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बालों की कीमत – भाग 1: पहचान
कॉलेज का पहला पीरियड शुरू हो चुका था। क्लासरूम की खिड़की से हल्की धूप अंदर आ रही थी — गोल मेज़ों पर किताबें, कॉपियाँ और कुछ अधूरी नींदें पसरी हुई थीं। जैसे ही घंटी बजी, सभी की नज़र एक ही दिशा में गई।
दरवाज़े पर वह खड़ी थी — अनीता।
उसका चेहरा वैसा ही था जैसा हमेशा — गोरा, चिकना, बिना किसी मेकअप के भी साफ़ और चमकदार। मगर जो चीज़ हर बार उसे सबसे अलग बनाती थी, वो थे उसके बाल।
लंबे, घने, चमकते हुए कोयले जैसे काले बाल जो उसकी पीठ से भी नीचे, लगभग उसके नितंबों तक जाते थे। बालों की ये नदी जैसे उसके चलने के साथ-साथ लहराती थी, फिसलती थी, बहती थी। हर लहर में एक किस्सा था, हर चमक में आत्मविश्वास।
वो रोज़ अपने बालों को बड़े प्यार से सवारती। कभी खुले, कभी ढीली चोटी, कभी जुड़ा। लेकिन सबसे ख़ास बात — उसके बालों में कोई कट, कोई फ्रिंज, कोई लेयर नहीं था। एकदम प्राकृतिक सुंदरता। जैसे बचपन से अब तक बिना कैंची छुए वो बाल बस बढ़ते ही चले गए हों।
क्लास में जब वो चलती, लगता जैसे समय थोड़ी देर को रुक गया हो। लड़कियाँ देखती थीं, कुछ हैरानी से, कुछ जलन से। लड़के धीरे से फुसफुसाते — "यार, उसके बाल तो बस..." और फिर कुछ अधूरी बातें।
मगर अनीता को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वो अपनी दुनिया में मग्न थी। किताबों, खेल और अपने बालों में।
✦ उसका बालों से रिश्ता
एक दिन कैंटीन में बैठे-बैठे मैंने उससे पूछा था, "तू कभी बाल कटवाएगी?"
उसने हँसते हुए सिर हिलाया, "कभी नहीं! ये मेरी पहचान हैं।"
"इतना प्यार है?" मैंने छेड़ा।
"प्यार नहीं," उसने गंभीर होकर कहा, "इनमें मेरी माँ की याद है। वो रोज़ बचपन में मेरे बालों में तेल लगाती थी, चोटी बनाती थी, कहती थी — ‘तू जितनी लंबी होगी, तेरे बाल उतने बड़े होंगे।’ अब माँ नहीं है... लेकिन बाल हैं। मैं कैसे काट दूँ?"
मैं चुप हो गया।
उसकी वो बात सीधी दिल पर लगी थी।
✦ सबकी नज़रें
लड़कियाँ उसकी तारीफ़ भी करतीं और पीठ पीछे कुछ और भी कहतीं।
"इतना क्या घमंड है उसके बालों पर?"
"हर फोटो में तो बस बाल-बाल ही दिखते हैं!"
"कभी फ्रिंज तो कटवा, इतना पुराना स्टाइल कौन रखता है आजकल?"
मगर सच यही था — वो जैसी थी, वैसी ही बिलकुल संपूर्ण थी।
उसका हर दिन एक स्टेटमेंट होता था। बिना कहे, वो बहुत कुछ कह जाती थी।
उसके बाल उसके शब्द थे। उसकी पहचान। उसका आत्मबल।
और शायद... इसी पहचान से कुछ लोगों को चिढ़ होने लगी थी।
भाग 2: ईर्ष्या की आग
अनीता की खूबसूरती सिर्फ उसके चेहरे या पहनावे में नहीं थी, बल्कि उसकी असली पहचान थी—उसके घने, चमकते, कमर से भी नीचे तक लहराते बाल। हर सुबह स्कूल में जब वह धीमे-धीमे अपने क्लास की ओर बढ़ती, उसके बालों की लहराती चमक पूरे गलियारे में जैसे रोशनी बिखेर देती। हर लड़की की नज़र उसकी पीठ पर पड़े उन बालों पर टिक जाती, जो बिना किसी क्लिप या बैंड के आज़ादी से झूलते रहते।
क्लासरूम में वह हमेशा पहली बेंच पर बैठती थी। उसकी बेंच के पीछे बैठने वालों का ध्यान उसके नोट्स पर कम और बालों की बनावट पर ज़्यादा होता था। बालों में कोई तेल नहीं, फिर भी वो ऐसे चमकते मानो हर दिन किसी पार्लर में जाकर सजे हों। न कोई रूसी, न दोमुंहे बाल—एकदम परफेक्ट। और सबसे बड़ी बात—अनीता ने कभी बालों में किसी प्रकार की कटिंग नहीं करवाई थी। न बैंग्स, न लेयर्स। बस एक सीधी, घनी चोटी जो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी थी।
पर हर चमकती चीज़ अपने साथ कुछ साये भी लेकर आती है।
सुमन, जो अनीता की सहेली थी, अक्सर उसकी तारीफ करते हुए भी उसके बालों को ग़ौर से देखती रहती। एक दिन जब अनीता वॉशरूम में थी, तब सुमन ने उसके हेयर ब्रश को उठाकर सूंघा तक। “क्या तेल लगाती है ये? बाल तो जैसे रेशम हों,” उसने धीमे से कहा, लेकिन उस आवाज़ में तारीफ से ज़्यादा जलन थी।
रीना, जो आमतौर पर सबसे ज़्यादा तेज़-तर्रार मानी जाती थी, बोली, “बस एक बार उसे छोटे बालों में देखना है। फिर देखो, कैसे उसकी ये शान उतरती है।”
उन दोनों के बीच एक अधूरी इच्छा और गहराती जलन जन्म ले चुकी थी।
एक दिन लंच टाइम में बात निकली, “अनीता! यार बाल कटवा लो न थोड़ा, गर्मी बहुत लगती होगी!”
अनीता मुस्कुरा दी, “काटना होता तो बहुत पहले कटवा चुकी होती। बाल मेरे आत्मविश्वास की तरह हैं—जैसे हैं, वैसे ही अच्छे हैं।”
उसका ये जवाब, उसके आत्मविश्वास से लबालब अंदाज़, बाकियों को और चुभ गया। खासकर उन लड़कियों को जिनके बाल टूटते, बिखरते और झड़ते रहते थे। अब यह सिर्फ जलन नहीं रह गई थी। यह एक मिशन बन चुका था।
अगले हफ्ते स्कूल में खेल दिवस की घोषणा हुई। और जैसे ही यह बात रीना और सुमन को पता चली, उन्होंने तुरंत मुझे—राहुल को—अपने साथ मिलाया। मैं खेलों में अच्छा था, और अनीता को भी काफ़ी करीब से जानता था।
रीना ने कहा, “देखो राहुल, तुम उसके दोस्त हो, पर ज़रा सोचो, अगर वो बाल कट जाएँ तो कैसा लगेगा? थोड़ा इंसाफ़ होगा हमारे साथ भी।”
मैंने हँस कर टाल दिया, “पागल हो तुम लोग।”
सुमन ने मुझसे थोड़ा गंभीर होकर कहा, “बस एक शर्त रखनी है, और अगर वो हार जाए, तो वो तुम्हारी बात मानेगी।”
उस दिन शाम को, जब मैं स्कूल के ग्राउंड में प्रैक्टिस कर रहा था, अनीता आई और हमेशा की तरह जोशीले अंदाज़ में बोली, “राहुल, टेनिस में हाथ आज़माना है? देखते हैं किसमें कितना दम है।”
यहीं से सब कुछ शुरू हुआ।
मैंने मुस्कराते हुए कहा, “ठीक है, पर एक शर्त होगी। अगर हार गई तो मेरी एक बात माननी पड़ेगी। बिना सवाल पूछे।”
वो थोड़ी चौंकी, लेकिन फिर आत्मविश्वास से बोली, “कभी नहीं हारी, और अब भी नहीं हारूँगी। शर्त मंज़ूर है।”
शायद उसे अंदाज़ा नहीं था कि यह शर्त सिर्फ एक मैच नहीं, उसकी पहचान पर भी भारी पड़ने वाली है।
भाग 3: शर्त की शाम
खेल दिवस आ गया था। स्कूल के मैदान में रंग-बिरंगे झंडे लहरा रहे थे। बच्चे हँसी-मज़ाक कर रहे थे, टीचर्स व्यवस्थाओं में लगे थे, और स्टूडेंट्स अपनी-अपनी प्रतियोगिताओं की तैयारी में जुटे थे। पर मेरे दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था—वो शर्त, जो अब केवल एक मज़ाक नहीं रह गई थी।
अनीता हमेशा की तरह सफेद स्पोर्ट्स ड्रेस में आई थी। उसके बाल आज भी खुले थे—न कोई क्लच, न कोई पोनीटेल। जब वह मैदान में आई, तो सबकी नज़रें एक बार फिर उसके बालों पर टिक गईं। लेकिन मैं जानता था कि आज का दिन उसके लिए अलग होगा। बहुत अलग।
मैंने सुमन और रीना को एक कोने में बुलाया और कहा, “तैयारी पूरी है?”
सुमन ने फौरन जवाब दिया, “उसकी स्कूटी की एयर पाइप थोड़ी ढीली कर दी है। उसे पता नहीं चलेगा, लेकिन इंजन चालू होने में टाइम लगेगा।”
रीना हँसते हुए बोली, “आज वो देर से पहुँचेगी, और बिना वार्म-अप के मैच हारेगी। बस तुम शर्त याद दिला देना।”
मैंने थोड़ा संकोच करते हुए सिर हिलाया। मन में एक अपराध-बोध था, लेकिन उस जलनभरे उत्साह ने उसे दबा दिया।
मैच शुरू होने का समय नज़दीक आ रहा था। सब प्रतियोगी पहुँच चुके थे, पर अनीता का कोई अता-पता नहीं था। पांच मिनट... दस मिनट... पंद्रह मिनट बीत चुके थे।
फिर वह दौड़ती हुई आई—साँसें तेज़, चेहरा पसीने से भीगा हुआ। बाल अस्त-व्यस्त हो चुके थे, आँखों में घबराहट साफ दिख रही थी।
"सॉरी... मेरी स्कूटी ने काम करना बंद कर दिया," वह हाँफते हुए बोली, "मैं भाग कर आई हूँ..."
पर समय किसी का इंतज़ार नहीं करता। नियमों के अनुसार, देर से आने पर 2 अंकों की कटौती होती थी। मैच शुरू हुआ, और पहली बार अनीता की पकड़ ढीली दिखी। उसकी सर्व उतनी तेज़ नहीं थी, मूवमेंट थकी हुई और फ़ोकस बिखरा हुआ।
मैंने देखा—हर पॉइंट के साथ उसका आत्मविश्वास दरक रहा था। आख़िरकार, सेट खत्म हुआ। और नतीजा? अनीता हार गई थी।
भीड़ तालियाँ बजा रही थी, लेकिन अनीता जमीन पर बैठ गई। उसने पानी की बोतल उठाई, पर उसके हाथ काँप रहे थे। वह हार को पचा नहीं पा रही थी।
मैच खत्म होने के बाद, मैं उसके पास गया। वो कुछ नहीं बोली। बस एक खाली-सी नज़र से मुझे देखा। मैंने धीरे से कहा, “शर्त याद है न?”
उसने बिना कुछ कहे सिर हिलाया।
अगली सुबह
अनीता क्लास में आई। शांत, गुमसुम। उसका चेहरा बेजान लग रहा था। किसी से ज़्यादा बात नहीं की। और फिर, लंच टाइम में वो मेरे पास आई।
"जो करना है, कर लो," उसने धीमी आवाज़ में कहा।
मैंने उसकी तरफ देखा। उसके बाल आज भी वैसे ही खुले हुए थे। खूबसूरत, चमकते, लहराते हुए।
"आज रात 8 बजे मेरे घर आ जाना," मैंने कहा।
उसने कुछ नहीं पूछा। न 'क्यों', न 'क्या होगा'। बस धीरे से 'ठीक है' कहा और चली गई।
पर मैं देख सकता था—उसकी चाल में अब वो आत्मविश्वास नहीं रहा। जैसे किसी ने उसके भीतर कुछ तोड़ दिया हो।
भाग 4: एक रात, एक फ़ैसला
रात के ठीक आठ बजे, दरवाज़े की घंटी बजी।
मैंने दरवाज़ा खोला, और अनीता को देखा—वैसी अनीता जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी, पर आज की उसकी सुंदरता में एक अजीब-सी उदासी घुली हुई थी।
उसने एक काली प्रिंटेड टॉप पहन रखी थी, साथ में घुटनों से ऊपर तक जाती स्कर्ट, जो उसकी टॉप से मेल खा रही थी। लेकिन सबसे ज़्यादा नज़रें खींच रहे थे उसके बाल—खुले, बिना किसी क्लिप या रबर बैंड के, उसकी गर्दन और कंधों पर लहराते हुए, बिल्कुल किसी परियों की कहानी की राजकुमारी जैसे।
वह चुपचाप अंदर आ गई। मैंने एक सौम्य मुस्कान के साथ कहा, “तुम बहुत सुंदर लग रही हो।”
उसने बस हल्का-सा सिर हिलाया। मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखों की नमी उस कोशिश को धो रही थी।
मैंने उसे कुछ खाने-पीने को दिया। वह सोफे पर बैठी थी, और उसकी उँगलियाँ बार-बार उसके बालों को छू रही थीं—शायद आख़िरी बार उन्हें महसूस कर लेने की बेचैन कोशिश।
मैंने धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हारे बाल वाकई कमाल के हैं। सिल्क से भी ज़्यादा मुलायम, और वो घना झुरमुट… एकदम परियों जैसा।”
वो कुछ पल के लिए मुस्कराई। शायद उसके बालों की तारीफ हमेशा उसे सुकून देती थी।
लेकिन फिर मैंने कहा, “सभी लड़कियाँ तुम्हें छोटे बालों में देखना चाहती हैं।”
उसकी साँसें अचानक तेज़ हो गईं। उसने मेरी तरफ देखा, उसकी आँखों में डर और सवाल दोनों थे।
“मैंने कभी अपने बाल नहीं कटवाए,” उसने धीरे से कहा, “यह मेरा अभिमान है। मेरी पहचान... पर वे लड़कियाँ बस जलती हैं मुझसे।”
मैंने नज़रे झुका लीं और कहा, “माफ़ करना, अनीता। लेकिन शर्त...”
“...शर्त तो निभानी होगी।” उसने मेरी बात पूरी की।
वह कुछ पल के लिए चुप रही। फिर खड़ी हो गई। कमरे के कोने में रखी एक बड़ी सी कुर्सी की तरफ इशारा किया और बोली, “शायद यही मेरी किस्मत है।”
उसकी आवाज़ टूट रही थी।
मैंने कुर्सी को शीशे के सामने खींच दिया, ताकि वह हर पल को देख सके—अपने बालों का अंत, अपनी पहचान का एक नया रूप।
वह बैठ गई। उसकी उँगलियाँ अब बालों को बार-बार सहला रही थीं, जैसे उनसे विदा ले रही हो।
मैंने कैमरा सेट किया—सिर्फ इसलिए नहीं कि किसी को दिखाना था, बल्कि ताकि ये लम्हा हमेशा के लिए क़ैद हो जाए।
अब मैंने धीरे से उसके बालों में लगी मोगरे की माला निकाली। उसकी ख़ुशबू पूरे कमरे में फैल गई। फिर मैंने उसकी चोटी को धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। बाल एक-एक कर उसके कंधों पर बिखरते चले गए—एक रेशमी झरना, जैसे काले बादल ज़मीन पर उतर आए हों।
“तैयार हो?” मैंने पूछा।
उसने कुछ नहीं कहा—बस अपनी आँखें बंद कर लीं। उसके गालों पर एक गर्म आँसू फिसल कर गिरा।
मैंने कंघा लिया और उसके माथे के ठीक ऊपर से बालों की एक बड़ी लट निकाल कर उसकी आँखों के सामने लटका दी।
“ये सबसे पहले जाएगा,” मैंने कहा।
कैंची की पहली ‘चक-चक’ कमरे में गूँजी और बालों का पहला गुच्छा फर्श पर गिर गया।
वो चुप थी। लेकिन उसकी आँखें सब बोल रही थीं—वो डर, वो अपमान, वो टूटा हुआ अभिमान।
मैंने उसके बालों को तीन हिस्सों में बाँटा—पीछे, दाएँ और बाएँ।
अब बारी थी उस हिस्से की, जो उसे सबसे ज़्यादा प्यारा था—उसकी पीठ तक झूलते लंबे बाल।
मैंने बिना ज़्यादा सोचते हुए, एक बार में ही पीछे के हिस्से को गर्दन तक काट दिया।
"छ्र्रर्र..." कैंची की आवाज़ और बालों के गिरने की हल्की ध्वनि—उसके लिए यह सज़ा थी, और मेरे लिए एक खेल।
अनीता काँप रही थी। उसने कभी खुद को इतना असहाय महसूस नहीं किया होगा।
अब मैंने उसके दाईं ओर के बाल काटे, और फिर बाईं ओर के।
उसके गोद में बालों का ढेर जमा हो चुका था। वह हाथों से उन्हें पकड़ रही थी... जैसे वो रेत की तरह फिसल रहे हों और वह उन्हें रोकने की कोशिश कर रही हो।
आख़िर में, मैंने उसके पूरे सिर के बाल एक इंच तक छोटे कर दिए—एकदम छोटे, बस थोड़ा सा फ्रिंज आगे की ओर छोड़ दिया।
मैंने धीमे स्वर में कहा, “अनीता, अब तुम जा सकती हो।”
वह उठी। फर्श पर गिरे बालों की तरफ देखा, फिर शीशे में अपने नए रूप को देखा। एक आँसू और गिरा।
और फिर वो दौड़ती हुई बाहर निकल गई।
भाग 5: बदलाव की शुरुआत
अगली सुबह स्कूल में सबकुछ वैसा ही था—वही घंटियाँ, वही टीचर्स की चहलकदमी, वही दोस्तियों की कानाफूसी, वही होमवर्क की शिकायते... लेकिन एक चीज़ बदल चुकी थी। या कहिए, एक इंसान।
क्लास में हलचल थी। सबको किसी का इंतज़ार था। लड़कियाँ आपस में फुसफुसा रही थीं, लड़के ज़्यादा चुप थे, और कुछ चेहरों पर ऐसा भाव था जैसे कोई बहुत बड़ा नाटक शुरू होने वाला हो।
तभी दरवाज़ा खुला।
अनीता आई।
लेकिन वह वो अनीता नहीं थी जिसे सब जानते थे।
आज उसके बाल नहीं लहरा रहे थे, न ही उसकी पीठ पर कोई झरना सा लटक रहा था। उसकी गर्दन अब साफ़ दिख रही थी, और माथे पर एक छोटा-सा फ्रिंज उसका चेहरा ढँकने की नाकाम कोशिश कर रहा था। बाल बहुत छोटे थे—बस एक इंच के आस-पास, पूरी तरह कटे हुए, जैसे किसी ने तेज़ हवा में सबकुछ उड़ाकर रख दिया हो।
क्लास में सन्नाटा छा गया।
हर कोई उसकी ओर देख रहा था।
कुछ की आँखों में हैरानी थी, कुछ की मुस्कान में जीत की मिठास, और कुछ की आँखों में... सहानुभूति।
सुमन धीरे से फुसफुसाई, “ओह माय गॉड… ये तो वाकई कटवा बैठी।”
रीना ने मुस्कुरा कर कहा, “अब सब बराबर हैं।”
पर मैं… मैं चुप था।
मैंने देखा—अनीता का चेहरा शांत था, लेकिन उसकी आँखों में तूफ़ान था। उसने क्लास के किसी भी व्यक्ति से आँखें नहीं मिलाईं। बस सीधी अपनी सीट पर जाकर बैठ गई। जैसे कह रही हो, "हाँ, मैं टूटी हूँ, लेकिन मैं भागी नहीं। मैं आई हूँ—नई, बदली हुई, पर खड़ी हुई।"
कुछ पल बाद टीचर आईं और पढ़ाई शुरू हुई। पर किसी का ध्यान किताबों में नहीं था। सबकी नज़रें बार-बार अनीता की ओर घूम जाती थीं।
मध्यांतर में, जब मैं अपनी सीट से उठा और उसके पास गया, तो वह चुपचाप किताब पलट रही थी।
“अनीता…” मैंने धीरे से कहा।
उसने मेरी तरफ देखा। उसकी आँखें लाल थीं, लेकिन उनमें आँसू नहीं थे। उनमें एक ठंडी सख़्ती थी, जैसे लावा अंदर से जम गया हो।
“क्या?” उसने नपे-तुले शब्दों में पूछा।
“मुझे माफ़ कर दो,” मैंने कह दिया।
वह कुछ सेकंड तक मुझे देखती रही। फिर उसने किताब बंद की, और धीमे स्वर में कहा—
“तुमने मेरे बाल काटे, ठीक है।
पर तुमने जो काटा है, वो सिर्फ बाल नहीं था—वो मेरा गर्व था, मेरी पहचान, मेरा बचपन, मेरी माँ की उंगलियाँ जो हर रविवार उन्हें गूंथती थीं… मेरी हर वो बात जो मुझमें ‘मैं’ थी।
तुमने मुझे बदला नहीं… तुमने मुझे जला दिया। अब मैं जो भी बनूँगी, वो राख से बनूँगी। और राख में आग होती है।”
उसके शब्द तीर की तरह लगे।
मैं कुछ कह नहीं पाया।
उस दिन, अनीता ने स्कूल की सभा में पुरस्कार भी लिया—टेनिस में दूसरा स्थान। लेकिन उसने ट्रॉफी नहीं देखी, ना किसी कैमरे की तरफ़ देखा। उसका सिर ऊँचा था, लेकिन कारण अब कुछ और था—अब वह सिर गर्व से नहीं, बल्कि हार की स्वीकारोक्ति और पुनर्जन्म की शुरुआत से ऊँचा था।
समाप्ति नहीं, आगाज़
वक़्त बीता।
लोग भूल गए उस दिन को। बाल फिर बढ़ गए, नए स्टाइल आए, और स्कूल की गपशप आगे बढ़ गई।
पर एक चीज़ नहीं बदली—अनीता की आँखें।
वो अब मुस्कुराती थी, पर उसकी मुस्कान में एक ठंडापन था।
वो अब बात करती थी, पर उसकी आवाज़ में एक लहर नहीं, एक दीवार थी।
क्योंकि वह अब पहले वाली अनीता नहीं थी।
अब वह खुद को बालों से नहीं, अपने आत्मसम्मान से पहचानती थी।
और शायद... यही थी बालों की असली क़ीमत।
स्कूल की घंटी बजी और सब कुछ पहले जैसा लग रहा था—कक्षाएं, शोर, दोस्तियाँ—लेकिन कुछ बदला था। अनीता बदली हुई लग रही थी। उसकी चाल में अब पहले जैसी शोखी नहीं थी, लेकिन आँखों में एक नई सख़्ती और दृढ़ता थी। उसके कटे हुए बालों की वजह से सबकी नज़रों में वह एक चुटकुला बन चुकी थी, पर वह हँसने वालों में शामिल नहीं हुई। वह सिर्फ देख रही थी... चुपचाप... ठंडे, स्थिर नज़रों से।
चुप्पी में पनपता बदला
जिस दिन उसके बाल कटे थे, वह केवल उसका अपमान नहीं था—वह उसके आत्म-सम्मान, उसकी पहचान का बलिदान था। और यह अनीता कभी नहीं भूलेगी। लेकिन वह बदला भी वैसे ही लेना चाहती थी—शांत, संगठित, और गहराई से।
पिछले हफ्ते वह किसी से ज़्यादा नहीं बोली थी। लेकिन इस हफ्ते, उसने अचानक से क्लास की कुछ लड़कियों को अलग-अलग बुलाना शुरू किया।
पहली थी सुमन।
"तुम्हें मुझसे जलन थी, है ना?" अनीता ने सीधा पूछा।
सुमन सकपका गई, "नहीं अनीता, ऐसा कुछ नहीं…"
"झूठ मत बोलो," अनीता की आवाज़ सख्त हो गई। "अब उस जलन का स्वाद खुद चखो। चलो, पार्लर चलते हैं।"
उसने सुमन के सामने शर्त रखी—या तो वह अनीता के कहे अनुसार बाल कटवाए या पूरी क्लास को सच्चाई बता दे कि उसने साजिश में हिस्सा लिया था।
सुमन डर गई। उसने चुपचाप अनीता के साथ जाकर अपने घने बालों को कंधे तक कटवा लिए।
फिर रीना, पूजा, और बाकी लड़कियाँ—एक-एक कर सबको अनीता ने बारी-बारी से वही चुप शर्त दी। और एक-एक कर सबकी चोटी गिरती गई। हर कट में अनीता के अंदर की चोट थोड़ी भरती गई।
अब मेरी बारी थी
जो आपने अभी पढ़ा, वो तो बस शुरुआत थी — कहानी का सबसे रोमांचक हिस्सा अभी बाकी है!
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