Disclaimer

यह ब्लॉग पूरी तरह काल्पनिक है। किसी से समानता संयोग होगी। बिना डॉक्टर की सलाह के दवाइयाँ ((जैसे स्तन वर्धक या हार्मोन परिवर्तन)न लें - यह जानलेवा हो सकता है।— अनीता (ब्लॉग एडमिन)

Didi ne dulhan ki tarah sajaya

📝 Story Preview:

रात का सन्नाटा धीरे-धीरे कमरे में घुल रहा था। कमरे की रोशनी हल्की थी, बस टीवी की तेज़ चमकती स्क्रीन ही कभी-कभी पूरे कमरे को रोशन कर देती थी। दीदी, जीजू और मैं — तीनों ड्रॉइंग रूम में बैठे हुए थे, टी20 वर्ल्डकप का फाइनल चल रहा था। हवा में टेंशन था, लेकिन उससे ज़्यादा मज़ा। इंग्लैंड बनाम बांग्लादेश — और इंग्लैंड पूरी तरह हावी था।

मैंने पैर फैलाकर सोफे पर बैठते हुए कहा, "ये तो एकतरफा मैच है। इंग्लैंड ही जीतेगा।"
जीजू ने हँसते हुए मेरी तरफ देखा, "अरे वाह, एक्सपर्ट आ गए! तो फिर बता, कितने ओवर में निपटेंगे बांग्लादेश?"

उससे पहले कि मैं कुछ कहता, दीदी ने हल्के से ताना मारते हुए कहा, "बांग्लादेश जीतेगा।"
मैं हँस पड़ा, "दीदी, बांग्लादेश? आप मज़ाक कर रही हैं न?"
जीजू ने भी चुटकी ली, "नाच न जाने आँगन टेढ़ा। तुम्हें मैच का अबकड भी पता है क्या?"

दीदी मुस्कुराईं, लेकिन उनकी आँखों में एक अलग ही आत्मविश्वास चमक रहा था। "आपको तो बहुत पता है न? बस थोड़ी देर में पता चल ही जाएगा कि असली एक्सपर्ट कौन है।"
मैंने हल्का सा मुँह चिढ़ाते हुए कहा, "दीदी रहने दो ना, क्यों बेइज्जती कराओगी अपनी जीजू के सामने? बांग्लादेश के कोई चांस नहीं हैं!"

"तुझे बहुत पता है न?" दीदी ने सिर हिलाते हुए पूछा।

"हाँ, बिलकुल!" मैंने पूरी ठसक से जवाब दिया।

बस, यहीं से शुरू हो गई बहस — तीखी, पर हँसी-मज़ाक से भरी। मैच के आखिरी पाँच ओवर बचे थे। दीदी बोलीं, "ठीक है, एक शर्त लगाते हैं। अगर बांग्लादेश हार गया, तो मैं हार मान लूँगी — जो तुम दोनों बोलोगे, करूँगी। लेकिन अगर तू हारा, तो कल घर के सारे काम मेरी जगह तू करेगा — बिना किसी बहस के!"

मैंने मुस्कराते हुए कहा, "डन! लगी शर्त!"

जीजू ने हाथ जोड़ते हुए कहा, "देखो जी, मैं तो सिर्फ उपमुख्य भूमिका में हूँ। जो भी हारे, मुझे बीच में मत घसीटना।"

"आप टेंशन मत लीजिए जीजू," मैंने पूरी आत्मविश्वास से कहा, "इंग्लैंड ही जीतेगा, 100%।"

दीदी ने एक शातिर मुस्कान के साथ कहा, "ठीक है बेटा, देखते हैं फिर।"
थोड़ी देर बाद उन्होंने आँखें तरेरते हुए कहा, "और याद रखना, अगर हार गया, तो तू कल से नौकर बन जाएगा — मेरी जगह!"

जीजू को मज़ा आ रहा था। वो बोले, "क्या बात है! तुम्हारी जगह मतलब? तुम कहीं जा रही हो क्या?"

दीदी का जवाब बिल्कुल साफ था, "नहीं, मैं तो यहीं रहूँगी। बस तेरी तरह पैर पसारकर टीवी देखूँगी।"

जीजू ने ठहाका लगाया, "सपने अच्छे हैं, पर पूरे नहीं होंगे। क्योंकि तुम हारने वाली हो!"

माहौल में गूंजता हँसी-मज़ाक, चाय की सोंधी ख़ुशबू और क्रिकेट की गूँजती आवाज़ — सब मिलकर इस रात को कुछ अलग ही बना रहे थे। लेकिन अंदर ही अंदर, मेरे मन में एक छोटा सा शक भी उभर रहा था — "कहीं उल्टा न हो जाए..."

पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शर्त लग चुकी थी। और किस्मत अपना खेल शुरू कर चुकी थी...



मैच का रोमांच अपने चरम पर था। पूरा कमरा एक युद्धभूमि बन चुका था — एक तरफ़ मैं और जीजू, इंग्लैंड के कट्टर समर्थक, और दूसरी तरफ़ दीदी, जिनकी पूरी उम्मीद बांग्लादेश पर टिकी थी। बहस के साथ-साथ मज़ाक, तंज़ और शर्तें भी चल रही थीं।

"तो फिर तुम भी शर्त लगा लो!" दीदी ने आँखें नचाते हुए कहा।
"ठीक है," जीजू मुस्कराए, "अगर तुम जीत गई, तो टीवी का रिमोट एक हफ्ते के लिए तुम्हारा। तुम जो चाहोगी, वही चैनल चलेगा, वही सीरीज़ देखनी पड़ेगी। मंज़ूर?"

दीदी ने आत्मविश्वास से गर्दन हिलाई, "हाँ जी! बिलकुल मंज़ूर है।"

मैंने मुस्कराते हुए जीजू की ओर देखा, जैसे पहले ही जीत का जश्न मना रहे हों। मैच का आख़िरी ओवर शुरू हो चुका था। इंग्लैंड को जीतने के लिए कुछ ही रन चाहिए थे, और बांग्लादेश को चमत्कार।

पहली गेंद — छक्का।
"अभी बहुत रन हैं," मैंने कहा, "कोई बात नहीं। एक छक्का कुछ नहीं बिगाड़ता।"

दूसरी गेंद — फिर छक्का।
अब दीदी की आँखों में चमक और चेहरे पर जीत की झलक दिखाई देने लगी। उनकी मुस्कान बढ़ती जा रही थी।
मैं और जीजू अब थोड़ा सीरियस हो चुके थे।
"अबे यार ये क्या हो रहा है..." जीजू ने धीमे से कहा।

तीसरी गेंद — फिर छक्का!
दीदी अब उठकर डांस करने लगीं, जैसे अभी से ट्रॉफी उन्हीं के हाथ में हो।
मैं और जीजू अब गुमसुम हो गए थे। टीवी की स्क्रीन को घूरते हुए हमारी आँखों में निराशा की परछाई उतरने लगी थी। मेरे हाथ अनजाने में ही अपने नाखून चबाने लगे।

चौथी गेंद — और फिर एक और छक्का!
मैच खत्म। बांग्लादेश ने जीत लिया था।

कमरे में जैसे सन्नाटा पसर गया। और उस सन्नाटे को तोड़ती हुई दीदी की खिलखिलाहट गूंज उठी।

"रिमोट दो..." दीदी ने बड़े ही ठाठ से जीजू के हाथ से रिमोट लिया।
"और लोगे मुझसे पंगा?" उन्होंने तिरछी मुस्कान के साथ पूछा।

फिर उनकी निगाह मुझ पर पड़ी।

"क्यों अबकड बाबू? अब करो आराम से घर के सारे काम। सुबह की चाय से लेकर रात का खाना, झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन — सब कुछ। और हाँ, कोई दया की उम्मीद मत रखना, समझे?"

मेरे मुँह से शब्द ही नहीं निकले। मैं बस जमीन को घूरता रहा।

"और एक बात और..." दीदी की आवाज़ थोड़ी और गंभीर हुई।
"मैंने कहा था न — मेरी जगह का मतलब है, 'तुम ही कल घर की अनीता हो'। दिनभर काम करोगे, और रात को अपने जीजू के साथ उनके कमरे में सोओगे भी।"

मैं अवाक रह गया।

"अरे यार! ये मजाक है क्या?" जीजू थोड़े घबरा गए।

"जी नहीं," दीदी ने मुस्कराते हुए कहा, "ये कोई मज़ाक नहीं है। आखिर हारे तो आप भी हैं न? थोड़ी सज़ा तो आपकी भी बनती है। एन्जॉय करो, नयी बीवी।"

मैं और जीजू दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे — कोई रास्ता नहीं था। हार तो हार होती है, और शर्त... शर्त होती है।

इन्हीं ख्यालों में उलझा, कब मेरी आँख लग गई, पता ही नहीं चला। नींद में भी दिमाग में वही सीन घूम रहा था — दीदी की जीत, मेरी हार, और अगला दिन... जब मुझे घर की बहू बनकर सारे काम करने होंगे।

तभी धीरे से दीदी कमरे में आईं। उनका हाथ मेरे सिर पर पड़ा तो मैं थोड़ा हड़बड़ा गया।

"क्या हुआ? किस सोच में डूबे हो?" उन्होंने मुस्कराकर पूछा।

मैंने घबराए हुए स्वर में कहा, "कुछ नहीं... बस कल की थकान लग रही है।"

"हाँ वो तो होगी ही।" दीदी ने सहमति में सिर हिलाया, फिर अचानक चुटकी ली, "अब ऐसे तौलिया लपेटे हुए लेटे रहोगे? चलो, जल्दी से साड़ी पहन लो। क्या बहू ऐसे ही रहती है?"

मैंने नज़रे चुरा लीं। वो हँसने लगीं।

"ठीक है दीदी..." मैं बेमन से मुस्कराया।



तौलिया लपेटे मैं कमरे के कोने में खड़ा था। नींद जैसे पूरी तरह खुल चुकी थी, पर मन में एक अजीब सी झिझक, हल्की शर्म और डर भी था। दीदी ने जब पूछा —
"क्या हुआ?"

मैंने सिर झुका कर धीमे से कहा, "कुछ नहीं... बस ऐसे ही।"

दीदी मुस्कराईं, जैसे उन्हें सब समझ आ गया हो। फिर बोलीं,
"तो फिर अपनी आँखें बंद कर लो।"

मैंने भौंहे चढ़ाईं, पर कुछ कहे बिना आँखें बंद कर लीं। तभी दीदी की चप्पलों की आवाज़ दूर जाती सुनाई दी। शायद वो किसी कमरे में कुछ लेने गई थीं। फिर लौटते हुए कदमों की आहट आई।

"अब प्लीज़ खोलना मत, जैसे बंद की हैं वैसे ही बंद रहने दो।"

मैंने कुछ भी नहीं कहा। तभी हल्के हाथ से दीदी ने मेरी आँखों पर एक नरम कपड़ा बांध दिया। उस कपड़े से आती हल्की सी खुशबू ने मुझे बता दिया कि ये जीजू का रुमाल है — सफेद, इस्तरी किया हुआ, शायद कहीं बाहर जाते वक़्त की तैयारी में रखा गया था।

"कितनी उंगली दिख रही है?" दीदी ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा।

"मुझे क्या दिख रहा है!" मैंने झुंझलाते हुए जवाब दिया।

"तभी तो पूछा है," दीदी ने हँसते हुए कहा। "अब ऐसे ही खड़े रहो। ज्यादा बोले तो ऐसे ही खड़े-खड़े दोपहर हो जाएगी। समझे?"

मैंने धीमे से कहा, "ठीक है दीदी…"

फिर कुछ कपड़े जैसे मेरे हाथ में रखे गए।
"हाथ आगे करो," दीदी ने आदेश दिया।

कुछ नरम-सा, चिकना सा कपड़ा था — शायद रेशमी।

"ये क्या है?" मैंने सहमे हुए स्वर में पूछा।

"ब्लाउज है। लेस वाला है। चुप रहो। मुँह बंद करोगे तो जल्दी निपट जाओगे। वरना ऐसे ही खड़े रहना पड़ेगा।"

फिर दीदी ने ब्लाउज मेरी बांहों में डालना शुरू किया। पीठ पर लगे हुक्स जब उन्होंने बंद किए, तो थोड़ी कसावट सी महसूस हुई।
"दीदी... थोड़ा टाइट है।"

"हाँ, शुरू में ऐसा लगता है। अब तो दिनभर यही पहनना है, तो कुछ तो एडजस्ट करना ही होगा न?"
उनका लहजा न सख़्त था न नर्म — बस एक ठिठोली-भरी ममता जैसा।

फिर उन्होंने मेरी कमर पर पेटीकोट पहनाया। उसका डोरी भी कुछ ज्यादा ही कस के बाँधी।
"ये थोड़ा टाइट ही होता है। वरना दिनभर खिसकता रहेगा।"

अब मैं अजीब से असहज कपड़ों में, आँखों पर पट्टी बाँधे खड़ा था।
मन में एक हिचक, एक बेचैनी थी, लेकिन साथ ही एक गुदगुदी भी।

अब बारी आई साड़ी की।
रेशमी कपड़ा जो दीदी की उँगलियों से सरसराता हुआ मेरी कमर पर लिपट रहा था।
कभी कमर के पास उँगलियाँ चुभतीं, कभी पीठ पर किसी पिन की नोंक, कभी पल्लू को सही करने के लिए छाती तक हाथ ले जाना।

बीस मिनट तक जैसे मैं एक अजनबी दुनिया में खोया रहा — सिर्फ महसूस कर सकता था, देख कुछ नहीं सकता था।

"अब खोल लूँ आंखें?" मैंने धीमे से पूछा।

"अभी नहीं!" दीदी ने चुटकी ली, "अभी पल्लू में पिन लगाना बाकी है। उतरा तो मत कहना कि संभाला नहीं गया।"

मैंने गहरी सांस ली।



फिर उन्होंने पता नहीं कहा कहा पिन लगाए साडी में इतने सरे तो पिन लगाए मेरे ख्याल से काम से काम तो २० फिर उन्होंने जब लगा दिए तब कहा अब ठीक है.फिर बोली एक मिनट हाथ अपने आगे करो मैं समझ गया अब चुडिया "दीदी... प्लीज़ ना... ये मत करो," मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा,

"जीजू मुझे चिढ़ाएंगे... लड़का होकर चूड़ियाँ पहन रहा हूँ..."


पर दीदी को जैसे मेरी दलीलों से कोई फर्क ही नहीं पड़ा। वो मुस्कुराईं और बोलीं,

"चुपचाप रहो। जीजू कुछ कहेंगे या नहीं कहेंगे, पर मैं तो कहूँगी ही कि लड़के होकर भी मैच की ज़रा भी समझ नहीं है! इससे तो अच्छा है तुम रोज़ चूड़ियाँ ही पहन लिया करो, कम से कम कुछ तो स्त्रियोचित समझ आए..."


मैंने लंबी साँस ली और चुप हो गया। कुछ कहने का अब कोई फायदा नहीं था।


फिर दीदी ने धीरे-धीरे एक-एक कर के मेरे दोनों हाथों में चूड़ियाँ पहनाना शुरू किया —

पहले कड़ा, फिर 8 चूड़ियाँ, फिर कड़ा, फिर 8 चूड़ियाँ और एक और कड़ा।


हर चूड़ी के साथ मेरे आत्मसम्मान की एक परत जैसे उतर रही थी।

जैसे-जैसे चूड़ियाँ खनकतीं, मेरे भीतर कुछ भारी-सा महसूस होने लगता।


अब दोनों हाथों में इतनी चूड़ियाँ थीं कि लगभग आधा किलो का वज़न लग रहा था।

हाथ उठते नहीं थे। चूड़ियों की आवाज़ मेरे कानों में गूंजती थी — जैसे हर खनक मुझे याद दिला रही हो कि मैं अब दीदी की ‘शर्त की बहू’ बन चुका हूँ।


"बस, अब एक काम और बाकी है," दीदी बोलीं।


मैंने थक कर कहा, "वो भी कर लो..."


दीदी हँसने लगीं, "अपना मुँह बंद ही रखेगा तो अच्छा रहेगा, वरना लिपस्टिक बिगड़ जाएगी।"


और फिर बिना किसी चेतावनी के दीदी ने लिपस्टिक लगानी शुरू कर दी।

गुलाबी रंग का शेड, चमकदार। उन्होंने कहा,

"ठीक से होंठ कर। जीभ से एक बार गीला कर ले।"


मैंने जैसे-तैसे किया, लेकिन लिपस्टिक का स्वाद कुछ कड़वा-सा था।

"उफ्फ! ये क्या है?" मैंने नाक सिकोड़ते हुए कहा।


"कुछ नहीं, थोड़ी देर में आदत पड़ जाएगी," दीदी ने शरारती मुस्कान के साथ कहा।


अब चेहरे पर लिपस्टिक, हाथों में चूड़ियाँ और बदन पर साड़ी थी।

पर दीदी की योजना यहीं खत्म नहीं थी।


"बस एक काम और, बाबू... प्लीज़," उन्होंने जैसे मनुहार करते हुए कहा।


मेरे बाल लंबे थे — हमेशा से।

कंधों से थोड़े नीचे तक आते थे, और मैं या तो खुले बाल रखता था या पोनी बनाता था। लेकिन आज...


"कभी हाथ नहीं लगाने देते थे न इन बालों को? अब देखो मैं क्या करती हूँ!" दीदी ने हँसते हुए कहा।


फिर शुरू हुआ मेरा बालों में पहली बार 'छोटी' बनाने का अनुभव।

दीदी ने बाल खींच-खींच कर टाइट चोटी बनाई, इतनी कि सिर में दर्द-सा होने लगा।


"दीदी... ज़रा धीरे..."


"बस थोड़ी देर की बात है, फिर आदत हो जाएगी," वो हँसते हुए बोलीं।


फिर उस चोटी में एक सुंदर डिज़ाइनर क्लच लगाया — रंग-बिरंगे फूलों वाला। फिर मेरी तरफ देख कर बोलीं,

"अब खड़े हो जाओ। बस एक काम और रह गया है।"


"दीदी, क्या जान लोगी मेरी?" मैंने झुंझलाते हुए कहा।


"कुछ खास नहीं। बस अपने पैर आगे करो।"


"क्यों?"


"करेंगे या नहीं?" उनका लहजा सख़्त हो गया।


मैंने पैर आगे कर दिए, और उन्होंने 4 इंच की हाई हील्स वाली सैंडल मेरे पैरों में पहनाईं।

फिर हुक लगाया ताकि ठीक से फिट हो जाएं।


पहले तो लगा ये कोई नार्मल सैंडल होंगी। लेकिन जैसे ही खड़ा हुआ —

एक झटका लगा, और मैं गिरते-गिरते बचा।


दीदी ने तुरंत मेरा हाथ थाम लिया,

"अरे संभल के! अब तुम लड़की हो — हर काम आराम से करना होगा, समझे?"


मैं कुछ कह नहीं पाया।

बस साड़ी, चूड़ियाँ, चोटी, लिपस्टिक और हील्स में लिपटा —

मैं अब पूरी तरह से 'घर की अनीता' बन चुका था।


 "दीदी... अब तो प्लीज़, आँखें खोल लूँ?"
मैंने थोड़ी हिचक के साथ धीमे स्वर में कहा। मेरी आवाज़ में थकावट और जिज्ञासा दोनों थे।

दीदी ने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ थामा और बोलीं,
"एक मिनट और... चल, इधर आ।"

उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलाया — मेरी चाल धीमी थी, शायद हील्स और साड़ी की वजह से या शायद उस भारी एहसास के कारण जो हर कदम के साथ दिल पर उतरता था।

एक पल बाद दीदी ने कहा,
"अब मैं तेरी आँखों से रूमाल खोल रही हूँ...
पर तू अपनी आँखें आराम-आराम से खोलना... कोई झटका न लगे!"

मैंने गहरी साँस ली, जैसे खुद को किसी बड़े रहस्य से मिलने के लिए तैयार कर रहा हूँ।

जैसे ही रूमाल हटा और मैंने आँखे धीरे-धीरे खोलीं —
आईने में जो चेहरा दिखा, उसे देखकर मैं सन्न रह गया।

एक लड़की। एक सजी-धजी, संजीदा-सी लड़की... लंबी चोटी, झिलमिलाती साड़ी, गुलाबी होंठ, चूड़ियों की खनक, हाई हील्स और घबराई हुई आंखें।

मैं तो खुद को पहचान ही नहीं पाया।

"क्या हुआ?" दीदी ने चुटकी ली।

मैंने मुँह खोला, कुछ शब्द ढूँढने की कोशिश की,
"दीदी... ये लड़की कौन है?"

दीदी खिलखिलाईं, "तू है नालायक, और कौन? कैसी लगी?"

मैंने सिर झुका कर शरमाते हुए कहा,
"बहुत अच्छी..."

तभी पीछे से आवाज़ आई —
"वैसे ये किसने लड़की के गेटअप में लग रहा है, कमाल का!"

मैंने मुड़कर देखा — जीजू बैठे मुस्कुरा रहे थे।

दीदी ने तुरंत ठिठोली की,
"आज ये आपकी वाइफ है, समझे?"

जीजू बोले,
"मुझे तो मंज़ूर है... इतनी मस्त वाइफ अगर मिलती हो तो!"

मैंने तिरछी नज़रों से देखा और कहा,
"पर मुझे मंज़ूर नहीं है, जीजू!"

और फिर हम सब हँसने लगे।
कमरे में एक मीठा, पारिवारिक मज़ाक और अपनापन फैल गया।

फिर मैंने झिझकते हुए कहा,
"दीदी, अब ये सब उतर दूँ?"

पर दीदी ने माथा पकड़ लिया,
"क्या दिमाग सही है तेरा? इतनी मेहनत से तुझे सजाया, और अब तू सब उतार देगा? जब तक मैं ना कहूँ, कुछ नहीं उतरेगा! समझा?"

फिर आँख दबा कर बोलीं,
"इतनी मेहनत से तैयार किया है... एक फोटो तो बनता है!"

मैंने सिर हिलाते हुए कहा,
"खींच लो..."

"बस खींच लो नहीं... उतरने का नाम भी नहीं लेना अब। आज पूरा दिन तू 'अनीता' है। जा, सारे काम कर — चाय से लेके बर्तन तक! कल सुबह जब सूरज निकलेगा, तब सोचेंगे कि फिर से 'किशोर' बनाना है या नहीं!"

फिर मैंने तंज कसा,
"क्या जीजू, अपनी नई-नवेली दुल्हन से काम करवाते आपको शर्म नहीं आएगी?"

दीदी की हँसी छूट गई,
"बात तो सही है!"

जीजू भी मुस्कराते हुए बोले,
"हमें तो पहले सुहागरात मना लेनी चाहिए थी!"

दीदी शरारत से बोलीं,
"चलो आज तुम्हारी सुहागरात ही करवा देती हूँ — फिल्मी स्टाइल में!"

और फिर... सब कुछ बदल गया।

दीदी ने पूरा कमरा सजा दिया। मोमबत्तियाँ, फूल, म्यूज़िक — जैसे कोई सेट डिजाइन कर रही हों।
मुझे एक दुल्हन की तरह फिर से सजाया गया — और मैं फिर से तैयार हुआ, 'सुहागरात' के लिए...

लाल लिपस्टिक, चमकीली बिंदी, भारी ज्वेलरी, और उस पर भारी लाल साड़ी।

दीदी ने मेरी साड़ी का पल्लू खींचकर बड़ा सा घूँघट बनाया,
और धीरे से मुझे बिस्तर पर बिठाया —
जैसे कोई असली दुल्हन बैठाई जाती है।

कमरे में हल्का-सा इत्र फैला था। माहौल में हल्की सरसराहट थी।

कमरे की रौशनी हल्की थी, पर्दों से छनती हुई चांदनी अंदर आ रही थी। मैं पलंग पर बैठा था, सिर झुकाए, और साड़ी का बड़ा-सा घूँघट मेरे चेहरे को ढँक रहा था। पायल की मीठी खनक, चूड़ियों की छमछम और कमरबंद की सरसराहट के बीच मैं फिल्मी दुल्हन की तरह सजकर बैठा था।

दीदी डायरेक्टर बन गई थीं — हाथ में मोबाइल कैमरा और चेहरे पर एक शरारती मुस्कान।

"जीजू! अब धीरे-धीरे घूँघट उठाना है... और किशोर तू शर्माना मत भूलना, समझे? अब एक्टिंग चालू!"

हम दोनों एक-दूसरे को देखकर हँस पड़े, पर दीदी के आदेश पर फिर से किरदार में लौट आए।
मेरे चेहरे पर बनावटी संकोच था, और जीजू के चेहरे पर ड्रामे वाली गंभीरता।
कुछ पल हमने "फिल्मी सुहागरात" की रिहर्सल की, वीडियो कैमरा चलता रहा।

लेकिन कुछ देर में हम तीनों हँसते-हँसते थकने लगे।

दीदी ने टीवी का रिमोट एक तरफ फेंका और बोलीं,
"बहुत हो गई सुहागरात... अब नयी बहु, टाइम फॉर होमवर्क!"

मैंने हैरानी से पूछा,
"होमवर्क?"

दीदी ने मुस्कुरा कर कहा,
"हाँ! चलो, बढ़िया-सी चाय बनाओ और हमारे लिए लेकर आओ।"

अब तक साड़ी, ज्वेलरी, चूड़ियाँ, पायल और हाई हील्स के साथ चलने की आदत नहीं हुई थी, लेकिन मैं चुपचाप उठ गया।
हर कदम पर चूड़ियों की छमछम और पायल की टुनटुन सुनाई देती थी।

छोटे-छोटे कदमों से, खुद को गिरने से बचाते हुए, मैं किसी असली बहू की तरह धीरे-धीरे किचन की ओर बढ़ा।

चाय बनाना तो आसान था, लेकिन असली डर था — उसे ट्रे में सजाकर दीदी-जीजू के बैडरूम तक ले जाना... उस गेटअप में!

प्लॉट में कहीं कोई देख न ले, दिल की धड़कनें तेज़ थीं।
ट्रे काँप रही थी, हाथों में चूड़ियाँ खनक रही थीं, और हर कदम साड़ी में उलझता-सा लगता था।

फिर भी, किसी तरह खुद को सँभालते हुए मैं उनके पास पहुँचा।

दीदी टीवी पर अपना पसंदीदा "सास-बहू" वाला सीरियल देख रही थीं — रिमोट उनके हाथ में था।
जीजू बोर हो रहे थे — शायद वही पुरानी कहानी देखकर थक चुके थे।

मैंने ट्रे आगे बढ़ाई।
"चाय तैयार है..."
दीदी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और चुटकी ली,
"वाह! हमारी बहू तो सच में पूरी ट्रेनिंग में आ गई है!"

मैं झेंप गया, और खुद भी एक कप लेकर उनके पास बैठ गया।

उस शाम हम तीनों ने मिलकर चाय पी, हँसी-मज़ाक किया और दीदी के बनाए वीडियो को एडिट करना शुरू किया।

वो वीडियो जो शरारत भरा था, हँसी से भरा था, और शायद हमारे रिश्तों की गर्माहट को सबसे अच्छे तरीके से दिखाता था।

सुबह की हल्की धूप खिड़की से अंदर झांक रही थी, जैसे किसी नये नज़ारे की दस्तक दे रही हो। पर आज का दिन वैसा नहीं था — आज कुछ खास था।

मैं चाय का कप लेकर ड्रॉइंग रूम में बैठा ही था कि दीदी तेज़ी से कमरे में आईं, उनकी आँखों में चमक थी।

"उठिए जया जी, आज बहुओं का पहला दिन है," उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई।

कमरे के कोने में बैठे जीजाजी ने धीरे से आँखें खोलीं, और फिर आँखें मीच लीं — मानो सपना देख रहे हों।

"अब उठिए भी! आपको तो आज अपने हाथों से सास-बहू सीरियल का रिमोट छीनना है।"

मैंने हँसी रोकते हुए कहा, "दीदी, इन्हें नहलाकर भेजो, फिर मेकअप और फिर साड़ी..."

जीजाजी ने धीरे से कहा, "अरे यार, मज़ाक में शर्त लगाई थी, इतना सीरियस ले लिया तुम लोगों ने?"

दीदी ने मुस्कराकर कहा, "मज़ाक में ही सही, पर शर्त तो शर्त होती है। और जब आपने मुझे 'जया बहू' कहा था, तो अब उसे निभाना पड़ेगा।"


रूपांतरण — जब जीजाजी बने ‘जया’

नहाने के बाद जीजाजी को दीदी ने कमरे में बैठाया। टेबल पर पहले से ही सब सजा रखा था — क्रीम, मेकअप ब्रश, आईलाइनर, बिंदी, और एक सिंदूरी रंग की भारी बनारसी साड़ी।

"चलो, सबसे पहले चेहरे को थोड़ा चमकदार बनाते हैं," दीदी ने कहा और बेस मेकअप लगाना शुरू किया।


जो आपने अभी पढ़ा, वो तो बस शुरुआत थी — कहानी का सबसे रोमांचक हिस्सा अभी बाकी है!
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