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कविता ने एक हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा,
"अब तो बस एक ही ऑप्शन है अंकित... तुम्हें मेरा दूसरा मोजा भी उतारना पड़ेगा — और इस बार प्लीज़, कोई गड़बड़ मत करना। ये तुम्हारा आख़िरी चांस है।"
अंकित के चेहरे पर असहायता साफ़ झलक रही थी, लेकिन कोई और चारा भी नहीं था। वह घुटनों के बल झुकते हुए कविता के पैर के पास गया, और बहुत ही धीरे-धीरे अपने मुंह से उसका मोजा उतारने लगा। बदबू से उसका मन घबराया, पर ध्यान भटकाना उस वक़्त सबसे बड़ा खतरा था। इस बार वह पूरी सावधानी बरत रहा था।
हर इंच उतारते समय उसे ध्यान था कि कहीं मोजे में फँसी वो छोटी-सी चाभी फिर से गिर न जाए। और आखिरकार… मोजा उतर गया… और मुंह में उसे कुछ धातु जैसा महसूस हुआ।
हाँ! वही थी चाभी!
छोटी-सी, ठंडी-सी, लेकिन आज़ादी की चाबी।
उसने चाभी को अपने दांतों से पकड़ लिया — क्यों कि हाथ तो अब भी बंधे थे। कविता उसकी ओर थोड़ा झुकी, और धीमे से बोली,
"अब असली मुश्किल शुरू हुई है... चाभी मिल गई, पर ताला कहाँ है, ये तो मुझे भी नहीं पता..."
अंकित के मुंह में चाभी थी, बोल नहीं सकता था — बस एक धीमी सी “म्ह्म्म…” की आवाज़ निकाली। कविता समझ गई कि वो पूछ रहा है, "अब क्या?"
कविता ने गहरी सांस लेते हुए कहा,
"ताला बहुत छोटा-सा है... और शायद मेरी गर्दन के पीछे कहीं है, आंखों की पट्टी में..."
फिर कुछ सोचते हुए बोली,
"तुम एक काम करो... मेरे पैरों से ऊपर की तरफ धीरे-धीरे बढ़ो, तुम्हारे चेहरे से मुझे पता चलता रहेगा कि तुम कहाँ तक पहुंचे हो... और मैं तुम्हें गाइड करती रहूंगी। अगर भटके तो आवाज़ दूंगी..."
अंकित ने भी अंकिता के पैरो की तरफ से, अपना मुंह उसकी जांघो पर,
फिर पेट पर, फिर उसके गले पर,फिर उसके माथे से होते हुए, उसके सर तक पहंचा,
फिर अंकिता से बोला के चाभी मेरे मुह में है , इसलिये मुझे अंदाजा नहीं लग पा रहा है,
के ताला कहा पर है, तो एक काम करो तुम चाभी को अपने मुह में पकड़ो,
फिर चाभी को अंकित ने कविता के मुह में, देने की कोशिश की,
लेकिन हर बार दोनो, नाकाम हो गए के अंकित के मुह से
कविता के मोजो की बहुत ही गंदी बदबू आ रही थी,
अंकित को अंदाजा नहीं था के, कविता जान बुझ कर चाभी पक्कड़ नहीं रही है,
पर कविता के पेट, में भी अब प्रेशर तेज हो रहा था और न चाहते हुए भी ,
अंकित के मुह से, चाभी अपने मुह में ले ली, चाभी लेते हूं
कविता के नथुनों में अंकित के साँसों की बदबू घुस रही थी - मोज़े की गंध, पेट की गर्मी
और थोड़ी सी मुँह की लार का मिश्रण। उसका पेट मचल उठा,
लेकिन उसने अपनी उल्टी को गले तक ही रोका।
"अगर अभी उल्टी कर दी, तो चाबी खो जाएगी... और फिर..."
अंकित अपनी जीभ और नाक से ताला ढूँढने की कोशिश कर रहा था।
उसकी नाक कविता की गर्दन पर फिसल रही थी,
और जीभ कभी उसके कान तक पहुँच जाती, तो कभी गालों पर।
एक अजीब सी गुदगुदी का एहसास हो रहा था।
कविता ने अपने दाँत भींच लिए। "बस... बस थोड़ी देर और..." उसने खुद को संभाला।
इस्लिये जरा सी भी आवाज हो नहीं कर रही थी,
पर अगर और कोई स्थिति होती, और अंकित की जगह
कोई भी और लड़का या उसका बॉयफ्रेंड होता होता तो,
पता नहीं क्या हो जाता आज.
कविता बार बार अपने चरम पर पहुँच रही थी
अंकित के जीभ के टच से कविता के सेंसशनऔर फीलिंग पर
बहुत कुछ हो रहा था उसने लम्बी लम्बी सांसे लेना शुरू कर दी ,
खुद को काबू में रखा जिससे भाई बहन की मर्यादा बनी रहे
उसने अंधेरे में ताले को ढूंढ ही लिया। फिर धीरे-धीरे कविता के मुंह से चाबी निकालकर उसकी आंखों पर बंधी पट्टी खोल दी। जैसे ही पट्टी खुली, कविता ने एक पल के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं, मानो तेज़ रोशनी से बचने की कोशिश कर रही हो।
अब वो सब कुछ साफ़-साफ़ देख सकती थी। उसने अंकित को देखा — पूरा बंधा हुआ, लेकिन चेहरे पर एक संतोष था कि उसने कम से कम कविता को आज़ाद कर दिया है।
कविता ने तुरंत उसे इशारा किया कि गले में लटकी चैन का ताला खोलना है। अंकित ने जैसे-तैसे उसकी बात समझी और धीरे-धीरे उस चैन को भी खोल दिया।
अब कविता पूरी तरह से जागरूक थी। उसके हाथ अभी भी पीठ के पीछे बंधे थे, लेकिन उसके पैरों से मोजे पहले ही उतर चुके थे। सौभाग्य से चाबी पास ही गिरी थी।
कविता ने धीमे से झुककर चाबी को अपने हाथों से उठा लिया और कुछ ही पलों में अपने हाथों को भी आज़ाद कर लिया।
अब उसके सामने सिर्फ़ एक काम बचा था — अपने पैरों को बेड पोस्ट से अलग करना। थोड़ी सी कोशिश के बाद वो भी हो गया।
अब कविता पूरी तरह से आज़ाद थी।
लेकिन... अंकित?
वो अब भी वहीं बंधा हुआ था। कविता ने एक नज़र उसकी हालत पर डाली — चेहरे पर थकावट, लेकिन आंखों में उम्मीद।
कविता मुस्कुराई और उसके पास जाकर धीरे से बोली:
"बस कुछ देर और मेरे भाई... अब तू भी आज़ाद होगा। मैं बस वॉशरूम से होकर आती हूं
लेकिन जाने से पहले वो अपने मोज़े की और देखती है
कविता ने अपने मोज़ों को हाथ में लेते हुए एक बार फिर उनकी बदबू को महसूस किया। "उफ्फ... ये तो सच में बहुत गंदे हैं!" उसके मन में हल्की सी शर्मिंदगी भी आई, लेकिन फिर वह मुस्कुरा दी—"पर अंकित ने इन्हें मुँह से निकाला था... यार, ये कैसे सह लिया होगा?"
उसकी आँखों में एक शरारत चमकी। "चलो, एक आखिरी मज़ा ले लेते हैं!"
कविता ने अपने एक हाथ से मोज़े पकड़े और दूसरे हाथ से अपनी नाक बंद कर ली। फिर वह धीरे से अंकित के पास गई, जो अभी भी अपने पेट में घुल चुके उस "मोज़ा-थूक कॉकटेल" के असर से उबरने की कोशिश कर रहा था।
झटाक!
एक अचानक हरकत में, कविता ने अपने गंदे मोज़े अंकित के मुँह में ठूँस दिए!
"म्म्म्म्म्फ—!!!"
अंकित की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसका दिमाग सुन्न हो गया। वही बदबू, वही पसीने का स्वाद, उसके मुँह के अंदर फिर से भर गया!
कविता ने ज़ोर से हँसते हुए कहा—
"अब तू अकेला पन महसूस नहीं करेगा! मैं भी तेरे साथ हूँ... कम से कम मेरे मोज़े तो तेरे मुँह में हैं!"
और इतना कहकर वह तेज़ी से वॉशरूम की ओर भागी, दरवाज़ा बंद करके खिलखिलाकर हँसने लगी।
अंकित वहीं बैठा रह गया—मुँह में फँसे मोज़ों के साथ
अंकित का सिर चकरा रहा था। उसके मुँह में फँसे कविता के गंदे मोज़ों की बदबू, पसीने और अपने ही थूक का मिश्रण उसके गले तक उतर चुका था। वह हाँफ रहा था, घुट रहा था, पर मोज़े उसके दाँतों से चिपके हुए थे—जैसे कोई जिद्दी च्यूइंगम हो!
"म्म्म्म्फ! हम्म्म्म!"
हाथ पीछे बँधे होने के कारण वह कुछ कर भी नहीं पा रहा था। वह ज़ोर-ज़ोर से सिर हिलाकर मोज़ों को बाहर फेंकने की कोशिश कर रहा था, पर कविता का पसीना जैसे उसके मुँह से चिपक गया था!
तभी दरवाज़ा खुला…
कविता वॉशरूम से तरोताज़ा होकर लौटी थी। उसके गीले बाल कंधों पर बिखरे हुए थे, और चेहरे पर एक शैतानी मुस्कान थी। जैसे ही उसने अंकित को मोज़ों से जूझते देखा, उसकी हँसी फूट पड़ी।
"हाहाहा! ये क्या नज़ारा है!"
कविता मज़ाकिया अंदाज़ में बोली—"अरे भैया, तुम तो मेरे मोज़ों को चूम रहे हो! क्या स्वाद आ रहा है? थोड़ा और चख लो ना!" और फिर उसने ज़ोर से मोज़ों को अंकित के मुँह में और अंदर धकेल दिया!
"हल्ल्ल्म्म्म्फ!!"
अंकित का दिमाग सुन्न हो गया। वही बदबू, वही पसीने का स्वाद, उसके गले के नीचे तक उतर गया!
कविता ने ज़ोर से हँसते हुए कहा—
"अब तू अकेला पन महसूस नहीं करेगा! मैं भी तेरे साथ हूँ... कम से कम मेरे मोज़े तो तेरे मुँह में हैं!"
और इतना कहकर वह वापस खड़ी हुई, अपने भाई की बेबसी का आनंद लेते हुए।
कविता आराम से दीवार से टिककर बैठी थी, अपने भाई की मुश्किलों का तमाशा देखते हुए। उसने अपना फोन ढूंढने की कोशिश की, पर याद आया - "अरे हां! मम्मी ने तो सब फोन जब्त कर लिए थे!"
एक पल का अफसोस, फिर उसकी आंखों में चमक आ गई। "चलो, कम से कम मैं इस पल को दिल से एन्जॉय कर लूं!"
वह अंकित के पास गई, जिसका मुंह उसके अपने ही मोजों से ढका हुआ था।
"कैसा लग रहा है मेरा पसीना भैया? स्वादिष्ट था न?" उसने मजाक किया।
अंकित सिर्फ "म्म्म्फ्फ!" की आवाज कर पाया। कविता ने गौर किया कि उसका भाई पूरी ताकत से अपने गले को रोक रहा था, ताकि उसके मोजे का पसीना और उसका अपना थूक नीचे न जा सके।
"ओहो! ये तो बहुत ज्यादा कंट्रोल कर रहा है!" कविता ने सोचा। "ये नहीं चलेगा... मुझे तो अपना पूरा रेवेंज चाहिए!"
अचानक उसे एक आइडिया आया। उसने अपने बालों से एक पिन निकाली और अंकित के नंगे पैरों के तलवों पर हल्के-हल्के घूमाना शुरू कर दिया।
अंकित का पूरा शरीर झटकने लगा। गुदगुदी के इस अचानक हमले ने उसके सारे कंट्रोल को तोड़ दिया।
"ग्ल्ल्लक!"
एक झटके में, सारा मिश्रण - मोजे का पसीना, उसका अपना थूक - सब उसके गले से नीचे उतर गया। अंकित का चेहरा लाल हो गया, आंखों से आंसू निकल आए।
कविता खिलखिलाकर हंस पड़ी:
"बस यही तो मैं चाहती थी, मेरे प्यारे भैया! तुमने मुझे थप्पड़ मारा था सबके सामने, जो सबने देखा। और मैंने तुम्हें ऐसा थप्पड़ मारा है जो तुम किसी को कभी बता नहीं पाओगे!""अब से जब भी तुम मेरे मोजे देखोगे, यह पल तुम्हें याद आएगा! ये है मेरा स्पेशल रेवेंज!"
अंकित जानता था कि आज उसने जो स्वाद चखा था, वो उसे जिंदगी भर याद रहेगा।
कविता ने शरारती मुस्कान के साथ अंकित के सामने घुटने टेके। उसकी आँखों में एक "मैं तुझे माफ़ कर दूँगी... पर पहले तुझे शर्मिंदा तो करूँगी!" वाली चमक थी।
"सुन, अगर तूने थोड़ा भी शोर किया या गुस्सा दिखाया," उसने धीमी, मगर खतरनाक आवाज़ में कहा, "तो मैं तेरे मुँह में अपनी गीली पैंटी भर दूँगी... मोज़ों के साथ। समझा?"
अंकित ने हाँ कहा—विकल्पहीनता की मजबूरी में।
कविता ने धीरे-धीरे उसके मुँह से मोज़े निकालना शुरू किए। हर इंच के साथ वह नाटकीय ढंग से अंकित की प्रतिक्रिया देख रही थी। मोज़े अभी भी गीले थे, और उन पर अंकित के थूक और पसीने का मिश्रण चमक रहा था।
तभी उसे एक आइडिया आया।
"रुको... मैं एक काम करती हूँ," उसने मीठी आवाज़ में कहा, "पहले तेरी आँखें खोल देती हूँ, ताकि तू ये सब अपनी आँखों से देख सके... और पूरी तरह शर्मिंदा महसूस कर सके। क्या कहते हो?"
बिना जवाब का इंतज़ार किए, उसने अंकित की आँखों की पट्टी खोल दी।
अंकित की आँखें खुलती हैं...
धुंधली रोशनी में पहला नज़ारा:
कविता के हाथ में उसके अपने ही गंदे मोज़े
उसका खुद का थूक मोज़ों से टपक रहा है
और कविता का शैतानी चेहरा, जो इस पल को एन्जॉय कर रहा है
अंकित का चेहरा लाल हो गया। वह जानता था कि ये पल उसे ज़िंदगी भर याद रहेगा।
कविता ने धीरे-धीरे मोज़े उसके मुँह से निकाले, हर सेकंड को लंबा खींचते हुए। मोज़े बाहर आते ही, अंकित ने "ब्लेह!" की आवाज़ की और साँस लेने के लिए हाँफने लगा।
कविता ने मोज़े हिलाते हुए मज़ाक किया:
"क्या बात है भैया! तुम्हें मेरे मोज़े इतने पसंद आए कि चबाकर रख दिए?"
अंकित ने अभी मुँह खोलकर कुछ कहना ही चाहा कि कविता ने उसकी ठुड्डी पकड़कर "श्श्श!" करते हुए एक बोतल उसके होंठों से चिपका दी।
"पहले पानी पी लो, भैया। मुँह का नमकीन स्वाद कम होगा," उसने मासूमियत से कहा, पर आँखों में वही शैतानी चमक थी।
अंकित ने लाल-लाल आँखों से उसे घूरा, पर प्यास ने जीत हासिल की। वह जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। गले की जलन शांत हुई, पर पेट भरने लगा... बहुत भर गया।
तभी कविता ने झटके से बोतल हटाई और मासूम सी आवाज़ में बोली—
"अरे! मैं बताना भूल गई... ये पानी पीने से गला ही नहीं धुलता, बल्कि पेशाब भी तेजी से लगती है! अब सोचो..."
अंकित की आँखें फिर से फैल गईं। उसका दिमाग तेजी से कैलकुलेट करने लगा:
हाथ-पैर बँधे
आँखों पर पट्टी
मुँह में फिर से वही "कविता-स्पेशल मोज़ा"
और अब छलकता हुआ ब्लैडर!
कविता ने AC रिमोट उठाया और "बीप!" की आवाज़ के साथ टेंपरेचर 16°C कर दिया। ठंडी हवा का झोंका अंकित के पसीने से तर बदन पर लगा।
शरीर ने तुरंत रिएक्ट किया।
अंकित ने हिलने-डुलने की कोशिश की, पर कविता ने पहले ही उसकी आँखों की पट्टी कस दी थी। उसके मुँह से "म्म्म्फ्फ! हम्म्म्म!" की आवाज़ निकली।
कविता बिस्तर पर पैर लटकाकर बैठ गई और मोबाइल पर गाना लगा दिया:
"अब तेरी बारी है सहन करने की..."
(कमरे का तापमान गिर रहा है... प्रेशर बढ़ रहा है... और अंकित का धैर्य?)
थोड़ी देर में पानी और AC का असर हुआ। अंकित के पेट में हलचल शुरू हुई। उसकी धड़कनें तेज होने लगीं। समय बीतता गया, परेशानी बढ़ती गई। जब हालात बेकाबू होने लगे, तो अंकित ने बोलने की कोशिश की, मदद मांगनी चाही।
कविता आराम से यह सब देख रही थी - उसके पास करने को कुछ था भी नहीं। जब अंकित पूरी तरह से तड़पने लगा और कंट्रोल खोने ही वाला था, कविता बोली, "अरे रुको! मैं खोल रही हूँ। मेरा बिस्तर गीला मत कर देना, मुझे इसी पर सोना होता है रोज।"
उसने अंकित के पैर और गर्दन की चेन खोली, उसे वॉशरूम तक ले गई। वहां उसने गर्दन की चेन को तौलिया टांगने वाले हैंगर से लॉक कर दिया, उसके हाथ खोले, और वहां से भाग आई। अंकित वॉशरूम में लॉक हो गया।
अंकित के बार-बार गिड़गिड़ाने पर कविता ने चाबी उसके पैरों के पास रख दी और बोली, "अगर खोल सको तो खोल लो।"
गर्दन की चेन इतनी टाइट थी कि अंकित ठीक से हिल भी नहीं पा रहा था। उसे बैठकर बैलेंस बनाकर पैरों से चाबी उठानी थी, लेकिन फर्श गीला होने से चाबी चिपक रही थी। काफी कोशिशों के बाद आखिरकार वह चाबी उठाने में कामयाब हो गया।
गुस्से से आगबबूला अंकित जैसे ही बाथरूम से निकलकर कविता को मारने दौड़ा, कमरे का दरवाज़ा खुल गया। सामने माँ-पिताजी खड़े थे।
"ये क्या हो रहा है?!" पापा की गर्जना से कमरा काँप गया।
यह अंकित की दूसरी गलती थी - बहन को मारने की कोशिश करना। अब मामला सिर के ऊपर से जा रहा था। उसकी माँ उसकी मदद करना चाहती थी, लेकिन आँखों देखी घटना को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था। वह चुप हो गई।
कविता ने झूठे आँसू बहाकर सबका ध्यान खींचा:
"मैंने तो बस उसकी मदद की... और वो मुझे मारने दौड़ा!"
पापा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। अंकित की "ये सब मेरे साथ हुआ!" वाली कहानी को किसी ने सुना ही नहीं।अब अंकित को कड़ी सजा से शायद ही कोई बचा पाए।
अंकित के पिता ने सख्त फैसला सुनाया:
"अगले एक हफ्ते तक तुम आधे बने कमरे में बंद रहोगे। न बिस्तर, न मोबाइल। और हर दिन 'कविता दीदी सॉरी, गलती हो गई, अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी' ये एक लाख बार लिखकर दिखाना होगा।"
आप सोच रहे होंगे - घर में जेल कहाँ से आ गई? दरअसल, कविता के घर में एक पुराना स्टोर रूम था, जिसमें जाने के लिए फर्श से नीचे उतरना पड़ता था। ऊपर जाली लगी थी जिससे रोशनी आती थी। इस कमरे का अब ज्यादा उपयोग नहीं होता था, लेकिन आज इसका एक नया इस्तेमाल होने वाला था।
बेचारा अंकित अपनी सफाई देना चाहता था, लेकिन अचानक बने तनावपूर्ण माहौल में कुछ बोलने की हालत नहीं थी। पिता के गुस्से और माँ की चुप्पी ने उसे समझा दिया कि अब कोई बचाने वाला नहीं है। कविता के झूठे आँसूओं ने तो जैसे जले पर नमक का काम कर दिया था।
अब स्थिति स्पष्ट थी अंकित कविता के मोजे से निकलकर अंकित कविता की जेल पहुँच गया था । और यह सारा काम खुद कविता ने संभाला। उसने अंकित को पूरी इज्जत के साथ (या यूँ कहें कि मजाक उड़ाते हुए) उस जेलकक्ष तक पहुँचाया, ताला खोला, अंकित को अंदर धकेला और चाबी अपने पास रख ली।
अंकित की नज़र चाबी पर गई - कविता ने चालाकी से उसे अपने पास रख लिया था। मतलब साफ था: अब उसे खाना-पानी, वॉशरूम जाना - सब कुछ कविता की मर्जी पर निर्भर था। वह जब तक न चाहे, अंकित को अपनी बेसिक ज़रूरतों के लिए भी तरसना पड़ेगा।
थोड़ी देर बाद कविता एक पेन और डायरी लेकर आई, जिसमें उसने टेबल बना रखा था।
*"गिनती में आसानी रहेगी ना? अब कौन 1 लाख बार चेक करेगा कि तुमने सही से लिखा या नहीं? इसलिए सेल बना दिए हैं - हर सेल भरा होना चाहिए!"*
उसने मासूमियत से समझाया:
"7 दिन में 1,00,000 बार मतलब... रोज़ करीब 12,000 से ज़्यादा बार लिखना होगा। चलो, शुरू हो जाओ!"
फिर अचानक मुस्कुराते हुए बोली:
"वैसे... अगर तुम बोल-बोलकर लिखोगे, तो मैं तुम पर थोड़ी दया कर सकती हूँ..."
अंकित गुस्से में भड़क गया: "कैसी दया?"
कविता ने निर्ममता से जवाब दिया:
*"कुछ ख़ास नहीं... बस इतना कि तुम्हें परेशान नहीं करूँगी। वरना 7 दिन बहुत लंबे होते हैं, भैया। शायद तुमने सोचा भी नहीं होगा - अगले सप्ताह भर तुम पूरी तरह मेरी 'दया' पर जीने वाले हो!"*
(अंकित के चेहरे का रंग उड़ गया... उसे अब एहसास हुआ कि यह सजा उसकी कल्पना से कहीं ज़्यादा भयानक साबित होगी!)
अंकित ने गुस्से में घोषणा की: "मुझे तुम्हारी दया की ज़रूरत नहीं! और मैं 1 लाख तो दूर, एक बार भी नहीं लिखूँगा!"
कविता ने मुस्कुराते हुए चुनौती दी: "अच्छा, चैलेंज कर रहे हो? देखते हैं कब तक अकड़ते हो!"
और वह ताला बंद करके अपने कमरे में चली गई।
अंकित के पास करने को कुछ नहीं था। थकान से चूर, वह वहीं लेट गया और सो गया। पर समय जैसे थम सा गया था। पूरे कमरे में सिर्फ एक घड़ी टिक-टिक कर रही थी, बाकी सब कुछ जैसे जम गया हो - ठीक अंकित की ज़िंदगी की तरह।
उसे लगा था कि माँ ज़रूर उसे बचा लेगी, पर काफी देर बीत गई। वह दो बार तो नींद भी पूरी कर चुका था, पर कोई उसे देखने तक नहीं आया। चाय तक का कोई पूछने वाला नहीं था!
अंकित ने माँ को आवाज़ लगाई, फिर कविता को चिल्लाया... पर कोई जवाब नहीं आया।
अब अंकित बेचैन हो उठा। तनाव बढ़ता गया। वह पागलों की तरह चीखने-चिल्लाने लगा, जैसे उसकी ज़िंदगी का मकसद सिर्फ कविता को बुलाना ही रह गया हो।
बहुत देर तक गला फाड़ने के बाद भी... सन्नाटा।
फिर अचानक...
टप-टप-टप...
वह आवाज़ सुनाई दी। कविता के हील्स की आवाज़। वही आवाज़ जिससे अंकित को घनघोर नफरत थी। उसकी टिक-टिक करती चाल की आवाज़ अंकित के कानों में चुभ रही थी। दोनों इसी बात पर हज़ार बार लड़ चुके थे।
थोड़ी देर बाद कविता उसी कमरे में आ धमकी, गुस्से से बोली:
"पागल हो गए हो क्या? इतना चिल्ला क्यों रहे हो? चेन से थोड़ी देर आराम भी नहीं करने दिया! बोलो क्या चाहिए?"
अंकित ने उसके ठाठ-बाट को देखकर पूछा:
"पहले ये बताओ, तुम इतना बन-ठन कर कहाँ जा रही हो? बाहर तो लॉकडाउन लगा है न?"
कविता ने शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया:
"कहीं नहीं, बस मैंने सोचा... कोई और दिन होता तो तू मुझसे लड़ने लगता और मेरे हील्स उतरवा भी देता। पर आज तो तू जेल में है! चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। तो मैंने सोचा, आज हील्स पहनकर तुझे दिखाऊँ कि कैसे चलते हैं!"
उसने अंगूठा दिखाते हुए आगे कहा:
"कितने दिन हो गए किसी ने मेरे हील्स की तारीफ नहीं की! वैसे..."
अचानक मीठी आवाज़ में बोली: "तुझे चाय पीने का मन कर रहा होगा न? अगर चाय पीनी है तो मेरे हील्स की तारीफ कर!"
अंकित गुस्से से भरकर बोला:
"नहीं करूँगा! और न ही चाय पीँगा!"
और वह जेल के कोने में हाथ बाँधकर बैठ गया, जैसे अपनी जिद पर अड़ा हुआ सैनिक हो।
कविता ने एक लंबी साँस ली:
"ठीक है, जैसा चाहो! पर याद रखना... अगले एक हफ्ते तक तुम्हारी चाय, खाना, यहाँ तक कि वॉशरूम जाना भी मेरी 'मर्जी' पर निर्भर है।"
उसने जानबूझकर अपने हील्स की टप-टप की आवाज़ को और तेज़ करते हुए कमरे से बाहर निकलते हुए कहा:
"टिक-टिक-टिक... देखते हैं कब तक टिकते हो!"
(अंकित ने अपनी मुट्ठी भींच ली... पर उसके हाथ में सिर्फ हवा थी!)
कविता ने अंकित को कोने में बैठे देखकर कहा,
"एक तो ऐसे ही बैठे रहो, मैं जरा अपनी फ्रेंड्स से बात कर लूँ।"
और फिर वह फोन पर दोस्तों से बात करते हुए जानबूझकर अंकित के आसपास चक्कर लगाने लगी। उसके हील्स की "टिक-टिक" आवाज़ अंकित के कानों में सीधे उतर रही थी, जैसे कोई धीमी यातना हो।
अंकित का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह अपना सिर फोड़ने को तैयार हो रहा था, पर कर भी क्या सकता था?
काफी देर तक इस टॉर्चर को झेलने के बाद, अंकित ने आखिरकार हार मान ली:
"ओके! मैं करूँगा तुम्हारे हील्स की तारीफ... बस प्लीज इन्हें उतार दो और इन्हें पहनकर चलना बंद करो! मेरा सिर दर्द से फट जाएगा वरना!"
कविता ने शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा:
"तो करो तारीफ!"
अंकित ने गहरी सोच में पड़ गया। उसके दिमाग में कोई तारीफ नहीं आ रही थी। आखिरकार उसने बहाना बनाया:
"सुबह से पता नहीं क्या-क्या हो रहा है मेरे साथ... समझ नहीं आ रहा। प्लीज एक चाय दे दो, मैं तब तक कुछ सोचकर रखता हूँ।"
कविता ने दया दिखाते हुए हाँ कर दी, और अपने हील्स की "टिक-टिक" करती हुई वहाँ से चली गई।
पर अंकित जानता था कि यह सिर्फ 5 मिनट की राहत थी। वह सोचने लगा: "जब यह मुसीबत वापस आएगी, तब क्या करूँगा?"
और फिर... 10 मिनट बाद...
"टिक... टिक... टिक..."
कविता के हील्स की आवाज़ फिर से सुनाई देने लगी। अंकित की धड़कनें तेज हो गईं। अब क्या होगा?
कविता जब चाय लेकर आई, तो अंकित बेसब्र होकर उसका इंतज़ार कर रहा था। पर कविता कहाँ कम थी? उसने चाय का कप अंकित के ठीक सामने रखा, मगर इतना दूर कि वह छू भी न सके।
चाय से उठती इलायची की खुशबू अंकित को मदहोश कर रही थी। वह कुछ भी करके वो चाय पीना चाहता था, पर वह उसकी पहुँच से दूर थी।
कविता (मुस्कुराते हुए): "क्या हुआ? चाय पीनी है क्या?"
अंकित (हाँफते हुए): "हाँ..."
कविता (शरारत से): "तो तारीफ़ करो मेरे हील्स की!"
अंकित ने बहाना बनाया:
"मैंने सुबह से कुछ खाया-पिया नहीं है... मेरा दिमाग़ काम करना बंद कर चुका है। मैं अभी कुछ सोच नहीं पा रहा!"
कविता ने नाटकीय अंदाज़ में हाथ उठाए:
"तो इसका मतलब है कि तुम चाय भी नहीं पी पाओगे? और शायद आज रात का खाना भी तुम्हें न मिले!"
अंकित के पेट में भूख का ज्वार उठा, पर वह कुछ कर नहीं सकता था। आखिरकार, उसने एक तरकीब निकाली:
अंकित (मासूमियत से): "कोई बात नहीं... चाय नहीं दोगी तो न सही। पर क्या मुझे थोड़ी देर के लिए बाहर निकाल दोगी? इतनी छोटी जगह में बैठे-बैठे मेरे पैरों में दर्द हो रहा है... और मुझे वॉशरूम भी जाना है।"
कविता: "ओहो! तुम्हें पहले बताना था ना? पर तुमने नहीं बताया, इसलिए अब नहीं जाने दूँगी!"
अंकित: "ये तुम गलत कर रही हो!"
कविता (चुनौती भरे अंदाज में): "तो क्या कर लोगे?"
अंकित (गुस्से से): "जिस दिन मेरा टाइम आएगा, तब बताऊँगा!"
कविता (मुस्कुराते हुए): "पर मेरा टाइम तो आज है! जब तुम्हारा टाइम आएगा, तब की तब देखेंगे!"
अंकित (गुस्से में): "मुझे गुस्सा मत दिलाओ, वरना ठीक नहीं होगा!"
कविता (चिढ़ाते हुए): "क्या कर लोगे? हो जाओ गुस्सा! मैं भी देखना चाहती हूँ कितना गुस्सा है तुममें। करो गुस्सा!"
अंकित (हार मानते हुए): "देखो प्लीज, मुझे वॉशरूम जाने दो और चाय पिला दो..."
कविता (अड़ियल स्वर में): "नहीं! पहले मुझे गुस्सा दिखाओ अपना! मैं देखना चाहती हूँ कितना गुस्सा है तुम्हारे अंदर!"
अंकित (आखिरकार झुकते हुए): "अच्छा सॉरी प्लीज! अब मुझे बाहर निकाल दो..."
कविता (सिर हिलाते हुए): "नहीं!"
अंकित (पूरी तरह हार मानकर): "ओके! मैं तुम जैसा कहोगी वैसा सॉरी बोलने के लिए राजी हूँ... मुझे गुस्सा नहीं करना चाहिए था!"
कविता (संतुष्ट स्वर में): "गुड! पर तुमने मुझ पर गुस्सा किया... अब मैं माफ करने के मूड में नहीं हूँ! और हाँ, ये चाय भी तुम्हें मिलने वाली नहीं है! तो मैं जा रही हूँ... कल मिलते हैं!"
अंकित (बेताब होकर): "कविता प्लीज मत जाओ! मुझे चाय दे दो... मुझे बहुत तेज भूख लगी है!"
कविता (रुककर): "पर मुझे क्या फायदा तुम्हारी मदद करने से?"
अंकित (हताश होकर): "अगर तुम मुझे ये चाय दे दो और खाने के लिए ला दोगी तो मैं तुम्हारे अकाउंट में 500 रुपये ट्रांसफर कर दूँगा!"
कविता (नाक भौं सिकोड़ते हुए): "एक बात कहूँ? नहीं चाहिए पैसे! वैसे ही कहीं जा तो सकती नहीं... करूंगी क्या पैसों का? तुम्हारे पैसों के चक्कर में बाहर जाकर बीमार थोड़े पड़ना है!"
अंकित (थक-हारकर): "अच्छा... तो तुम्हें क्या चाहिए?"
कविता ने शरारती मुस्कान के साथ अंकित की ओर देखा:
"कुछ नहीं चाहिए... बस तुम्हें ऐसे गिड़गिड़ाते देखने का मुझे बहुत सुख मिलता है!"
अंकित ने हाथ जोड़े: "प्लीज कविता, मैं तुम्हारा भाई हूँ... कुछ तो दया करो!"
कविता ने आँखें घुमाईं: "भाई हो तभी तो दया नहीं आती! और कौन सा काम तुमने भाई वाला किया है? मेरे लिए आज तक क्या दिया है?"
अंकित ने गर्मजोशी से जवाब दिया:
"कितनी झूठी हो तुम! बचपन से आज तक जब भी मैं नए कपड़े या टी-शर्ट लाता हूँ, पहले तुम ही जिद करके पहन लेती हो! और भूल गईं क्या? मेरी एक्स-गर्लफ्रेंड ने जो पिंक टी-शर्ट गिफ्ट दी थी, वो तुमने ही पहनी थी! उसके बर्थडे पर तुमने जानबूझकर वही शर्ट पहनकर उसे नीचा दिखाया था... और उसी वजह से मेरा ब्रेकअप हुआ था!"
कविता ने नाक सिकोड़ी:
"हाँ! मुझे वो लड़की पसंद नहीं थी... बहुत नख़रैली और घमंडी थी! और एक बात, उससे तेरा ब्रेकअप कराके मैंने तेरा भला ही किया! वो तेरे टाइप की थी भी नहीं!"
अंकित ने हाथ हिलाया: "छोड़ो यार, अब मुझे उसमें कोई इंटरेस्ट भी नहीं है! उसने दूसरा बॉयफ्रेंड बना लिया है... अब वो इस दुनिया की दूसरी लड़की है तुम्हारे बाद जिससे मैं नफ़रत करता हूँ!"
कविता ने जीत का अंदाज़ लिया: "वही तो मैं कह रही हूँ! तू डिसर्व ही नहीं करता चाय! तू एक नंबर का ढक्कन है... एक-दो दर्जन टी-शर्ट्स ले लीं मैंने तुझसे, तू मुझे गिनवा रहा है?"
अंकित ने आँखें घुमाईं: "अरे यार, मैं क्या करूँ? तुझसे तो कुछ भी बोलना ही पाप है! मैं गिनवा थोड़े रहा था... बता रहा था कि मैंने तेरे लिए बहुत कुछ किया है!"
कविता ने चिढ़कर जवाब दिया: "अच्छा? तो तेरे कपड़े मैंने पहन लिए, तो तू मुझ पर एहसान गिनवाएगा? और बचपन की बात भूल गया जब तुझे मेरी फ्रेंड्स से मिलने जाना होता था? कितनी बार तू मेरे कपड़े उधार माँगकर ले गया, ताकि उनके घर रात को रुक सके और उनके माँ-बाप तुझे 'कविता' समझकर अकेले में डिस्टर्ब न करें!"
अंकित ने हार मान ली: "आज तेरे दिन हैं, तू जो बोल ले! पर मेरे एहसान तुझ पर ज़्यादा हैं... भले ही तू माने न! और एक हफ्ते बाद जब मैं इस जेल से फ्री हो जाऊँगा, तो एक-दो और कर दूँगा! पर अभी मुझे चाय दे दे, प्लीज!"
कविता ने शैतानी मुस्कान के साथ कहा: "चाय तो तुझे दूँगी... पर एक शर्त पर!"
अंकित ने आँखें फैलाईं: "कैसी शर्त?"
कविता ने इनकार किया: "चल रहने दे... तू कर नहीं पाएगा!"
अंकित ने हाथ जोड़े: "मैं इस चाय के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ! पर ये चाय दे दे... अब तो ठंडी हो गई है!"
कविता ने झुकते हुए कहा: "चल, तू इतनी रिक्वेस्ट कर रहा है, तो बता देती हूँ... अगर तूने मेरा कहा कर दिया, तो तुझे मेरी तरफ से गरम चाय गिफ्ट!"
अंकित ने उत्सुकता से पूछा: "बोल तो सही... क्या करना है?"
कविता ने चालाकी से कहा: "पहले टेस्ट तो कर लूँ कि तू कितना सच बोल रहा है... बाद में धोखा दे दिया तो?"
अंकित ने आँखें घुमाईं: "ऐसा भी क्या चल रहा है तेरे दिमाग में? सच बता!"
कविता ने मुस्कुराते हुए कहा: "चलो, पहले ये टेस्ट है तुम्हारा... इस ठंडी चाय के लिए!"
अंकित ने निराश होकर कहा: "हाँ, बोलो! बातों को गोल-गोल घुमाकर इस ठंडी चाय को आइस टी मत बना दो... थोड़ी तो पीने लायक रहने दे!"
कविता ने आखिरकार अपना कार्ड खोला:
"चल, बता देती हूँ... तुम्हें जलाने के लिए! जो मैं हील्स में वॉक कर रही थी और इतने दिनों से घर में हील्स तो ठीक, चप्पल भी नहीं पहनी है... बहुत दिनों से मेरे पैरों के तलवों में दर्द हो रहा है, और पैर सूज भी गए हैं... एक बार तो एंकल में नस खिंच रही है! तो अब तुम्हें मेरे पैरों की मालिश करनी है!"
अंकित हँसते हुए बोला: "सोचना भी मत!"
कविता ने चुनौती दी: *"सोच तो ले! मैं 2 दिन तक इस कमरे में ही नहीं आऊँगी। तो न चाय आएगी, न खाना, न वॉशरूम जाने दूँगी, न नहाने। इन्हीं गंदे कपड़ों में पड़ा रहना। वैसे तुझे एक बात बता दूँ - मम्मी को इस कमरे में आना सख्त मना है, पापा का स्पेशल ऑर्डर है। तो मेरे अलावा अगले 7 दिन तक तुझे कोई देखने वाला नहीं है। पर 2 दिन तो तू बिना खाए-पिए रह ही लेगा न? तो चल, मैं जाती हूँ। नमक के पानी से शेक ही कर लेती हूँ। बाय, मिलते हैं 2 दिन बाद!"*
अंकित ने जल्दी से कहा: "अब इतना ड्रामा मत कर! ला, मैं तेरे पैर की नस चटका देता हूँ, 2 मिनट में ठीक हो जाएगी।"
कविता ने मना किया: "जी नहीं! मुझे एक बढ़िया फुट मसाज चाहिए।"
अंकित ने हार मान ली: "ठीक है महारानी! लाओ अपने चरण, करता हूँ। वैसे भी यहाँ करने को क्या है? पर अब चाय तो दे दे।"
कविता ने इनकार किया: "नहीं! पहले मसाज शुरू करो!"
और वह अपने स्टॉकिंग वाले पैर जेल की सलाखों के अंदर डालकर आराम से लंबी होकर बैठ गई।
अंकित ने हल्के हाथों से मसाज शुरू किया और पूछा: "वैसे एक बात बता..."
कविता: "हाँ, पूछो!"
अंकित ने मासूमियत से पूछा: "तू नहाती नहीं है क्या? और अगर नहाती भी है तो पैर साफ तो बिल्कुल नहीं करती!"
कविता गुस्से से लाल हो गई: "क्या बोला तूने? कुत्ते! तुझसे और मुझे ज्यादा उम्मीद थी भी नहीं! मैं जा रही हूँ, भड़ में जा!"
अंकित ने उसके पैर पकड़कर नीचे बैठाया: "अरे मैं इसलिए पूछ रहा था कि घर में स्टॉकिंग पहनने की क्या जरूरत है? ऐसा तो तब करते हैं जब पैर न धोते हों!"
कविता ने जवाब दिया: "तुझे पता है पेडिक्योर कितना महंगा होता है? मेरी कोई बैंक में सरकारी नौकरी थोड़ी है! छोटी-मोटी यूट्यूबर हूँ, बड़ी मुश्किल से अपने खर्चे चला पाती हूँ। पर मेंटेन तो करना पड़ता है न? इसलिए पहना है स्टॉकिंग!"
फिर हँसते हुए बोली: "और हाँ... थोड़ा कर कर पैर के तलवे में मसाज कर!"
दोनों हँसने लगे। अंकित ने थोड़ी देर मसाज की, कविता ने उसे चाय दी और बोली: "अब बेटर फील कर रही हूँ पैरों में! चल, तुझमें कुछ तो अक्ल है!"ढक्कन कही का
और फिर दोनों लड़ने लगे, और ग़ुस्से में अनिकेत के मुँह से निकल गया —
"तू एहसान फ़रामोश है!"
कविता को अनिकेत की ये बात इतनी बुरी लग गई कि वो भी ग़ुस्से में बोली —
"बेटा अब बहुत हो गया, अब मैं तेरा एहसान ही उतारूंगी!"
"अब अगले सात दिन तक तुझे मेरे ही कपड़े पहनने पड़ेंगे। तू देख, अब मैं क्या करती हूँ!"
कविता यूँ कहकर चली गई,
और अंकित अकेला, अपनी यादों की जेल में खो गया।
उसे लगा, चाय पीकर कुछ आराम मिलेगा,
अब शांति है... थोड़ी देर कोई नहीं तोड़ेगा चुप्पी।
लेकिन ये कविता, किसी काली नागिन से कम खतरनाक नहीं थी,
उसके जहर में जलन थी, जो अंकित के दिल तक उतर गई।
थोड़ी ही देर बाद, जब अंकित सोने ही वाला था,
अचानक कमरे में एक तपिश महसूस हुई।
ज़्यादा वक्त नहीं लगा समझने में—
एसी बंद, लाइटें गुल, और हवा ठहर गई।
अंकित का हाल बेहाल होने लगा,
पसीने से लथपथ, सारे कपड़े चिपक गए।
शरीर का कोई कोना न बचा, जहाँ से गमक न आ रही हो,
माथे, गर्दन, हथेलियाँ—सब पसीने में डूब गए।
लगभग आधे घंटे बाद,
किसी के कमरे में आने की आहट सुनाई दी।
ध्यान से देखा, तो वो कविता थी—
चुपचाप दरवाज़े पर खड़ी, मुस्कुराती हुई।
और हैरानी की बात, जैसे ही वो अंदर आई,
लाइटें जल उठीं, एसी की ठंडी हवा ने जगह ली।
मानो उसके आते ही, अंकित की दुनिया में फिर से रौनक आ गई।
कविता ने अंकित को देखा और हँसते हुए बोली,
"अरे, ये क्या हुआ तुम्हें? तो तो काफी भीग गए हो!"
अंकित ने थकी हुई आवाज़ में कहा,
"इतनी देर से कमरे में लाइट नहीं थी...
पसीने और गर्मी से बुरा हाल था।"
कविता बिल्कुल शांत, बेफिक्र खड़ी थी,
थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली,
"हम्म... बहुत प्रॉब्लम है तुम्हें तो।
पर क्या किया जा सकता है? रुक, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाती हूँ।"
और फिर वही सरप्राइज—
जैसे ही कविता कमरे से बाहर निकली,
एसी और लाइट फिर बंद!
अंकित फिर से उसी गर्मी में तड़पने लगा...
दस मिनट बाद कविता लौटी,
लाइटें भी वापस आईं।
बोली, "यार, तेरे कमरे का ताला किसी ने लगा दिया है,
चाबी मुझे नहीं मिली। तो मेरे पास जो था, वही लाई हूँ।
बाकी, तेरी मर्जी... अगर तू अपने कपड़ों के साथ एडजस्ट कर पा रहा है,
तो एन्जॉय!"
अंकित ने कुछ देर सोचा, फिर गिड़गिड़ाया,
"प्लीज, मुझे कोई भी कपड़े दे दो यार...
मेरे कपड़े पूरी तरह गीले हो गए हैं,
बहुत चिपचिपा सा लग रहा है..."
कविता: (ठंडी मुस्कान के साथ)
"हाँ वो तो है... पर तेरे कपड़े तो हैं नहीं मेरे पास। बस मेरे ही कपड़े हैं - अगर तू पहनना चाहे तो दे सकती हूँ। आखिर तेरा एहसान भी तो चुकाना है ना मुझे?"
अंकित: (पसीने में तरबतर, गुस्से से)
"देख तू बकवास मत कर! मुझे यहाँ से निकाल बस... मुझे नहाना है, मुझे गर्मी लग रही है!"
कविता: (आँखों में चमक लिए)
"देख मैं तुझे निकाल तो सकती हूँ यहाँ से... और तेरे लिए एक गुड न्यूज़ भी है - पापा-मम्मी दोनों घर पर नहीं हैं। तो किसी को कोई प्रॉब्लम भी नहीं होगी।"
अंकित: (हाथ जोड़ते हुए)
"तो तू सोच क्या रही है? प्लीज मुझे इस जेल से बाहर निकाल दे! मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ..."
कविता: (नकली मासूमियत से)
"हाँ वो सब ठीक है... पर 'कुछ भी' मतलब क्या? अपने मुँह से बोल न..."
(कमरा फिर से उमस भरा हो जाता है। एसी बंद। अंकित की साँसें तेज हो जाती हैं। कविता उसके गीले कपड़ों पर नजर घुमाती है।)
अंकित: (काँपती आवाज में)
"मतलब... जो तू कहेगी। बस अब ये गर्मी-"
अंकित: (हांफते हुए, गिड़गिड़ाते स्वर में)
"यार, मुझे इस जेल से निकाल दे! थोड़ी देर के लिए... सांस नहीं आ रही है। थोड़ी फ्रेश एयर चाहिए, प्लीज मुझे यहां से निकाल दे!"
कविता: (ठंडे अंदाज में, मुस्कुराते हुए)
"ये तो पॉसिबल नहीं है। आखिर, यही तो मैं चाहती हूं—तुझे परेशान करना। और तू जब परेशान है, तो मेरी ही मदद मांग रहा है। मैं क्यों करूं तेरी मदद?"
अंकित: (घुटन भरी आवाज में)
"यार, प्लीज... मैं तेरे पैर भी दबाने के लिए तैयार हूं, पर प्लीज मेरी हेल्प कर! मुझे बहुत खुजली हो रही है..."
कविता: (आंखें घुमाते हुए)
"चल, इतना मत रो। जी ले अपनी जिंदगी। मैं निकाल रही हूं तुझे, जा कर नहा ले। लेकिन मैं तेरे लिए जो भी कपड़े निकालूंगी, वो तुझे पहनने पड़ेंगे!"
अंकित: (खुशी से उछल पड़ा)
कविता ने उसे जेल से निकाल दिया, और अंकित नहाने के लिए वॉशरूम चला गया। जब बाहर आया, तो देखा—कविता ने उसके लिए रखे थे:
एक ब्लैक ब्रा
पैंटी
स्टॉकिंग्स
और एक शॉर्ट ब्लैक ड्रेस
कविता: (निर्देश देते हुए, मुस्कान छुपाते हुए)
"कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है। मेरे पास कोई ऑप्शन नहीं है। और वैसे भी, तू बोल रहा था कि 'कुछ भी' करेगा... तो तुझे यही करना है। इन्हें चुपचाप पहन ले। बस इतना सा काम करना है।"
अंकित: (आंखें झुकाए, मजबूरी में सिर हिलाते हुए)
"आज तुम्हारा समय है, कविता... जो मर्जी हो, कर लो।"
कविता ने अंकित को एक लिपस्टिक थमाई, मुस्कुराते हुए बोली,
"लगा लो, तुम्हारे होंठ बहुत पेल लग रहे हैं।"
अंकित ने सिर हिलाया, "नहीं... ये मत करवाओ मुझसे।"
कविता ने आँखें चढ़ाईं, "ठीक है, तेरी मर्जी। मैं जबरदस्ती थोड़े करूँगी...
पर तुझे ऐसे खुला छोड़ भी तो नहीं सकती। अगर पापा आ गए तो?"
उसने एक इशारा किया—अचानक दीवार से दो हथकड़ियाँ निकलीं!
अंकित के हाथों को जकड़ दिया गया, और फिर...
कड़ाक! पैरों में भी भारी बेड़ियाँ!
अंकित अब न हिल सकता था, न बैठ सकता था।
सिर्फ खड़ा रहना... उसकी मजबूरी थी।
कविता ने चमकती आँखों से कहा,
"अब असली सरप्राइज की बारी है!
तुम्हारे खूबसूरत पैरों को कुछ नया पहनाने जा रही हूँ..."
वह वॉर्डरोब से लाई—ब्लैक कलर के हाई हील्स!
चमचमाते, नुकीले, बिल्कुल उसकी तरह खतरनाक।
अंकित की साँसें तेज हो गईं—वह समझ गया क्या होने वाला था।
पर वह क्या करता? हाथ-पैर तो जंजीरों में जकड़े हुए थे!
थोड़ी ही देर में, वो हाई हील्स अंकित के पैरों में कसकर बंध चुके थे। उसे लग रहा था जैसे उसकी लंबाई अचानक बढ़ गई हो, पर सीधे खड़े रहना अब एक चुनौती थी। वो असहज होकर हिला, तो हील्स की नोक पर संतुलन बनाने की कोशिश में उसका शरीर झटके से लड़खड़ा गया।
कविता ने उसकी हालत देखी, और मुस्कुराते हुए बोली,
"मुझे पता है, तुम मुझे 'थैंक यू' बोलना चाहते हो... पर क्या करूँ? मेरा दिल ही इतना बड़ा है! 😊 इट्स ओके, नो नीड टू से थैंक्स!"
उसने ड्रामेटिक अंदाज में हाथ हिलाया,
"देखा ना? तुमने मुझे अपनी पिंक T-शर्ट दी थी, और उसके बदले मैंने तुम्हें अपनी ब्रा, पैंटी, स्टॉकिंग्स, ड्रेस... और सबसे प्यारे हील्स भी दे दिए! 💖 तुम तो मुझ पर एहसान जता रहे थे, और मुझे देखो—मुझे कोई परेशानी नहीं! जब तक चाहो, पहनो... अगले 7 दिन तक चाहो तो यही पहने रहो!"
और यह कहकर, वो अंकित को उसी बंधी हुई हालत में छोड़कर किचन की तरफ चली गई। रास्ते में उसने ऊँची आवाज़ में कहा,
"तुम्हें तो कुछ काम है नहीं... मेरे पास बहुत काम है! ना? मैं खाना बना लूँ, तब तक तुम... 😏 एन्जॉय करो।"
अंकित बेचारा चुपचाप सब सह रहा था, हील्स और हैंडकफ्स के साथ एडजस्ट करने की कोशिश में। हर मिनट टॉर्चर से कम नहीं लग रहा था - पैरों में दर्द, अंगूठों पर प्रेशर, कमर में ऐंठन... सब कुछ एक साथ।
कविता: (थाली लेकर आते हुए)
"देखो जरा! मैं काम कर-कर के परेशान हो रही हूँ, और ये खूबसूरत ड्रेस पहने, हील्स में पोज़ दे रहे हैं!"
(झुककर उसके कान में फुसफुसाती है)
"लगता है तुम्हें ये ड्रेस-हील्स बहुत पसंद आए हैं! चलो, थोड़ी और देर एन्जॉय करो। मैं कुछ खा लेती हूँ तब तक..."
और फिर से अंकित को उसी हालत में छोड़ दिया गया - 20 मिनट और।
20 मिनट बाद:
अंकित का चेहरा पीड़ा से तमतमाया हुआ।
"प्लीज... मुझे खोल दो। हील्स उतार दो, बहुत दर्द हो रहा है पैरों में! मोच आ जाएगी यार... और थोड़ी देर इनमें रहा तो—"
कविता: (नाटकीय सहानुभूति दिखाते हुए)
"अरे उतार दूँगी, उतार दूँगी! पहले खाना तो खा लो।"
कविता ने अंकित के हाथों की हथकड़ियाँ खोलीं, और उसकी पीठ के पीछे फिर से लॉक कर दिया। फिर उसने उसके पैरों की हथकड़ी भी खोली। अंकित को सहारा देकर, वह धीरे-धीरे उसे खाने की मेज तक ले गई।
अंकित को हील्स में चलने का कोई अनुभव नहीं था, इसलिए उसे कविता के सहारे की ज़रूरत पड़ी। इस बार का पूरा इंतज़ाम कविता ने किया था।
खाने की मेज पर पहुँचते ही कविता ने अंकित के पैरों को फिर से बेड़ियों से जकड़ दिया और उसके हाथों को पीठ के पीछे से खोल दिया, ताकि वह खाना खा सके।
खाना खत्म होने के बाद कविता ने अंकित को सारे बर्तन साफ़ करने को कहा और उसे सिंक तक बंधे पैरों के साथ ही ले गई। अब अंकित को ऊँची एड़ी वाली हील्स में खड़े होकर बर्तन धोने थे। उसने जैसे-तैसे बर्तन धो लिए।
जब कविता अंकित के हाथों को फिर से बांधने के लिए उसके पास आई, तभी अंकित ने चालाकी से कविता के हाथ से हथकड़ी छीन ली और बहुत तेजी से उसके दोनों हाथ उसकी पीठ के पीछे बांध दिए। फिर उसने अपने पैरों की हथकड़ी खोली और कविता के पैरों में बांध दी। इसके बाद उसने अपने पैरों से हील्स उतार फेंके और आराम से कुर्सी पर बैठ गया।
एक लंबी सांस लेकर वह बोला, "अब तुम मेरी जगह बंधन में रहोगी, और मैं तुम्हारी जगह आराम से बिस्तर पर सोऊंगा।"
अंकित ने मुस्कुराते हुए कहा, *"एक लास्ट बात... तुम कहती रहती थी न कि मैं थैंक्यू नहीं बोलता? तो लो यार - थैंक्यू! क्योंकि तुमने ही मुझे अपनी ड्रेस पहनाई, जिससे ये आइडिया आया! सच में तुम ग्रेट हो। अब अगले 7 दिन तुम मेरी जगह जेल में, और मैं तुम्हारी जगह आराम करूंगा। चलो प्यारी बहना, मैं तुम्हें तुम्हारी असली जगह पहुंचा आता हूँ।"*
कविता ने जल्दी से खुद को छुड़ाने की कोशिश की, पर हथकड़ियाँ स्टील की थीं और पूरी तरह लॉक्ड। उसकी सारी चालाकी बेकार गई। न चाहते हुए भी, उसे अपने ही बिछाए जाल में फंसना पड़ा। वह जिस गड्ढे को खोद रही थी, आखिरकार उसमें खुद ही गिर गई।
अंकित ने उसे धीरे से उसके कमरे की तरफ धकेला, जहाँ अब वही हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ पड़ी थीं जो कल तक उसकी थीं। दरवाज़ा बंद करते हुए वह मुस्कुराया, "शुभ रात्रि, मेरी छोटी जेलर। अब मैं तुम्हारे बिस्तर पर सोने जा रहा हूँ।"
अंकित आराम से कविता के कमरे में जाकर सो गया। तभी उसे याद आया - अगर पापा या मम्मी ने कविता को जेल वाले कमरे में इस हालत में देख लिया तो उसकी समझौते की बात खुल जाएगी। उसने भी कविता वाली ही तरकीब अपनाई:
जेल के कमरे की लाइट काट दी
एसी बंद कर दिया
लाइट बंद कर दी
गर्मी शुरू होते ही कविता बेचारी का बुरा हाल 10 मिनट में ही हो गया। उसके तो हाथ और पैर भी लॉक्ड थे। उसने अंकित को आवाज़ लगानी शुरू की, पर अंकित अब इतनी आसानी से सुनने वाला कहाँ था। 5 मिनट और इंतज़ार करके, यानी लगभग 15 मिनट बाद अंकित कमरे में गया जहाँ कविता लॉक्ड थी।
अंकित ने कविता से कहा: "यार तुम्हें गर्मी लग रही होगी और कपड़े भी गीले हो गए होंगे पसीने से। लो मैं तुम्हारे हथकड़ी खोल देता हूँ।"
और फिर उसके बाद अंकित ने कविता को अपने पहने हुए कपड़े देकर कहा: "चेंज कर लो, लेकिन सॉरी मैं तुम्हें जेल से बाहर नहीं निकाल पाऊँगा। तुम्हें इसी में चेंज करना पड़ेगा। मैं 10 मिनट में आता हूँ, तब तक कपड़े चेंज कर लो।"
कविता गर्मी और गीले कपड़ों से वैसे ही परेशान थी। उसने ज्यादा दिमाग नहीं लगाया और अंकित के दिए हुए कपड़े पहन लिए। उसका मेकअप पसीने से बह चुका था।
10 मिनट बाद अंकित कमरे में आया और कविता के उतारे हुए कपड़ों को उठाकर वहां से जाने लगा। तभी कविता बोली:
"कहाँ जा रहे हो? मुझे बाहर निकालो अभी!"
अंकित ने कविता जैसी एक्टिंग करते हुए जवाब दिया:
"अरे अंकित, तुम भूल गए क्या? तुम्हें 7 दिन यहीं रहना है। पापा ने सजा दी है, याद नहीं क्या? और हाँ, एक लास्ट बात - वो 1,00,000 बार 'सॉरी' लिखना शुरू कर दो, नहीं तो कल चाय भी नहीं मिलेगी तुम्हें। चलो ठीक से सोना, मैं चलती हूँ। गुड नाइट!"
अंकित ने कविता को लॉक करके कमरे से निकल गया। कविता अब अकेली रह गई, यह सोचते हुए कि आगे उसके साथ क्या होगा और वह कैसे अंकित को फिर से जेल में उसकी असली जगह पहुँचाएगी।
अंकित भी जाते समय कविता से अपना बदला लेना नहीं भूला।
जाते-जाते उसने कमरे की लाइट बंद कर दी।
अब कमरे में न एसी था, न रोशनी —
बस कविता थी… और वो भी अंकित की जगह फँसी हुई।
सारी रात कविता ने बड़ी मुश्किलों से काटी।
उसकी हालत का अंदाज़ा लगाना भी बहुत मुश्किल था।
एक-एक पल उसने अंकित से बदला लेने की प्लानिंग में बिताया।
वो सो नहीं पाई —
क्योंकि अगर अब उसने कुछ नहीं किया,
तो अगले 7 दिन जेल में बिताने पड़ेंगे,
जो उसके लिए किसी सज़ा से कम नहीं था।
सुबह के 10 बजे तक अंकित आराम से सोता रहा।
फिर उसने मस्त चाय-नाश्ता किया,
और 12 बजे कविता की अलमारी से जींस और टॉप पहनकर,
चाय लेकर कविता के पास पहुँचा।
उसे चाय देकर वो बिना कुछ कहे वापस चला गया।
तभी डोरबेल बजी।
अंकित ने दरवाज़ा खोला,
तो देखा — कविता की सहेलियाँ हाथ में कुछ बैग लेकर खड़ी थीं।
अंकित को आश्चर्य हुआ कि ये सब लॉकडाउन में आई कैसे?
पर जब आ ही गई थीं,
तो घर में बुलाना तो पड़ता ही है…
सभी को अंकित अपने कमरे में — यानी कविता के कमरे में — ले गया और सबका हालचाल पूछा। तभी कविता की एक फ्रेंड बोली,
"तूने ही तो बुलाया था हमें घर पर... भूल गई क्या? इतना अजीब सा बिहेव क्यों कर रही है?"
अंकित कुछ जवाब देता, उससे पहले ही दूसरी सहेली बोल पड़ी,
"वैसे पासवर्ड क्या है?"
अंकित ने चौंक कर पूछा,
"कौन सा पासवर्ड?"
तो बात बदलते हुए वह बोली,
"कुछ नहीं, छोड़! एक कप चाय तो पिला दे... तुझे पता है ना मुझे गर्म चाय बहुत पसंद है।"
अंकित को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। उसे लग रहा था कि कविता की फ्रेंड्स शायद थोड़ी अजीब या पागल टाइप की हैं... सबकी सब, एक रोशनी को छोड़कर।
रोशनी, अंकित का पहला क्रश थी। पर वो कविता की फ्रेंड थी — और इसी वजह से अंकित ने कभी अपनी feelings जाहिर करने की हिम्मत नहीं की थी। लेकिन आज... आज तो मानो किस्मत ने खुद उसे मौका दे दिया था।
पाउडर पिंक सूट में रोशनी बला की खूबसूरत लग रही थी। दोनों हाथों में मैचिंग चूड़ियां, और हाथों में रची हुई महेंदी... उसकी खूबसूरती को नेक्स्ट लेवल पर ले जा रही थी।
रोशनी ने कविता की तरफ देखकर कहा,
"क्या हुआ कविता, तू ठीक तो है न?"
फिर पास आकर धीरे से उसके कान में फुसफुसाई,
"आज तो तेरे भाई से मेरा properly इंट्रो करवा दे यार... कब से घुमा रही है। आज मना मत करना, मुझे पता है आज तो वो घर में ही है।"
अंकित के तो मन में लड्डू ही फूट पड़े। इतनी खुशी हुई कि खुद पर काबू करना मुश्किल हो गया। लेकिन बड़ी मुश्किल से अपनी खुशी छुपाते हुए उसने कहा,
"अरे यार, तू बस थोड़ी देर रुक... मैं तुझे जरूर मिलवा दूंगा—मतलब मिलवा दूंगी!"
फिर हँसते हुए बोला,
"तब तक बैठ, मैं तेरे लिए एक गरमागरम चाय लेकर आती हूँ।"
चाय पीने के बाद रोशनी ने एक बैग से हरी साड़ी-ब्लाउज निकालकर टेबल पर रखते हुए कहा:
"ये रही तेरी प्यारी सी साड़ी! जल्दी से कपड़े उतारो और ब्लाउज फिटिंग चेक करो।"
अंकित ने संकोच से कहा: "मैं वॉशरूम में चेंज कर लेता हूँ..."
रोशनी हँसकर बोली: "अरे हम सब लड़कियाँ ही हैं! तेरे पास ऐसा क्या है जो हमसे छुपाना चाहती है?"
धीरे-धीरे अंकित ने टॉप उतारा। लड़कियों की नजरें उसकी छाती पर ठहर गईं - सब समझ गईं कि ये कविता नहीं, अंकित है।
रोशनी ने शरारती मुस्कान के साथ उसके निप्पल्स को नोंचते हुए कहा:
"क्या बात है! ब्रा भी नहीं पहनी? और ये गुलाबी रंग... क्या लगा रखा है इनपर?"
अंकित दर्द से कराहा: "कुछ नहीं लगा रखा! ब्लाउज दे इधर..."
ब्लाउज पहनने की कोशिश करते ही पता चला - वो बहुत छोटा था। हुक बंद होने का कोई चांस नहीं था।
रोशनी ने सुझाव दिया: "कोई बात नहीं, बिना ब्लाउज के ही साड़ी पहन ले। कौन देख रहा है?"
लड़कियों ने मिलकर उसका पेंट उतारा और पेटीकोट पहनाया। अंकित मन ही मन शुक्र मना रहा था कि उसने कविता की नई पैंटी पहन रखी थी।
हरी साड़ी पहनते ही सबकी सांसें थम गईं। अंकित के गोरे रंग पर हरी साड़ी जादू-सा असर कर रही थी। रोशनी ने मुस्कुराकर कहा:
"लगता है हमें कविता को रोज साड़ी पहनानी चाहिए!"
साड़ी नो-डाउट अंकित पर बहुत अच्छी लग रही थी, पर रोशनी आज किसी नशे में थी। हर मौके पर वह अंकित के निप्पल्स नोंचती - कभी कमर पर चुटकी काटती।
अंकित दर्द से कराहता, मुँह से गाली निकलने ही वाली होती, पर वह खुद को रोक लेता। उसके निप्पल्स अब लाल हो चुके थे - एक ही जगह बार-बार नोंचने से।
आखिरकार वह दर्द से बचने के लिए दीवार की तरफ मुख करके खड़ा हो गया, अपनी छाती को दीवार से चिपका दिया।
रोशनी ने शरारती मुस्कान के साथ कहा:
"अरे ऐसा क्या हो गया? साड़ी में इतना शर्मा रही हो क्या?"
अंकित ने दाँत पीसते हुए जवाब दिया:
"तुम... तुम्हारे हाथ बहुत गर्म हैं। थोड़ी दूर रहो।"
रोशनी के जाने के बाद, सलोनी ने कविता के कान में चुहलभरी आवाज़ में फुसफुसाया, "यार, वो ब्लैक ड्रेस जिसके लिए तू इतना परेशान थी... देख मैं ले आई हूँ!" उसके हाथों से निकली चमकदार ड्रेस की चमक ने कमरे को रोशन कर दिया।
अचानक सलोनी के हाथों ने पेटीकोट के नाड़े से खेलना शुरू किया। एक झटके में साड़ी ज़मीन पर गिर गई, और अंकित स्तब्ध खड़ा रह गया - सिर्फ उसकी ब्लैक पैंटी में। उसके चेहरे पर शर्म और हैरानी का मिश्रण था, मानो वो कह रहा हो 'ये सब क्या हो रहा है?'
"चल, पहले ये ब्रा पहन," सलोनी ने चुटकी लेते हुए कहा, और बिना रुके उसने अंकित को ब्लैक ब्रा पहना दी। ड्रेस उसके ऊपर चढ़ाते हुए वो बोली, "अरे वाह! तेरे लिए परफेक्ट फिट है।"
तभी उसकी नज़र अंकित के पैरों पर पड़ी। "ओहो! ये क्या? तूने तो महीनों से वैक्सिंग नहीं करवाई!" उसके चेहरे पर शरारत थी। अंकित कुछ बोलता, उससे पहले ही वो उसे कुर्सी पर बिठा चुकी थी।
वैक्स गरम होने की आवाज़ के साथ ही अंकित का दिल धड़कने लगा। जब गरम पट्टा उसके पैरों पर चिपका, उसकी साँसें तेज हो गईं। और फिर... झटाक!
"आआआह!" अंकित का चीखना कमरे में गूँज गया। उसकी आँखों में पानी आ गया, पर सलोनी मानो उसकी पीड़ा से आनंद ले रही थी। एक के बाद एक कई झटके... हर बार अंकित का चेहरा पीड़ा से विकृत हो जाता।
जब यह क्रूर प्रक्रिया खत्म हुई, तो अंकित की टाँगें गुलाबी और कोमल हो चुकी थीं। "अब ये स्टॉकिंग्स पहन," सलोनी ने रेशमी जुराबें थमाते हुए कहा। अंकित ने दर्द से भरी आँखों से उसे देखा, फिर मजबूरी में स्टॉकिंग्स पहन लीं।
तभी सलोनी ने अपने बैग से एक अजीब सा ड्रेस एक्सेसरी निकाला। अंकित की आँखें डर से फैल गईं। "डर मत यार," सलोनी हँसी, "मेरी कजिन इसे अमेरिका से लाई है। चल, तुझपर ट्राई करते हैं!"
अंकित ने विरोध करने की कोशिश की, पर सलोनी ने उसके हाथ पीछे कर ड्रेस के पीछे लगी थैली में कसकर बाँध दिए। हुक लगाते ही उसकी हरकतें पूरी तरह सीमित हो गईं।
"अब थोड़ा मेकअप," सलोनी ने चटख गुलाबी लिपस्टिक लगाते हुए कहा। अंकित के चेहरे पर असहायता थी, मानो वो पूछ रहा हो 'मेरे साथ ये क्या हो रहा है?'
"चलो अब तुम्हारे भाई से मिलते हैं," सलोनी ने मुस्कुराते हुए कहा। अंकित जानता था कि उसके पास कोई चारा नहीं। वो धीरे-धीरे उन्हें कविता के पास ले गया।
लड़कियों ने अंकित को घेर लिया। "तूने इस बेचारी का क्या हाल कर दिया!" रोशनी ने गुस्से से कहा। अंकित से चाबी लेकर उन्होंने कविता को आज़ाद किया।
अंतिम अपमान के रूप में, उन्होंने अंकित के पैरों में ब्लैक हील्स पहना दीं। जेल का दरवाज़ा बंद होते ही अंकित अकेला पड़ गया - हील्स में लड़खड़ाता हुआ, उसकी आँखों में सवाल था: 'आखिर ये सब क्यों?'
कविता और लड़कियाँ जाते-जाते मुड़कर देख रही थीं, उनके चेहरों पर विजयी मुस्कान। आज का दिन अंकित कभी नहीं भूल पाएगा। और उसे जेल में बंद करके जाते समय सभी एक साथ बोली हमे घर में घुसते ही पता चल गया था के तुम अंकित हो हमारी फ्रैंड कविता नही. अब तुम्ही असली पेनिशमेंट क्या होती है पता चलेगा , हमारी फ्रैंड को अकेला देख कर उसे जितना परेशान की या है उससे कही ज्यादा झेलने के लिए तैयार रहना, और ये कहे कर सभी लड़कियां अंकित को जेल में बंद कर के कविता को अपने साथ ले गई.
अब अकेली कविता नहीं थी — उसकी सहेलियाँ भी साथ थीं। ऐसे में ये तो तय था कि आने वाले छह दिन अंकित के लिए बेहद कठिन होने वाले हैं। उसके हाथ अब भी बंधे हुए थे, और वह उस अजीब सी काली ड्रेस में था, जो उसे और भी असहाय महसूस करवा रही थी।
अंकित को अपनी बेवकूफी पर बहुत गुस्सा आ रहा था।
उसके दिल में एक ही बात बार-बार घूम रही थी —
“प्यार कभी नहीं करना चाहिए। प्यार इंसान की ज़िंदगी बर्बाद कर सकता है… और एकतरफा प्यार में तो कभी भी किसी लड़की पर भरोसा नहीं करना चाहिए।”
आज जो कुछ भी हो रहा था, उसकी जड़ में उसका वही एकतरफा प्यार था। और अब वो उसी प्यार के जाल में फंस चुका था।
करीब दस मिनट बाद कविता और उसकी सहेलियाँ फिर से आईं। वो उसकी जेल के सामने खड़ी होकर मुस्कुरा रही थीं।
एक ने कहा,
"हमें तुम पर थोड़ी दया तो आ रही है… लेकिन क्या करें, तुमने किया भी तो ऐसा है। सज़ा तो बनती है!"
फिर दूसरी सहेली बोली,
"हाँ… लेकिन इसमें कविता की भी थोड़ी गलती है। इसलिए ऐसा नहीं होना चाहिए कि सज़ा सिर्फ तुम्हें मिले।"
फिर तीसरी ने एक पेपर निकाला और बोली,
"हम सबने मिलकर फैसला लिया है — तुम्हें और कविता, दोनों को बराबरी का मौका दिया जाएगा। एक गेम होगा। जो हारेगा, उसे सज़ा मिलेगी। और जो जीतेगा, वो अगले सात दिन एंजॉय करेगा।"
एक और लड़की मुस्कुराते हुए बोली,
"और अगर मैच टाई हो गया, तो हम सब मिलकर तुमसे एक 'सॉरी' वाला मैसेज लिखवाएंगे, और फिर तुम्हें बस अपनी जेल की बाकी की सज़ा काटनी होगी।"
अंकित ने ध्यान से सबकी बातें सुनीं।
उसे ये प्रस्ताव सही लगा।
कम से कम, अब सब कुछ कविता के हाथ में नहीं था — उसके पास भी एक मौका था।
वो धीमे से बोला,
"ठीक है… मुझे मंज़ूर है ये शर्तें।"
रश्मि की बात सुनकर अंकित की भौंहें तन गईं। "एक जैसा दिखना?" उसने असहज होते हुए पूछा, अपने हाथों को अनजाने में अपने बालों वाले पैरों पर फेरता हुआ। वैक्सिंग का दर्द अभी तक उसकी यादों में ताजा था।
"हाँ, बिल्कुल ट्विन्स की तरह!" रोशनी ने उत्साह से कहा, उसकी आँखों में एक शरारत थी जो अंकित को डरा रही थी।
अंकित ने एक गहरी सांस ली। उसके पास वास्तव में कोई विकल्प नहीं था। "ठीक है," उसने हार मानते हुए कहा, उसकी आवाज़ में एक कंपकंपी थी।
तैयारी का दौर:
वैक्सिंग रूम में:
"आईय्य्यह!" अंकित की चीख कमरे में गूँजी जब गरम वैक्स उसके पैरों से बाल नोच रही थी। उसकी आँखें पानी से भर गईं, पर सलोनी बस मुस्कुरा रही थी। "अरे, इतना ड्रामा मत करो! देखो कितनी सुंदर गोरी त्वचा निकल आई है।"
ड्रेसिंग रूम में:
गुलाबी ब्रा और पैंटी थमाते हुए रश्मि ने कहा, "ये लो, तुम्हारे साइज का ही है।" अंकित ने शर्म से सिर झुका लिया, उसके गालों पर लाली छा गई। पेटीकोट की डोर कसते हुए रोशनी ने इतना जोर लगाया कि उसका साँस लेना मुश्किल हो गया।
मेकअप स्टूडियो में:
"आँखें बंद करो," सलोनी ने काजल की पेंसिल लेकर कहा। अंकित ने आँखें मूँद लीं, पर फिर भी काजल की एक बूँद उसकी आँख में चली गई। "आँख जल रही है!" वह छटपटाया।
"रुको, इसे और ब्लेंड करना है," रोशनी ने आई शैडो ब्रश लेकर कहा। अंकित की आँखें अब एक अजीब से नीले-हरे रंग में रंग चुकी थीं।
नकली पलकें चिपकाते समय अंकित ने शिकायत की, "कुछ दिख नहीं रहा!" पर लड़कियों ने उसकी एक न सुनी।
गहनों का बोझ:
"ये माला तो मेरी गर्दन तोड़ देगी!" अंकित ने गले में पड़े भारी गहनों को सम्हालते हुए कहा।
"चुपचाप सहो," रश्मि ने पायल पहनाते हुए कहा, "ये तो परंपरा का हिस्सा है।"
अंतिम रूप:
जब कविता को लाया गया, तो अंकित हैरान रह गया। वे दोनों इतने समान दिख रहे थे कि कोई भी भ्रमित हो सकता था। बस दो अंतर थे:
कविता के हाथों पर मेहँदी की सुगंध
अंकित के चेहरे पर चश्मा, जिसके पीछे से उसकी आँखें डर और असहायता से भरी हुई थीं
"अब हमें भी पता नहीं चलेगा कि असली कौन है!" सलोनी हँसी।
अंकित ने अपने भारी गहनों के तले दबे हुए कंधे झटके। उसके मन में एक ही विचार था: 'ये सब खत्म होने के बाद मैं कभी किसी लड़की पर भरोसा नहीं करूँगा!'
अब हम दोनो को गेम की शर्ते बताई गई के दोनो को बराबरी का मौका मिलेगा और गेम के अंत में जिसके पॉइंट्स काम होगे उसे 7 दिन जेल में रहेना पड़ेगा और जितने वाला जेल से बाहर होने वाला है.
हम दोनो ने अपना एग्रीमेंट दे दिया .
अब सलोनी बोली गेम 1 तुम दोनो अपने स्कूल टाइम की कोई एक पनिशमेंट बताओ जो तुम कभी याद नही करना चाहोगे. तो शुरुआत करेंगे अंकित से.
*"वैसे तो मैं शुरुआत से ही पढ़ने में तेज था, हमेशा क्लास में मॉनिटर ही होता था। पर मैं सीधा-साधा था, इसलिए कई बार टीचर मेरी जगह कविता को भी मॉनिटर बना देते थे। ऐसी ही एक दिन हमारी नई मैडम आई थी क्लास में— अंकिता। उन्होंने खुद को बहुत मेंटेन कर रखा था— ब्लैक हील्स में, ब्लू साड़ी पहने, दोनों हाथों में 4 मैचिंग चूड़ियां पहने, खुले बालों में... जब उन्होंने क्लास में एंट्री ली, सारे लड़के अपना दिल को बैठे।"*
"मैं फर्स्ट बेंच पर बैठता था, सबसे आगे। उन्हें (अंकिता मैडम को) देखने के चक्कर में मैं भूल ही गया कि वो एक टीचर हैं। मैं उन्हें ताड़ रहा था, बस एकटक देखे जा रहा था। मैडम ने भी ये नोटिस कर लिया। फिर उन्होंने सबका इंट्रोडक्शन लिया, पर हमारे लास्ट एग्जाम का रिजल्ट नहीं पूछा। मेरा टीचर्स को इंप्रेस करने का तरीका मिस हो गया।
पर पता नहीं मुझे क्या हो गया था, मैं किसी भी हाल में मैडम को इंप्रेस करना चाहता था। क्लास शुरू हुई, पर जैसे ही वो चैप्टर स्टार्ट करती, स्कूल के खडूस पिउन ने गेट पर दस्तक दी और बोला – 'मैडम, प्रिंसिपल मैम ने आपको बुलाया है!'
अंकिता मैडम ने कविता का नाम लेकर कहा – 'तुम खड़ी हो जाओ, और अगर कोई बच्चा बातें करे या आवाज़ करे तो उसका नाम बोर्ड पर लिख देना। बाकी मैं देख लूंगी।'
सभी लड़कों ने टीचर को हल्के में लिया। जैसे ही मैडम क्लास से बाहर गईं, सब उनकी 'हॉटनेस' के बारे में बातें करने लगे। सभी उन्हें अपनी 'प्रॉपर्टी' समझकर बाकी क्लास की 'भाभी' मान चुके थे। और ये भूल गए कि कविता ये सब नोटिस कर रही है और नाम लिखने के लिए ही खड़ी है।
कविता ने शुरू में किसी का नाम नहीं लिखा, तो सब और ज्यादा मस्ती करने लगे। उसे इग्नोर करके अपनी बातों में खोए हुए थे। फिर 10 मिनट बाद जब मैडम वापस आईं, तो कविता ने अपना गेम खेला।
सब लोग सरप्राइज रह गए जब उसने मेरा और मेरे 5 दोस्तों के नाम बोर्ड पर लिख दिए, जो क्लास में सबसे बेस्ट थे, हमेशा टॉप 5 में आते थे। वो बोली – 'मैम, ये 5 लोग ही सबसे ज्यादा बातें कर रहे थे और क्लास का डेकोरम खराब कर रहे थे!'
"हमने सफाई देने की कोशिश की - 'मैम, कविता झूठ बोल रही है! हम तो बस पढ़ रहे थे, सिर्फ डॉट्स क्लियर कर रहे थे!' पर मैडम को हमारा बहाना बिल्कुल पसंद नहीं आया। उन्होंने गुस्से में चीखते हुए सिर्फ एक लाइन बोली - 'तुम पांचों अभी के अभी बेंच से निकलो और बोर्ड के साइड में खड़े हो जाओ!'
हमारे पास कोई चॉइस नहीं थी। हम सामने खड़े हो गए। फिर मैडम ने पूरी क्लास से पूछा - 'क्या कविता ने गलत नाम लिखे हैं?'
पर अब क्लास में कौन बोलता? सब खुद भी तो शोर कर रहे थे! सबने सोचा - 'इन पांचों को सजा मिल जाए तो अच्छा है। पहले दिन ही इनका पत्ता कट जाएगा और मैडम हमारी "भाभी" बन जाएंगी!'
लड़कियाँ तो कविता की दोस्ती में चुप थीं ही। इस तरह पूरी क्लास ने हमें फंसा दिया! मैडम को लगा कि हम पाँचों ही क्लास के असली शैतान हैं - जो फर्स्ट बेंच पर बैठकर भी झूठ बोलते हैं और बदमाशी करते हैं।
दंड का समय!
मैडम ने फैसला कर लिया कि हमें 'एग्जाम्पल' बनाकर सबको सबक सिखाना है। उन्होंने हमें कान पकड़कर क्लास के सामने सॉरी बोलने को कहा। हमने मजबूरन ऐसा ही किया।
पर मैडम को हमारा सॉरी बोलने का तरीका पसंद नहीं आया! वो बोलीं - 'लगता है तुम लोग एक्सरसाइज नहीं करते! आवाज़ में दम ही नहीं है... लास्ट बेंच तक आवाज़ नहीं जा रही! कान पकड़कर 5 उठक-बैठक लगाओ!'
हमने मन ही मन गालियाँ देते हुए वो भी किया। फिर जोर से चिल्लाकर सॉरी बोला। मैडम मुस्कुराईं - 'देखा, एक्सरसाइज के कितने फायदे हैं?'
और फिर वो गलती...
हमें लगा शायद अब मैडम का मूड ठीक है। मैंने स्मार्ट बनते हुए पूछा - 'मैम, क्या हम अपनी सीट पर बैठ सकते हैं?'
मैडम की आँखों में फिर से चिंगारी दौड़ गई..
"तो टीचर अपनी जुल्फों को झटका मारकर पल्लू को झटकते हुए मेरी तरफ मुड़ी और बोली— 'क्या करोगे बैठकर? एक काम करो— मुर्गा बन जाओ! और वही बातें करो जो तुम कर रहे थे। मुझे सुनना है कि ऐसी क्या जरूरी बातें थीं!'
फिर उन्होंने क्लास से पूछा— 'क्या तुम लोगों को भी सुनना है कि मुर्गे आपस में बात कैसे करते हैं?'
सारी क्लास हँसते हुए बोली— 'हाँ मैम!'
वो आराम से चेयर पर बैठ गईं, और पूरी क्लास अब हम पाँचों को घूर रही थी। इतना शर्मिंदा मुझे अपने स्टूडेंट लाइफ में कभी नहीं होना पड़ा था। हम एक-दूसरे को देख रहे थे, आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था— 'आज के बाद क्लास में हमारी इज्जत खत्म!'
तभी मैडम ने मेरा नाम लिया— 'अंकित!'
मैं अपनी सोच से बाहर निकला तो देखा— बाकी चारों तो कब के पिछवाड़ा उठाए, कान पकड़े, मुर्गा बन चुके थे! मैंने भी जल्दी से वही पोज़ बना लिया।
ये मेरी जिंदगी का पहला 'मुर्गा एक्सपीरियंस' था। मैंने कितनी बार दूसरों को ये सजा दिलवाई थी, आज खुद भुगत रहा था।
पैरों की नसें खिंचने लगीं
हाथ काँपने लगे
पिछवाड़ा लटकने लगा
मैडम ने देखा तो चिढ़कर बोलीं— 'अंकित, अभी तो शुरुआत है! तुम तो बैठ गए! सीधे हो जाओ!'
फिर उन्होंने मेरी पीठ पर डस्टर रख दिया और धमकाया— 'ये गिरा तो रिसेस टाइम में भी मुर्गा बनोगे!'
मैंने घड़ी देखी— बस 5 मिनट बचे थे बेल बजने में। मन ही मन समझाया— "बस थोड़ी देर और..."
पर जैसे ही 1 मिनट बचा था, मेरा बैलेंस बिगड़ा और डस्टर गिर गया!
और ठीक उसी पल— 'डिंग-डोंग!' —बेल बज गई!
मैं खुशी से उठा ही था कि मैडम ने मुझे रोक लिया— 'तुम्हारी छुट्टी नहीं हुई अंकित! नेक्स्ट क्लास भी मेरी है... तुम पूरी पीरियड यहीं मुर्गा बने रहोगे!'
"और अब मैं अकेला ब्रेक टाइम में भी मुर्गा बना रहा था। सभी लोग मुझ पर हँस रहे थे। बाकी के 4 भी जाते हुए मुझ पर हँसते हुए गए और बोले— 'अंकित, पानी लोगे क्या? अभी तो तुम्हें 30 मिनट और मुर्गा बनना है! लगता है भाभी बहुत ज्यादा ही प्यार करती है तुमसे... इसीलिए सबको जाने दिया, बस तुम्हें छोड़कर! वेरी पॉजेसिव! तेरी तो किस्मत ही खुल गई!'
सब मुझ पर हँसने लगे और मुझे क्लास में वैसे ही मुर्गा बना छोड़कर चले गए। कुछ लड़कियाँ भी आईं, जो मेरा मज़ाक उड़ाकर गईं— मुझ पर हँसने का मौका नहीं छोड़ा।
पर कुछ लड़कियाँ अच्छी भी थीं— उन्होंने कहा, 'कविता ने तुम्हारे साथ सही नहीं किया... उसने जानबूझकर तुम्हें फँसाया है!' और कविता की बुराई करते हुए वो भी चली गईं।
सबसे लास्ट में कविता आई...
वो मुस्कुराते हुए बोली— 'क्या हुआ अंकित? मज़ा आ रहा है न? वैसे... पनिशमेंट में कोई कमी तो नहीं रह गई न?' और हँसती हुई ब्रेक पर चली गई।
आधी ब्रेक खत्म होने के बाद, फाइनली पिऊन आई और बोली— 'अंकिता मैडम ने तुम्हें ब्रेक लेने को कहा है... और आगे से कभी गलती न करने का फीडबैक दिया है।'
ये था मेरी जिंदगी का सबसे गंदा एक्सपीरियंस।
"अंकित का मुर्गा पनिशमेंट स्टार्ट सुनकर सबकी बोलती बंद हो गई थी। तभी मैं (कविता) बोली— 'अरे! क्या हुआ? तुम सबने मेरी कहानी सुने बिना ही पहले ही रिजल्ट डिसाइड कर लिया? और जो इस कमीन के लिए भावुक होकर मुझे गुनहगार की नजर से देख रहे हो... जब इसका कांड सुनोगे, तो सारी हमदर्दी खत्म हो जाएगी! क्योंकि इसने जो उसके बाद किया, वो बहुत खतरनाक था!'
'खुद ही सुना दो, इतने भोले बनकर मत बैठो! आधी कहानी सुनाकर...'
ठीक है, तो सुनो— उस घटना के बाद मेरी जिंदगी बदल गई। अब मेरा एक ही सपना था: अपना बदला लेना और किसी भी तरह से अंकिता मैडम को उनकी गलती की सजा देना!
इसलिए मैंने:
उनका पीछा करना शुरू कर दिया
उनके बारे में सब कुछ पता करना शुरू कर दिया
"मैंने पूरी जासूसी शुरू कर दी -
वो कहाँ रहती हैं?
क्या खाती हैं?
किससे मिलती हैं?
उनके घर में कौन है?
शौक क्या हैं?
मैरिड हैं या नहीं?
कोई ब्वॉयफ्रेंड या अफेयर?
पर हैरानी की बात - इतनी सेक्सी मैडम का कोई ब्वॉयफ्रेंड नहीं! बिल्कुल साफ-सुथरा कैरेक्टर - स्कूल से घर और घर से स्कूल। न कोई टीचर से खास दोस्ती, न किसी से दुश्मनी।
मैं हताश हो रहा था... समझ नहीं आ रहा था कि बदला कैसे लूँ। पर कहते हैं न - मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती!
और फिर... ऊपर वाले ने मुझे रास्ता दिखा दिया! एक ऐसा मौका जो मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा..."
फाइनली एक दिन मेरा दोस्त मेरे पास आया वो मेरे साथ सेम स्कूल में नही था पर मेरे पड़ोस में रहता था तो हर बात मुझे बताता रहता था और आज उसके पास मोबाइल में एक मैसेज आया के
“”अंकिता मैडम ने आज दारु ज्यादा पी ली है उनके दोस्तो के साथ और दोस्त तो चले गए है और मैडम घर में अकेली है होश भी नही है यही मौका है बदला लेने का”
अंकित और उसका दोस्त मैडम के घर में मौका देख कर घुस गया मैडम नशे में थी पर डर तो था पकड़े जाने का इसलिए अंकित ने एक प्लान बनाया और जानबूझ कर वो मेरे कपड़े पहन लिया
मेरे जैसी हेयर स्टाइल करके गया जिससे अगर मैडम को होश भी आ गया तो मेरा नाम हो, अंकिता मैडम को कुर्सी पर बिठाया फिर उनके दोनो हाथो को एक दुप्पटे से बांध दिए
अंकिता मैडम की आँखें धीरे-धीरे खुल रही थीं, लेकिन नशे का धुंध अभी भी उनके दिमाग पर छाया हुआ था। वह हाथ-पैर मारकर खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन रस्सियाँ उनकी कलाइयों को और भी ज्यादा चुभ रही थीं।
भागने की कोशिश की पर जाति कहा घर तो लॉक कर दिया था दोनो ने , फिर अंकिता मेम को पकड़ कर दोनो ने उनके पैर भी बांध दिए
अंकित ने मेरी यानी कविता के आवाज में बोला अंकिता मेम आप डर क्यों रहे हो मुझे बस आपके लंबे बालो से नफरत है जब भी आप बालो को झटकते हो सारे लड़के तुम पर मरते है
आज में इस मुसीबत को ही खत्म कर दूंगी , और फिर इसने अंकिता मेम के मुंह पर सिल्वर टेप लगा दी और उनकी साड़ी उतार दी उतार दी अब ब्लाउज और ब्रा को काट दिया अंकिता मेम के हाथो को दुप्पटे के अलावा रस्सी से भी बांध दिया अब अंकिता मेम के बूब्स साफ दिखाई दे रहे थे बेचारी के हाथ और मुंह बांधा हुआ था नशे में भि थी तो कर भी क्या सकती थी
अंकित ने अंकिता मैडम के बालों की आखिरी लट काट दी। उनके गले तक के शॉर्ट बॉब कट बाल अब उनके गालों से चिपक रहे थे—पसीने और आँसुओं से भीगे हुए।
"मेरा बदला पूरा हो चुका है," अंकित ने मेरी आवाज़ की नकल करते हुए कहा, "पर मैं तुम्हें ऐसे नंगी और बंधी हुई छोड़कर नहीं जा सकती। एक रास्ता है..."
उसने मैडम का फोन उठाया। "मैं तुम्हारे मोबाइल से तीन लोगों को कॉल करूँगी। अगर कोई तुम्हें बचाने आ जाए, तो तुम्हारी किस्मत। पर..." उसने उनके मुँह पर चिपके सिल्वर टेप को जोर से दबाया, "तुम्हारी आवाज़ किसी तक नहीं पहुँचेगी।"
पहली कॉल: स्कूल की बायोलॉजी टीचर को।
फोन बजा... और उठ गया।
अंकित ने मोबाइल मैडम के मुँह के पास लगा दिया।
"Mmmfff! Mmmfff—!"
"हेलो? अंकिता? क्या बात है? ...हेलो?"
सामने से सिर्फ हल्की सी खरोंच की आवाज़ आई।
"शायद नेटवर्क खराब है..."
कट।
दूसरी कॉल: स्पोर्ट्स टीचर को।
वही हुआ।
"Mmmff! Mmmff—!"
"अंकिता? तुम ठीक हो? ...अजीब है।"
कट।
तीसरी कॉल: प्रिंसिपल मैडम को।
इस बार अंकित ने खुद बोला—मेरी आवाज़ में:
"सॉरी मैडम, गलती से कॉल चला गया था।"
"अच्छा? ठीक है।"
कट।
अंकित ने मुस्कुराते हुए फोन फेंक दिया।
"अब मैं कुछ नहीं कर सकती। तुम्हारी मदद कोई नहीं आने वाला।"
जाने से पहले, उसने मैडम की आँखों पर एक काली पट्टी बाँध दी। अँधेरे में, उनकी साँसें तेज हो गईं। वह सिर्फ अपने दिल की धड़कनें सुन सकती थीं—और दरवाज़े के बंद होने की आवाज़।
अब वह अकेली थी।
बंधी हुई।
बिना आवाज़ के।
अगले दिन स्कूल में सन्नाटा छा गया। अंकिता मैडम, अब अपने बेतरतीब कटे बालों के साथ, प्रिंसिपल के साथ हमारी क्लास में आईं। सबकी नजरें मुझपर टिकी थीं।
"कविता, मेरे केबिन में आओ," प्रिंसिपल ने सख्त आवाज़ में कहा।
मैं काँप रही थी। "मैडम, मैं कल घर पर थी! मुझे कुछ नहीं पता—"
"झूठ मत बोलो!" अंकिता मैडम का गला भर आया। "मैंने तुम्हारी आवाज़ सुनी थी! तुम्हारे कपड़े देखे थे!"
मेरे माता-पिता को बुलाया गया। माँ ने जोर देकर कहा कि मैं पूरी शाम घर पर थी, लेकिन किसी ने सुनी नहीं। पापा के कॉन्टैक्ट्स ने मुझे स्कूल से निकलने से बचा लिया, पर सजा तो मिलनी ही थी।
"तुम्हारे बाल भी उसी तरह काटे जाएँगे," अंकिता मैडम ने ठंडी आवाज़ में कहा।
कैंची चली। मेरे लंबे बाल गिरते देख सारी क्लास चुप थी। अंकित पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा था।
कई हफ्तों तक मैं स्कूल नहीं गई। जब लौटी, तो लोग मुझसे दूर भागते। "वो देखो, वही लड़की... जिसने मैडम के साथ वो किया..."
अंकिता मैडम की शादी हो गई और वह चली गईं। पर मेरा अपराधी टैग मेरे साथ ही रहा।
, परआज भी सब मुझे ही उनके साथ जो हुआ उसका जिम्मेदार मानते और मुझे घृणा के नजर से देखते कोई मेरा दोस्त नही बनता ,अंकित खुश था। उसने कभी सच नहीं बताया।
एक दिन, अंकित और उसके दोस्त में झगड़ा हो गया। गुस्से में उस लड़के ने धमकाया:
"मैं प्रिंसिपल को बता दूँगा कि तूने ही अंकिता मैडम के साथ वो सब किया था! नहीं तो 10,000 रुपये दे!"
अंकित के पास पैसे नहीं थे। उसने माँ की सोने की अंगूठी चुराई और बेच दी।
जब चोरी का पता चला, तो माँ ने मुझपर इल्ज़ाम लगाया। "तू ही चोर है! तुझे शर्म नहीं आती?" बेतहाशा मार पड़ी।
जब माँ घर पर नहीं थी, मैंने अंकित को उसके कमरे में घेर लिया।
"आज तू सच बोलेगा," मैंने गुस्से में कहा, उसके हाथ रस्सी से बाँधते हुए।
"मुझे मारोगी? जैसे तुमने मार खाई थी?" वह हँसा।
मैंने उसे नंगा कर दिया, थप्पड़ पर थप्पड़ जड़ दिए। "बोल! सच बोल!!"
आखिरकार, उसके आँसू छलक पड़े।
"हाँ... मैंने किया था... मैंने तेरे कपड़े पहने थे... तेरी आवाज़ की नकल की थी..."
सारी लड़कियां अंकित को घूर रही थी और अंकित को समझ आ गया था के अगले 7 दिन किसे जेल में रहना है ,