dangerous तो नहीं बनता जा रहा… आज मिलना पड़ेगा तुझसे…"

मैंने कहा:

"मैं तैयार हूँ… रौशनी की तरह… अब तू तैयार हो रौशनी को देखने के लिए?"

रौशनी: "बस आ रही हूँ… जिस जगह बोलोगे…"

रौशनी ने पूछा,
"और क्या हो रहा है सुबह से?"

मैंने जवाब दिया,
"अरे क्या बताऊँ, सुबह नहाकर उठा तो साड़ी-साड़ी की साड़ी खुल गई थी। उसी को दोबारा पहनने की कोशिश कर रहा था, तभी तुम्हारी मम्मी आ गईं। और आते ही बोलीं कि आज से हर रोज़ सिर्फ साड़ी ही पहनाएंगी — और कुछ नहीं।"

रौशनी ज़ोर से हँसी और बोली,
"तो मुँह क्यों बना रहे हो? अच्छा है ना! तुम ही तो बोलते रहते थे कि साड़ी पहनूं, मेकअप करूँ... अब खुद करो आराम से मेकअप और पहनते रहो जी भर के साड़ियाँ!"
"हाहाहा..."

फिर थोड़ी शरारत से बोली,
"वैसे, मेरी मोहब्बत की मेहंदी तो ज़बरदस्त रची होगी ना?"

मैंने हँसते हुए कहा,
"हाँ, बहुत ही जबरदस्त। एकदम गाढ़ी लाल हो गई है मेरे हाथों में!"

रौशनी मुस्कुराकर बोली,
"ये तो होना ही था।"
फिर उत्साहित होकर बोली,
"फोटो भेजो ना!"

मैंने जवाब दिया,
"तुम्हारी मम्मी के फोन में कैमरा ही नहीं है। और तुम्हारे पापा तो किसी हालत में मोबाइल देंगे ही नहीं... तो कोई चांस नहीं है, समझीं?"

फिर रौशनी ने थोड़ा चिढ़ाते हुए कहा,
"तो खुद मिलने आ जाओ... या कहो, मैं ही आ जाती हूँ तुम्हें देखने घर पर!"

मैंने तुरंत मना किया,
"कोई चांस नहीं है! क्योंकि तुम्हारी मम्मी ने मुझे सिर्फ साड़ी नहीं पहनाई है... बल्कि पूरा का पूरा दुल्हन बना रखा है!"

रौशनी आश्चर्य से बोली,
"क्या मतलब??"

मैंने लंबी साँस लेकर कहा,
"मतलब ये कि उन्होंने सिर्फ साड़ी नहीं पहनाई — कानों में बड़े-बड़े झुमके टांग दिए हैं, गले में दो भारी नेकलेस, हाथों में पूरा चूड़ों का सेट, कमर में कमरबंध और पैरों में दो भारी पायलें पहना दी हैं।"

"और खुद कहां गई हैं पता नहीं — बड़ी मुश्किल से उनके फोन से तुम्हें कॉल किया है। समझी?"

मैं ये सब कह ही रहा था कि तभी मम्मी की पायल की झंकार सुनाई दी — लगा कि वापस आ रही हैं।
मैंने मोबाइल साइड में रख दिया, लेकिन कॉल काटना भूल गया।

मम्मी कमरे में आईं और बोलीं,
"रौशनी, पड़ोस वाली शांति को लड़का हुआ है — ढोलक का न्योता आया है, मैं वहीं जा रही हूँ। तू घर पर ही रहना।"

मैंने नज़र झुकाकर धीरे से कहा,
"जी मम्मीजी..."

मम्मी इतना कहकर बाहर निकल गईं। मैंने धीरे से दरवाज़ा अंदर से लॉक किया और मोबाइल उठाया।

उधर से रौशनी की आवाज़ आई —
"क्या बात है! मम्मी तो चली गईं... अब तो शाम के छह बजे तक वापस आने का कोई चांस नहीं है। अब तुम बस मेरा इंतज़ार करो... मैं आ रही हूँ!"

इतना कहकर उसने कॉल काट दिया।

मैं थोड़ी देर वहीँ खड़ा रहा... फिर जैसे अचानक ध्यान आया —
“अब तो अकेला हूँ, देखूं तो सही आज मेरा ये रूप कैसा लग रहा है...”

मैं आईने के सामने गया और खुद को गौर से देखने लगा।

कानों में झुमके, माथे पर मांगटीका, गले में हार, कमर पर कमरबंद, पैरों में पायलें, और उस पर लाल भारी कढ़ाईदार साड़ी — एकदम संवरी हुई दुल्हन की तरह।

“ये मैं हूँ?”
मैं खुद को ही देखता रह गया। फिर मुस्कुरा उठा।

फिर क्या था — अलग-अलग पोज़ में सेल्फी लेना शुरू कर दिया। कभी हाथ कमर पर, कभी हल्का सा पल्लू आगे सरका कर, कभी आंखों में काजल को निहारते हुए...
लगभग दस मिनट तक मैं उसी रंग में डूबा रहा।

तभी दरवाज़े की घंटी बजी।

मैं चौंका। हल्का पर्दा हटाकर देखा — सामने रौशनी थी। जीन्स और टीशर्ट में, एकदम बेपरवाह। लेकिन उसकी आंखों में शरारत झलक रही थी।

मैंने दरवाज़ा खोला —
वो बिना एक पल गंवाए अंदर घुसी और दरवाज़ा पीछे से बंद कर दिया।

"वाओ राकेश! पूरे गहनों की दुकान लग रहे हो आज तो!" — वो हँसते हुए बोली।

मैंने नाक सिकोड़ी और कहा,
"मज़ाक मत करो... ये सब तुम्हारा फैलाया हुआ रायता है, जो अब मुझे झेलना पड़ रहा है, समझी!"

रौशनी थोड़ा मुस्कराई, फिर धीरे से बोली,
"ओहो... लगता है मेरी जान आज मुझसे नाराज़ है। चलो... तुम्हारा गुस्सा अभी दूर कर देती हूँ..."

वो मेरी तरफ बढ़ने लगी।

मैं थोड़ा पीछे हट गया।
वो आँखें सिकोड़कर बोली,
"क्या बात है? अब तो नाज़-नखरे भी सीख लिए? लड़की होने का पूरा कोर्स कर रही हो क्या!"

फिर उसने बाहें फैलाईं और मुझे गले लगाने के लिए आगे बढ़ी।

लेकिन मैं पीछे हट गया और मुस्कराकर बोला,
"इतनी जल्दी नहीं रौशनी... तुमने बहुत तड़पाया है, अब मेरी बारी है!"

ये कहकर मैं तुरंत पलटा और अपने कमरे की ओर भागा।

मेरे शरीर से हर एक ज़ेवर ने आवाज़ की —
पायल की छमछम, कमरबंध की झंकार, चूड़ियों से टकराते रिंग्स — जैसे पूरे घर में मेरे भागने की एक मिठास फैल गई हो।

मैंने कमरा अंदर से बंद कर लिया।

रौशनी दरवाज़े के बाहर खड़ी थी, और शायद उसकी मुस्कान और शरारत अब और बढ़ने वाली थी...



मैंने दरवाज़ा भीतर से बंद कर रखा था, और अंदर एक हल्का-सा संतोष था कि अब कुछ देर की राहत मिलेगी। तभी बाहर से रौशनी की आवाज़ आई —
"राकेश, मेरी जान, चाहे जो कर लो... आज तुम बच नहीं पाओगे। अब जल्दी से दरवाज़ा खोलो!"

मैंने हल्की झल्लाहट के साथ जवाब दिया —
"हरगिज़ नहीं खोलूंगा!"

रौशनी ने चुनौती भरे अंदाज़ में कहा —
"मैं भी देखती हूँ कि कब तक नहीं खोलते हो!"

कुछ सेकंड के सन्नाटे के बाद अचानक घर के बाहर दूर बेल बजने लगी।

मैं चौंका।

उसके बाद घबराई हुई आवाज़ आई —
"राकेश, प्लीज़ गेट खोलो! दूर बेल बज रही है... कोई मुझे देख लेगा तो मेरी जान ले लेगा!"

उसकी आवाज़ में डर था, या शायद वो जानती थी कि मैं डर जाऊंगा।

मैं जैसे ही हड़बड़ाकर दरवाज़ा खोलने गया, रौशनी सामने खड़ी थी — और अगले ही पल उसने मुझे झट से अपनी बाँहों में भर लिया।

"ओह मेरी जान! इतनी जल्दी डर गए?" — वो मुस्कराई।

"दूर बेल मैंने ही बजाई थी, समझे?"

मुझे उससे झटका देने की हिम्मत नहीं हुई। वो और करीब आई, मुझे कसकर गले लगाया और उसकी हथेली मेरी पीठ पर धीरे-धीरे फिसलने लगी।

मैंने उसके हाथ को हटाना चाहा... लेकिन मेरा हाथ, मेरा मन और मेरा शरीर... जैसे सबने मेरा साथ छोड़ दिया था।

फिर उसका हाथ मेरी पीठ से फिसलता हुआ ब्लाउज़ की भीतर सरकने लगा।

"नहीं... ये सही नहीं है..." — मेरे मन में एक हल्की चीख थी, पर होठों तक नहीं आ पाई।

मैंने उसकी ओर देखा, पर उसकी आँखों में सिर्फ मोहब्बत नहीं थी — एक अधिकार, एक जीत का भाव था।

फिर उसने धीरे से मेरे कंधे पर अपने होठ रख दिए... और एक तीखा, गहरा लव बाइट दे डाला।

"आह!" — मेरे मुँह से हल्की आवाज़ निकली।

मेरी त्वचा गोरी थी, इसलिए वहाँ गहरे लाल निशान बन गया — जो ब्लाउज़ के पार भी साफ़ दिखाई दे रहा था।

उसने मेरा चेहरा अपने दोनों हाथों में लिया, और जैसे ही अपने होठों को मेरे करीब लाई — मैं अचानक झटके से पीछे हुआ, उसे धक्का दिया।

वो हल्के से पीछे की ओर झूल गई।

हवा में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी। मेरे सीने की धड़कनें तेज़ थीं... और उसकी आँखों में आश्चर्य।

मैंने काँपती आवाज़ में कहा,
"रौशनी... क्या पागल हो गई हो? ये क्या कर रही हो तुम? अगर तुम्हारी मम्मी ने ये निशान देख लिए तो... पता नहीं क्या हो जाएगा..."

पर रौशनी ने नज़रों में वही शरारत बनाए रखी —
"कुछ नहीं होगा... और वैसे भी, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूँगी।"

वो मेरे पास आई, और मैं डर के मारे पीछे हटता चला गया। जब तक दीवार से जा चिपका, वो मेरे बेहद करीब आ चुकी थी।

मैंने घबराकर मुँह दीवार की तरफ मोड़ लिया। उसकी हथेली मेरे कंधे पर रखी — मुलायम, गर्म, धीमी — और फिर धीरे से मेरी पीठ पर एक हल्का-सा किस किया।

एक झटका सा पूरे शरीर में दौड़ा।

और फिर...

उसने झुककर मेरी कमर के ऊपर, ब्लाउज़ के खुले हिस्से में ज़ोर से एक बाइट दी।
"आह!" — मेरे मुँह से चीख सी निकल गई।

मैंने तुरंत एक हाथ से उस जगह को सहलाने की कोशिश की, लेकिन रौशनी ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और हथेली पर भी अपने होठों का निशान छोड़ दिया।

अब जलन दोनों जगह थी — पीठ पर और हथेली पर।

मैंने दूसरा हाथ पीछे ले जाकर उसे हटाने की कोशिश की, लेकिन वो तो जैसे कुछ सुनने के मूड में ही नहीं थी। उसने अचानक पास की मेज़ से एक दुपट्टा उठाया और मेरे दोनों हाथों को कसकर बाँधने लगी।

"रौशनी! ये क्या कर रही हो? मुझे दर्द हो रहा है..."

मैं कहता रहा, लेकिन उसके चेहरे पर एक जिद्दी मुस्कान थी — शायद खेल जैसा लग रहा था उसे, लेकिन मेरे लिए ये गंभीर हो चुका था।

मेरे हाथ चूड़ियों से सजे थे, और जब वो उन्हें कसकर बाँध रही थी तो हर हरकत में टीस उठ रही थी।

अब मैं... पूरी तरह बेबस हो चुका था।

उसने मेरे दोनों कंधों को थामकर मुझे अपनी ओर खींचा, और मेरी आँखों में झाँकते हुए होंठों की तरफ बढ़ने लगी।

मेरे अंदर जैसे एक सिहरन दौड़ गई। मैं कुछ कर नहीं सकता था... न हाथ चला सकता था, न खुद को बचा सकता था। मेरी साँसें तेज़ चल रही थीं, दिल ज़ोर से धड़क रहा था।

और फिर...

उसने अपने होंठ मेरे होठों पर रख दिए।

धीरे-धीरे उसने मेरे होंठों को अपने होठों में समेटा, और कुछ सेकंड तक वो मेरे होठों को चबाने लगी — जैसे प्यार में बेकाबू हो। लेकिन मेरी चिंता थी... ये निशान... ये सब मैं कैसे छुपा पाऊँगा?

मैंने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन मेरे दोनों हाथ बंधे थे। कोई रास्ता नहीं था।

करीब दो मिनट बाद, जब उसे साँस लेने की ज़रूरत पड़ी — उसने मेरे होंठों को छोड़ा।


 और फिर मुझे कास कर पकड़ लिया मैं अपनी पूरी ताकत लगायी और एक झटका दिया खुद को हटाने के लिए लेकिन जैसे ही मैं पीछे को हटा मैं बाद से टकरा गया और उसी पर पेट के बल गिर गया अब रौशनी भी मेरे ऊपर ही लेट गयी और मेरी बॉडी पर अपनी बॉडी घिसने लगी मेरे पीठ पर कमर पर किश करने लगी फिर अपने दोनों हाथ मेरी पीठ से होते हुए मेरी छाती पर ले आयी और मुझे चिढ़ाते हुए बोली क्यों मर दिया जाये या छोड़ दिया जाये तुम्हे बहुत मजा आता था न ये सब करने में अब बताओ कैसा लग रहा है मैंने कहा मेरे हाथ खोल दो प्लीज तो बोली खोल दूंगी और मेरी छाती को अपने दोनों हाथो से कास कर मसलने लगी बहुत ही अजीब सा अहसास था दर्द और मजा दोनों एक साथ आ रहा था दिमाग कहे रहा था नहीं अब मत दबाओ दर्द हो रहा है और दिल कर रहा था और तेज दबाओ और तेज बढ़ाओ अच्छा लग रहा है मत रखो और

रौशनी ने मुझे धीरे से सहारा देकर सीधा लिटा दिया और खुद मेरे पेट पर बैठते हुए बोली,
"राकेश बाबू, कैसा लग रहा है आज? पूरा दुल्हन बना दिया तुम्हें!"

मैं थोड़ा घबराकर बोला,
"प्लीज़ रौशनी, अब छोड़ दो… अगर कोई आ गया तो… मेरी साड़ी भी ठीक से नहीं है।"

वो शरारत से मुस्कुराई,
"बस इतनी सी बात? अभी तो मैंने तुम्हारी साड़ी को छेड़ा भी नहीं है। और वैसे भी ये सब तुम्हारा ही आइडिया था न – 'रौशनी, एक दिन तुम मुझे भी दुल्हन बना दो' – अब जब बना दिया है तो डर क्यों रहे हो?"

इतना कहकर वो मेरे पेट से हट गई और ज़मीन पर बैठते हुए मेरी पायल की आवाज़ को सुनकर खिलखिलाने लगी।
"इतना छम-छम तो असली दुल्हन भी नहीं करती जितना तुम कर रहे हो राकेश!"

मैंने उसे टोकते हुए कहा,
"मत चिढ़ा यार… बहुत अजीब लग रहा है।"

रौशनी थोड़ी नरम हुई, उसने मेरा हाथ पकड़ा और बोली,
"ओके बाबा… नहीं छेड़ूंगी अब। लेकिन एक सेल्फी तो बनती है, स्माइली राकेश दुल्हन की!"

मैंने अनमने मन से हँसने की कोशिश की

 और मेरे पेट पेअर के पास बैठ कर मेरे पैरो पर अपना हाथ फिरने लगी मैंने रोकने की कोशिश की पर उसका टच मेरे मुँह से आवाज ही नहीं निकलने दे रहा था मैं जैसे अपनी होश खो रहा था मैं बस बड़बड़ा सा रहा था प्लीज रुक जाओ और मैं जितनी बार रुकने को कहता वो उतना ही आगे बढ़ रही थी उसके हाथ धीमे धीमे मेरी जांघ पर थे फिर उसने एक झटके से मेरी पंतय को मेरे पेअर से निचे निकल दिया मैं दर गया क्यों के मुझे पता था के इसके बाद क्या होता है रौशनी मुस्कराई, "अरे डर क्यों रहे हो सोनू, तुम्हारी ये हालत मैंने देखी है… अब भरोसा नहीं करोगे मुझ पर?"

मैं बस चुपचाप बैठा रहा, अपने दोनों पैर जोड़े, जैसे कोई शर्मीली दुल्हन।

"ठीक है, खोल रही हूँ तुम्हारे हाथ," उसने कहा और मेरे चूड़ी वाले हाथ धीरे से खोल दिए।

मैं बस हँस पड़ा… क्योंकि सच कहूं, रौशनी से हारना बुरा नहीं लगता था।

रौशनी ने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर बिठाया और फिर मेरे पैरों के पास लेट गई। उसकी आँखों में एक शरारत थी जब वह बोली, "एक काम करो... अब तुम मुझे किस करो, मेरे होंठों पर।"

मैं हल्का-सा झेंप गया। "यार, हाथ तो खोल दो... बंधे हुए हाथों से किस करूँगा?" मैंने कहा।

वह मुस्कुराई, "मुझे क्या पता? तुम्हें सोचना चाहिए कैसे करना है।"

मैंने संघर्ष किया, फिर बिस्तर पर खड़ा हो गया। अपने पैरों को उसके दोनों ओर फैलाकर, मैं रौशनी के ऊपर बैठ गया। बैलेंस बनाते हुए मैं आगे झुका, लेकिन तभी मेरा संतुलन बिगड़ा और मैं पूरी तरह से उसके ऊपर गिर पड़ा। हमारी छातियाँ एक-दूसरे से सट गईं। मुझे थोड़ा दर्द हुआ, पर रौशनी का शरीर इतना गर्म था कि वह दर्द भी एक अजीब-सी अनुभूति में बदल गया।

"वाओ... मज़ा आ रहा है!" रौशनी ने कहा और फिर अपने दोनों हाथ फैलाकर मुझे जकड़ लिया। अब मेरा बैलेंस सही था। मैंने धीरे से उसके होंठों को अपने होंठों से छुआ... और फिर क्या था? रौशनी जोश में आ गई। उसने मेरे होंठों को फिर से जकड़ लिया, मेरी कोशिशों के बावजूद पीछे हटना मुश्किल हो रहा था। एक लंबा किसिंग सेशन चला।

पर अब मुझे गुस्सा आने लगा था। मेरे हाथों में तेज दर्द हो रहा था, पर रौशनी का जुनून कम होने का नाम नहीं ले रहा था...


रौशनी ने हल्की नाराज़गी दिखाते हुए जैसे ही राकेश के हाथ खोले, उसका चेहरा थोड़ा उतर गया।
"अब मैं जा रही हूँ!"
राकेश ने झट से कहा, "गुस्सा मत हो यार, देखो हाथ में सच में दर्द हो रहा था। चूड़ियाँ चुभ रही थीं... कहीं कट ही न जाएं।"

रौशनी थोड़ी देर चुप रही, फिर मुड़ी और बोली,
"अब तुम्हारे हाथ खुल गए हैं न, तो खुश रहो।"

राकेश थोड़े मासूमियत भरे लहजे में बोला, "प्लीज, माफ़ कर दो न। देखो..."
और उसने दोनों कान पकड़ लिए।

ये देख रौशनी हँस पड़ी, "अरे पगले! अब इतनी इमोशनल ड्रामा मत कर... ठीक है, माफ़ किया!"
फिर उसकी आँखें चमक उठीं, "चलो अब, तुम्हारी साड़ी मैं ठीक से पहनवा देती हूँ। मम्मी आने ही वाली होंगी। तुम वैसे भी साड़ी में आधे बने आधे बिगड़े लग रहे हो।"

राकेश ने सांस लेते हुए कहा, "हां, लेकिन ये वाली साड़ी बहुत टाइट है यार। ब्लाउज़ में सांस नहीं ली जा रही।"
रौशनी ने तुरंत चुटकी ली, "ओह हो! तो अब तुम्हें भी लड़कियों वाली दिक्कतें समझ आने लगीं?"

राकेश शरमा गया, "मत छेड़ यार... सच में बहुत अजीब लग रहा है।"

रौशनी मुस्कराई, अलमारी की तरफ बढ़ी और बोली, "ठीक है, आज तुम्हें अपनी फेवरेट साड़ी पहनाती हूँ। वही नीली जॉर्जेट वाली... हल्की भी है और तुम्हारे स्किन टोन पर अच्छी भी लगेगी।"

राकेश ने आँखें बड़ी करते हुए कहा, "तूने पहले ही सोच रखा था क्या?"
रौशनी ने मजाक में जवाब दिया, "अब जब मेरा 'साड़ी वाला बाबू' बना है, तो उसे स्टाइलिश तो बनाना ही पड़ेगा!"



उसकी बात सुनकर मैं हल्का-सा झेंप गया। वह बोली, "यार, लड़के होने के तो सही मजे हैं। कुछ करना नहीं पड़ता, सब कुछ हाथ में मिल जाता है। पहले जब मैं रौशनी थी, तो मैं सारा काम करती थी। इतनी मुश्किल से तुमसे मिलने आती थी, फिर भी घर में पापा-मम्मी की डांट सहनी पड़ती थी। और तुमसे मिलने आती, तो तुम्हारी डांट खाती थी। मेरे लाख मन करने पर भी तुम जहाँ-तहाँ काट-काटकर निशान बना देते थे, जिन्हें मुझे हमेशा छुपाना पड़ता था। पर तुम तब भी मेरी परेशानी नहीं समझते थे।"

उसकी आँखों में एक गहरा भाव था। "अब जब तुम्हें कोई अचानक इन निशानों के बारे में पूछेगा, तो तुम्हें समझ आएगा। इसलिए मैंने जान-बूझकर तुम्हें इतने सारे लव बाइट्स दिए थे। अब इनके दर्द को सहना और मुझे याद करना।"

फिर उसने अपना मूड बदला और चंचलता से बोली, "अब चलो, भागकर जाओ और मेरे लिए एक चाय लेकर आओ!"



मैंने हिचकिचाते हुए पूछा, "क्या मतलब?"

रौशनी ने शरारत भरी मुस्कान के साथ कहा, "साड़ी पहननी है या ऐसे ही रहना है?"

"पहननी है," मैंने जल्दी से जवाब दिया।

"तो चलो, किचन में जाओ और चाय बनाकर लाओ," उसने आदेश देते हुए कहा।

मैंने धीमी आवाज़ में कबूल किया, "मुझे चाय बनानी भी नहीं आती..."

रौशनी की आँखों में चमक आ गई। "चलो, मैं सिखा देती हूँ... पर उसके लिए तुम्हें कुछ और करना पड़ेगा," वह बोली, उसकी आवाज़ में एक खास लहज़ा था।

मैंने सतर्क होकर पूछा, "क्या?"

वह ठहरी, फिर बोली, "हम्म... एक काम करो, अपना पेटीकोट और ब्लाउज उतार दो।"

"हरगिज़ नहीं!" मैंने साफ इनकार कर दिया।

रौशनी ने नाटकीय अंदाज़ में कंधे उचकाए। "ठीक है, तो रहो ऐसे ही। मैं जा रही हूँ," वह बोली और मुड़ने लगी।

मैंने उसे रोकते हुए कहा, "यार, प्लीज... समझने की कोशिश करो!"

"ठीक है, समझ गई। अब मैं रही हूँ," उसने जवाब दिया और चलने लगी।

आखिरकार मैंने हार मान ली। "ठीक है... उतार देता हूँ," मैंने असहज होते हुए कहा।

रौशनी खिलखिलाकर हँसी और मेरे पास आई। उसने मेरे ब्लाउज का हुक और ब्रा की स्ट्रैप खोल दी, फिर मुझे ज़ोर से गले लगा लिया। उसी गले लगाने के बहाने उसने एक झटके में मेरे पेटीकोट का नारा खोल दिया, और वह नीचे गिर गया। मैंने तुरंत हाथों से पेटीकोट को पकड़ लिया, पर रौशनी ने धीरे से मेरे ब्लाउज को बाएँ हाथ से खिसकाकर उतार दिया, चूड़ियों से बचाते हुए। फिर ब्रा भी उतार दी।

वह मेरी पीठ के पीछे खड़ी हो गई और मेरे हाथों को सहलाने लगी। फिर उसने मेरी कमर से पकड़कर पेटीकोट को इतना ऊपर खींचा कि मेरे हाथों से वह छूट गया। "बस, अब शर्म खत्म," उसने कहा।

मेरी कमर में अभी भी कमरबंद बचा हुआ था। मैंने हाथों से अपने प्राइवेट पार्ट्स को ढकते हुए, शर्मिंदगी से भरा हुआ, किचन की ओर चल पड़ा।



मैं उलझन में था—क्या छुपाऊँ? ऊपर ढकता तो नीचे खुल जाता, और नीचे सहेजता तो ऊपर बेपर्दा हो जाता।

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