📝 Story Preview:
📘 सच की चोटी
एक मर्द की गृहस्थ यात्रा
🧾 Table of Contents
अध्याय 1: ताना
अध्याय 2: श्राप
अध्याय 3: बगावत और बाल कट
अध्याय 4: सज़ा और विस्तार
अध्याय 5: खुद से हार
अध्याय 6: ऑफिस का तमाशा
अध्याय 7: ऊँची एड़ी का बदला
अध्याय 8: समय की साड़ी में लिपटी समझदारी
अध्याय 1: ताना
दोपहर का वक्त था। गर्मी कुछ कम हो चली थी, लेकिन मंदिर के संगमरमर की सीढ़ियाँ अब भी तप रही थीं। हल्की हवा चल रही थी, जिससे मंदिर के पास लगे पीपल के पत्ते सरसराने लगे थे। मंदिर के आँगन में धूप और छांव की लहरें फैली थीं।
Anita, हल्के गुलाबी रंग की साड़ी में थी — उस पर सफेद फूलों की प्रिंट थी। माथे पर छोटी सी बिंदी, और गले में सिंपल मोती की माला। बाल उसकी गर्दन तक थे, साफ-सुथरे और खुले हुए। चेहरे पर हल्की थकावट थी लेकिन आंखों में एक स्थिरता — जैसे वो कुछ कहे बिना बहुत कुछ सह चुकी हो।
Santosh, सफेद कुर्ता और हल्की ग्रे चूड़ीदार में था। चेहरा तना हुआ, फोन बार-बार देखता हुआ, जैसे पूजा में नहीं, कहीं और दिमाग हो।
दोनों मंदिर के अंदर जाने से पहले हाथ में नारियल और प्रसाद लिए खड़े थे।
तभी एक महिला, जिसकी उम्र कोई तीस के आसपास रही होगी, मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ती दिखी। नीली सिल्क की साड़ी में लिपटी हुई, बाल कमर से भी नीचे तक — चमकदार, घने और एक खूबसूरत जूड़े में बंधे हुए। उसकी चाल में आत्मविश्वास था, मानो वो जानती हो कि लोग उसकी ओर देख रहे हैं।
Santosh की नजरें उस पर टिक गईं। उसने बिना कोई मौका गंवाए Anita की ओर झुककर कहा —
"देखा? ऐसे बाल होने चाहिए एक औरत के। कितने सुंदर लगते हैं ना? तुम भी रख सकती थी।"
Anita एक पल के लिए चुप रही। फिर उसने धीरे से अपने बालों को कान के पीछे किया और आंखों में सीधा देखती हुई बोली —
"सुंदर लगते हैं, ये तो ठीक है। पर इन्हें रोज़ सँभालना, धोना, सुखाना, उलझने से बचाना — ये सब दिखता नहीं ना तुम्हें?"
Santosh ने नज़रे फेर लीं, थोड़ा हँसा और बोला —
"इतना तो कर ही सकती हो, दिनभर फुर्सत में रहती हो। तुम्हें कौन-सा ऑफिस जाना होता है?"
Anita के चेहरे से मुस्कान एक पल में गायब हो गई। वो कुछ कहने ही वाली थी, लेकिन खुद को रोक लिया।
वो जानती थी, Santosh को ताना मारना पसंद है — खासकर जब वो अपने आप को 'सही' साबित कर सके। पर आज उसके शब्दों में कुछ चुभन थी — वो चुभन जो उसके अधूरे सपनों और कुचले आत्मसम्मान को फिर से कुरेद रही थी।
Anita की आवाज धीमी थी लेकिन साफ़ —
"हाँ, घर की ज़िम्मेदारी में समय नहीं लगता, ना? नाश्ता बनाना, सफाई, कपड़े, राशन — ये सब तो अपने आप हो जाता है?"
Santosh को थोड़ी असहजता हुई। उसने तुरंत बात बदलने के लिए मंदिर की ओर इशारा किया,
"चलो, पूजा कर लेते हैं, पंडित जी इंतज़ार कर रहे होंगे।"
Anita ने लंबी सांस ली और सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। अंदर जाते हुए उसने भगवान की मूर्ति की ओर देखा और मन ही मन बोली —
"काश भगवान किसी दिन इसे मेरी ज़िंदगी जीने का अनुभव दे दें... बस एक दिन के लिए..."
उस वक्त वो नहीं जानती थी — उसकी प्रार्थना, भगवान तक पहुँच चुकी थी। और शायद... सुन भी ली गई थी।
अध्याय 2: श्राप
मंदिर के अंदर हल्की सी गूंज थी — घंटियों की धीमी आवाज, फूलों की खुशबू, और पंडित जी का मंत्रोच्चारण। हल्का धुआं धूप से उठ रहा था जो वातावरण को और भी आध्यात्मिक बना रहा था।
Anita और Santosh मंदिर के गर्भगृह के सामने खड़े हो गए। पंडित जी ने नारियल और अगरबत्ती लेकर पूजा शुरू की। दोनों ने आंखें बंद कर लीं और हाथ जोड़ लिए।
Anita मन ही मन कुछ माँग रही थी। उसकी प्रार्थना में कोई लालच नहीं था — बस एक सच्ची चाह थी कि Santosh को थोड़ा समझ आए… थोड़ा अनुभव हो… थोड़ा एहसास हो…।
उसी पल, Santosh को अचानक अपने सिर पर किसी का हाथ महसूस हुआ।
हल्की सी छुअन — जैसे कोई आशीर्वाद दे रहा हो। उसने सोचा, शायद पंडित जी ने सिर पर हाथ रखा होगा।
लेकिन जब उसने आंखें खोलीं और मुड़कर देखा… वो हैरान रह गया।
उसके सामने एक बहुत अजीब-सी बूढ़ी औरत खड़ी थी। उसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था — पचड़ी-सी त्वचा, उलझे हुए सफेद बाल, लेकिन आंखें… वो आंखें चमक रही थीं जैसे सब कुछ जानती हों।
उसने हल्के से मुस्कराते हुए कहा —
"बेटा, अब दूसरों पर हँसना बंद कर। तुम्हारे बाल… अब तुम्हारी समझ का इम्तिहान लेंगे।"
Santosh ने भौंहें सिकोड़ लीं।
"क्या बकवास कर रही हो अम्मा? हटो यहाँ से।"
वो गुस्से में फुसफुसाया और उसे हल्का सा धक्का देने ही वाला था कि Anita ने उसका हाथ थाम लिया।
Anita ने चौंककर देखा —
"ये कौन हैं?"
लेकिन जब तक दोनों समझ पाते, वो बूढ़ी औरत वहाँ से गायब हो चुकी थी — जैसे कभी थी ही नहीं।
Santosh ने झुंझलाते हुए कहा,
"पता नहीं कहाँ से आ जाती हैं ये पागल औरतें, और उलटी-सीधी बातें करने लगती हैं..."
Anita कुछ सोचने लगी।
"उसने क्या कहा था? तुम्हारे बाल… समझ का इम्तिहान?"
Santosh ने उसकी बात को हँसी में उड़ा दिया,
"छोड़ो न! कुछ भी बोल गई। चलो, घर चलते हैं। शाम तक गर्मी और बढ़ जाएगी।"
दोनों मंदिर से बाहर निकल पड़े। Santosh का चेहरा भले ही सामान्य दिख रहा था, लेकिन कहीं न कहीं उसके भीतर कुछ हल्का सा काँपा था… कुछ ऐसा, जो समझ से परे था।
रास्ते में Anita ने कुछ नहीं कहा। उसकी आंखें आसमान की ओर थीं — जैसे सवाल कर रही हो…
"क्या ये सच में कोई संकेत था?"
उधर Santosh ने इस घटना को दिमाग से निकाल फेंकने की कोशिश की, लेकिन उसे क्या पता था —
असली चौंकाने वाला पल तो अगली सुबह उसका इंतज़ार कर रहा था।
अध्याय 3: बगावत और बाल कट
रात धीरे-धीरे अपने साए समेट रही थी। घर के भीतर शांति थी — लेकिन एक अजीब सी बेचैनी भी हवा में घुली हुई थी, जो किसी आने वाले तूफान से पहले की ख़ामोशी जैसी लग रही थी।
Santosh गहरी नींद में था। उसके खर्राटे हल्के-हल्के कमरे में गूंज रहे थे। Anita भी उसकी पीठ की तरफ मुँह किए लेटी थी, लेकिन उसकी नींद उतनी गहरी नहीं थी। मंदिर में हुई उस बूढ़ी औरत की बातें उसके मन को कचोट रही थीं।
"तुम्हारे बाल… तुम्हारी समझ का इम्तिहान लेंगे…"
यह वाक्य जैसे उसके ज़ेहन में अटक गया था।
सुबह करीब 6 बजे — खिड़की से हल्की धूप की एक किरण सीधे बिस्तर पर पड़ी।
Anita की आंखें अपने आप खुल गईं। उसने धीरे से करवट ली और Santosh की ओर देखा — पर तभी उसके मुँह से एक तीखी चीख निकल गई।
"संतोष!"
उसकी आवाज़ काँप रही थी, और चेहरा सफेद पड़ चुका था।
Santosh नींद से झटके में उठा।
"क्या हुआ? क्या चीख रही हो?"
पर उसकी आवाज़ थोड़ी भरी-भरी सी लग रही थी… और… उसके चेहरे पर बाल थे… बहुत सारे बाल…
उसने माथे से बाल हटाने की कोशिश की — लेकिन वो काटने नहीं, खींचने पड़ रहे थे।
"ये क्या है...?" Santosh ने बड़बड़ाते हुए बाल पकड़े।
जैसे ही उसने जोर से खींचा, एक तेज़ झटका-सा दर्द उसके सिर में उठा।
"अरे! ये तो… ये मेरे अपने बाल हैं?"
Santosh बिस्तर पर सीधा बैठ गया और दहशत में चारों तरफ देखने लगा। उसकी गर्दन से लेकर पीठ तक बालों की लटें लहराती थीं — काले, घने, चमकदार बाल — और वो भी उसकी खुद की खोपड़ी से निकले हुए।
Anita के चेहरे पर चौंक, डर और विस्मय सब एक साथ थे।
वो धीरे से आगे बढ़ी, एक बाल की लट को पकड़कर देखने लगी।
"ये… ये तुम ही हो ना, Santosh?"
Santosh की आंखों में पानी आ गया।
"क्या हो रहा है मेरे साथ...? ये सपना है ना? बोलो Anita, ये सपना है ना?"
Anita अब धीरे-धीरे स्थिति को समझने लगी थी।
"वो बूढ़ी औरत… उसने कहा था — बालों को मत काटना… नहीं तो दंड मिलेगा…"
Santosh को अब पसीना छूट रहा था, बाल बार-बार उसके चेहरे पर आ रहे थे, आँखों में घुस रहे थे।
वो झल्लाने लगा।
"ये कैसे झेलते हो तुम लोग? ये तो आँखों में चला जाता है, कुछ दिख नहीं रहा… चिपचिपाहट… उलझन…"
Anita ने पास आकर उसकी हालत देखी।
फिर चुपचाप पीछे खड़ी हुई, उसके बालों को सुलझाया और एक लंबी, मजबूत चोटी बना दी।
Santosh ने गुस्से में आईने में खुद को देखा — उसका चेहरा अब उसके ही लंबे बालों से घिरा था। और वो चोटी… इतनी लंबी… कि उसकी कमर को छू रही थी।
"तुमने चोटी बना दी मेरी?" उसने नाराज़ होकर पूछा।
Anita ने थककर कहा,
"और कर भी क्या सकती थी? सँभालने का यही तरीका है।"
Santosh का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा।
"मुझे नहीं चाहिए ये सब नाटक! मैं अभी के अभी इसे काट डालता हूँ!"
वो गुस्से में बाथरूम की ओर भागा। किचन से कैंची उठाई और आईने के सामने खड़ा होकर एक झटके में अपनी ही चोटी काट डाली।
चोटी उसके हाथ में थी… भारी… गिरी हुई… और हवा में एक अजीब सी सनसनी फैल गई।
Anita दरवाज़े पर खड़ी थी। उसकी आंखों में अब डर साफ़ झलक रहा था।
"Santosh… तुमने उसे काट दिया… लेकिन उस औरत ने कहा था — मत काटना…"
Santosh ने उसकी ओर देखा और मुस्कराया —
"तो अब क्या होगा? फिर से उगेंगे क्या?"
Anita कुछ नहीं बोली। लेकिन उसकी आंखों में एक सन्नाटा था… जैसे कोई बड़ा तूफ़ान आने वाला हो।
और उन्हें क्या पता था…
अगली सुबह… एक ऐसा सवेरा होगा… जिसे वे कभी भूल नहीं पाएंगे।
अध्याय 4: सज़ा और विस्तार
सुबह के चार बज चुके थे। बाहर अब भी अंधेरा था, लेकिन हल्की-हल्की रोशनी आकाश में उभरने लगी थी। कमरे में घड़ी की टिक-टिक और ceiling fan की धीमी आवाज़ के अलावा सब कुछ शांत था।
Anita की नींद अचानक टूट गई। उसे लगा जैसे कोई उसके पास धीरे-धीरे सांस ले रहा हो… भारी और गहरी सांसें।
उसने करवट ली — और सन्न रह गई।
बिस्तर का आधा हिस्सा बालों से ढका हुआ था। घने, काले, रेशमी बाल — इस बार और भी ज़्यादा लंबे और फैले हुए।
उसने एक पल को तो खुद को भ्रम में समझा — पर जब उसने गौर से देखा, तो Santosh उन्हीं बालों के बीच लेटा था… उनका चेहरा अब तक पूरी तरह छिप चुका था।
उसने Santosh को हिलाया,
"Santosh… उठो… उठो, देखो क्या हो गया है तुम्हें…"
Santosh की आंखें धीरे-धीरे खुलीं। उन्होंने एकदम से उठने की कोशिश की, लेकिन बाल उनके चारों तरफ लिपटे हुए थे। आँखों में घुस रहे थे, चेहरे को ढक रहे थे, और गर्दन तक पहुँच चुके थे।
"क्या... क्या फिर से...?" उसकी आवाज़ काँप रही थी।
Anita ने रौशनी जलाई — और दोनों की नजरें एक-दूसरे से टकराईं। Santosh ने नीचे देखा — उसकी चोटी अब पहले से भी लंबी हो चुकी थी… इतनी लंबी कि ज़मीन पर घिसट रही थी।
और उसके हाथ में, जो उसने कल काटी थी — वो कटी हुई चोटी अब कोने में पड़ी थी — मरी हुई साँप जैसी।
Santosh की आंखें भर आईं।
"ये... ये तो मैंने काट दी थी… फिर?"
Anita धीरे से बोली —
"शायद… जितना तुम काटोगे… उतना ये लौटेगा… दुगना होकर…"
Santosh का गला सूखने लगा।
"मैं ऐसे कैसे रहूँगा, Anita? ये क्या मज़ाक है? लोग मुझे देखेंगे तो क्या सोचेंगे? मेरे बालों का क्या मतलब है? मेरी मर्दानगी, मेरी पहचान… सब बदल जाएगा!"
Anita कुछ देर चुप रही। फिर धीरे से Santosh के पास बैठी, उसकी चोटी को अपने हाथों में लिया, और शांत स्वर में कहा —
"तुम्हारी मर्दानगी क्या बालों में थी, Santosh? या इस बात में कि तुमने कभी समझा ही नहीं कि जिन्हें तुम 'छोटा' समझते हो… वो कितना भारी होता है?"
Santosh ने अपनी हथेलियों में चेहरा छुपा लिया।
"मुझसे ये नहीं होगा, Anita… मैं ये सब नहीं झेल सकता…"
Anita ने उसकी आंखों में देखा — वो डर, बेचैनी और असहायता साफ़ नजर आ रही थी। वही असहायता जो Anita ने तब महसूस की थी जब उसे अपने सपनों को छोड़ कर सिर्फ गृहिणी बन जाना पड़ा था।
वो खड़ी हुई, Santosh के बालों को फिर से चुपचाप सुलझाया। धीरे-धीरे तेल लगाया, एक-एक लट को सीधा किया और पूरी सावधानी से एक नई, लंबी चोटी बना दी — जो अब उसके घुटनों को छू रही थी।
Santosh ने शीशे में खुद को देखा।
वो वो नहीं लग रहा था… लेकिन वो खुद ही था।
एक आंसू फिर से उसके गाल पर बह निकला।
"अब क्या होगा, Anita…?"
Anita ने पहली बार मुस्कराकर कहा —
"शायद… अब तुम्हें खुद को देखने का मौका मिलेगा… मेरी नज़रों से।"
और कमरे के बाहर, आंगन में… हवा एक बार फिर पीपल के पत्तों को हिला रही थी… जैसे कोई अदृश्य शक्ति फिर से चेतावनी दे रही हो:
“अब सिर्फ बाल नहीं बढ़ेंगे… तुम्हारी समझदारी भी बढ़नी चाहिए… वरना ये श्राप सिर्फ शुरुआत है।”
अध्याय 5: खुद से हार
Santosh बिस्तर पर बैठा था — चुप, स्थिर, और टूटा हुआ।
घुटनों तक लंबी चोटी उसके सामने पड़ी थी, जैसे हर पल उसे याद दिला रही हो कि वो अब ‘पहले वाला’ नहीं रहा।
उसने बालों को खोलने की कोशिश की — शायद उन्हें किसी तरह छोटा दिखा सके, छिपा सके… लेकिन जैसे ही उसने चोटी खोली, बालों की मोटी लटें चारों तरफ बिखर गईं — एक समंदर की तरह, जिसे अब कोई छोटी बाल्टी में नहीं भर सकता था।
उसने बालों को पकड़कर ऊपर बाँधने की कोशिश की, बार-बार क्लिप लगाई, खुद से उलझा, मगर वो हर बार उलझते गए।
"एक आदमी होकर मैं अपनी ही चोटी नहीं बाँध पा रहा…"
उसका मन खुद को धिक्कारने लगा।
आंखों में आँसू आ चुके थे, पर वो रोया नहीं। बस चुप रहा।
कुछ देर बाद, कमरे में Anita आई। उसके हाथ में तेल की शीशी और कंघी थी।
Santosh ने आँखें फेर लीं।
Anita पास आकर बैठ गई, पर कुछ नहीं कहा। बस धीरे से तेल रखने लगी।
Santosh ने होंठ भींचते हुए कहा —
"रहने दो। मैं खुद कर लूंगा।"
Anita ने सिर्फ एक नज़र डाली और वापस खड़ी हो गई।
कुछ देर Santosh कोशिश करता रहा — बाल उलझते रहे, हाथ काँपते रहे, क्लिप गिरती रही।
थोड़ी देर बाद उसने हार मान ली। माथे से पसीना पोंछा… और फिर धीरे से सिर झुकाकर बोला —
"Anita... प्लीज़... मेरी मदद करो।"
Anita की आँखों में हल्की सी नमी आ गई। उसने चुपचाप Santosh के पीछे बैठकर उसके बालों को सुलझाया।
तेल लगाया, एक-एक लट को सहलाया — बिल्कुल वैसे जैसे एक माँ अपने बच्चे के बाल संवारती है।
धीरे-धीरे एक मजबूत, साफ और सुंदर चोटी बन गई — जो अब भी घुटनों तक पहुँचती थी।
Santosh ने कहा नहीं… लेकिन उसकी आंखों से झलक रहा था कि वो शर्म और अहंकार को अंदर ही अंदर तोड़ रहा था।
दोपहर को उसे सब्ज़ी लेने बाहर जाना पड़ा।
पहले वो तैयार हुआ, फिर दरवाज़े पर रुक गया —
"क्या लोग कुछ कहेंगे?"
Anita ने उसका हौसला बढ़ाने के लिए सिर्फ इतना कहा —
"कहेंगे ज़रूर… पर तुम क्या कहोगे, ये ज़्यादा ज़रूरी है।"
Santosh ने गहरी सांस ली, और बाहर निकल गया।
गली के नुक्कड़ पर चाय की दुकान पर बैठे तीन-चार लोग उसे देखकर ठहर गए।
"अरे Santosh भैया… ये क्या नया स्टाइल है?"
"भाभी ने कोई शर्त तो नहीं जीत ली?"
कुछ बच्चों ने पीछे से खी-खी करके कहा —
"लड़का है या लड़की?"
Santosh के पैर एक पल के लिए लड़खड़ाए… पर उसने खुद को संभाला।
"हाँ, ये मैं ही हूँ। और हाँ, बाल मेरे हैं। जितने लंबे हैं, उतनी मेरी समझदारी की सज़ा है। हँस लो… क्योंकि सीखना सबको नहीं आता।"
भीड़ चुप हो गई।
Anita थोड़ी दूर से ये सब देख रही थी — उसकी आंखों में गर्व था।
Santosh अब धीरे-धीरे चलता हुआ सब्ज़ी मंडी की ओर बढ़ा — सिर ऊँचा था, चाल स्थिर… और चोटी? हवा में लहराते हुए उसके नए रूप की कहानी कह रही थी।
इस दिन Santosh ने सिर्फ बाहर की नहीं — अपने भीतर की लड़ाई जीत ली थी।
जो आपने अभी पढ़ा, वो तो बस शुरुआत थी — कहानी का सबसे रोमांचक हिस्सा अभी बाकी है!
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