Disclaimer

यह ब्लॉग पूरी तरह काल्पनिक है। किसी से समानता संयोग होगी। बिना डॉक्टर की सलाह के दवाइयाँ ((जैसे स्तन वर्धक या हार्मोन परिवर्तन)न लें - यह जानलेवा हो सकता है।— अनीता (ब्लॉग एडमिन)

"जब बहन के गंदे मोज़े से निकली चाभी… हाथ बंधे थे, मुँह ही था एक Option! एक Crossdressing Game जो सिर्फ़ चाभी तक सीमित नहीं था…" 🧦💋

📝 Story Preview:

❝ये कहानी है जुड़वाँ भाई-बहन अंकित और कविता की — जो इतने अलग हैं कि हर बात पर टकरा जाते हैं। लेकिन लॉकडाउन के दिनों में, उनकी लड़ाई एक नए लेवल पर पहुँच चुकी थी…

थक-हारकर माँ-बाप ने एक खौफनाक तरीका निकाला — दोनों को एक 'discipline challenge' में बंद कर दिया गया।

कविता को स्टील की हथकड़ियाँ, अंधा करने वाला लॉक्ड ब्लाइंडफोल्ड, और चाबियाँ उसके पसीने से भीगे मोजों में छिपा दी गईं। वहीं अंकित के हाथ बंधे थे, आंखों पर ताला जड़ा ब्लाइंडफोल्ड — लेकिन उसके पैर खुले थे।

अब शुरू हुआ असली खेल — एक अजीब सी क़ैद, जिसमें आज़ादी बहन की रहम और भाई की हिम्मत पर टिकी थी।

क्या कविता की गाइडेंस से अंकित ढूंढ पाएगा चाबी?

क्या वो बहन के पसीने वाले मोज़ों से मुंह से चाबी निकाल पाएगा?

या फिर... इस खेल में कुछ ऐसा छिपा है जो दोनों की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल देगा?

📌 एक psychological, sensory, and sibling-dynamic thriller — जो आपको आखिरी लाइन तक बाँध कर रखेगा! ❞



अंकित, नाम जितना आम, ज़िंदगी उतनी ही सीधी, सपाट। वो उन लड़कों में से था जो ज़िंदगी को कभी ज़्यादा सवालों में नहीं बाँधते। सुबह उठो, नाश्ता करो, ऑफिस जाओ, काम निपटाओ और फिर थके कदमों से घर लौट आओ। उसके लिए यही जीवन था — एक सीधी लकीर जो कहीं मुड़ती नहीं थी।

कॉलेज के दिनों में वो पढ़ाई में अव्वल था। किताबों से दोस्ती कुछ इस हद तक थी कि वो खुद भी किताब जैसा हो गया था — खामोश, समझदार और हर किसी की समझ से बाहर। शायद इसलिए कॉलेज खत्म होते ही उसे सरकारी बैंक की एक अच्छी नौकरी मिल गई। हर कोई गर्व करता था उस पर, लेकिन वो खुद... बस जी रहा था, बिना किसी खास मकसद के।

लेकिन घर में एक और दुनिया थी — कविता की दुनिया।

कविता... एक नाम, और जैसे कोई तूफान। उसकी हँसी गूंजती थी तो ऐसा लगता था जैसे दीवारें भी मुस्कुरा उठी हों। वो जहाँ जाती, माहौल अपने आप रंगीन हो जाता। आँखों में एक अलग चमक थी, और दिल इतना खुला कि हर कोई उसमें समा जाए। वो बात करती तो लोग सुनते नहीं, महसूस करते थे।

कविता और अंकित... जुड़वाँ।
हाँ, बिल्कुल जुड़वाँ। एक ही चेहरे के दो आईने।
नाक-नक्श, आँखें, यहाँ तक कि हाथों की उँगलियों की बनावट तक एक जैसी।
लेकिन अगर कोई इन्हें जानता था, तो समझता था कि इनके बीच समानता बस शरीर तक सीमित है।

अंदर से... ये दो बिल्कुल उल्टे ध्रुव थे।

अंकित शांत था, कविता शोर थी।
अंकित किताबों का दोस्त, कविता भीड़ की रानी।
अंकित को घर की चारदीवारी सुकून देती, कविता को घुटन।
अंकित को तन्हाई भाती, कविता को महफिल चाहिए होती।

इन दोनों की आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी। जैसे ही एक कमरे में घुसता, दूसरा निकलने का रास्ता ढूँढता। घर में हर रोज़ बहस होती — कभी टीवी के चैनल को लेकर, कभी कमरे की लाइट बंद करने पर, तो कभी किसी कपड़े को धोने के झगड़े में।

माँ-बाप ने भी समय के साथ ये लड़ाइयाँ स्वीकार कर ली थीं। अब उन्हें रोकना, समझाना छोड़ दिया था। शायद उन्हें भी आदत हो गई थी — घर की दीवारों को कविता की ऊँची आवाज़ और अंकित की ठंडी चुप्पियों के बीच झूलते देखने की।

पर एक बात और थी — एक गहरा, अनकहा रिश्ता जो इन लड़ाईयों के पीछे छिपा था।
हां, जुड़वाँ थे... और जुड़ाव था। लेकिन वो सामने नहीं आता था, वो तो तभी झलकता जब कोई बाहरी खतरा सामने होता।

जैसे उस दिन... जब मोहल्ले के किसी लड़के ने कविता को कुछ कह दिया था।

अंकित ने कुछ नहीं कहा था उस दिन। बस सीधे जाकर उस लड़के के कॉलर पकड़ लिए थे और आँखों में गुस्सा नहीं — आग थी।
कविता हैरान थी।
उसे लगा था उसका भाई तो उससे नफरत करता है।
पर उस दिन उसने जाना — "नफरत" और "अहमियत" एक सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं।

2020 का साल किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। शहर थम गए, सड़कें सूनी हो गईं, इंसान अपने ही घर में कैद हो गया।

अंकित और कविता — वो भी इस कैद का हिस्सा बन गए।

शुरुआत में सब कुछ ठीक था। दो दिन जैसे छुट्टियाँ हों — कोई जल्दी नहीं, कोई समय पर ऑफिस नहीं, कॉलेज नहीं, न बाहर के झंझट। माँ ने पकवान बनाए, पिता जी ने पुराने गाने लगाए, और घर में हल्की सी रौनक थी।

लेकिन फिर... जैसे जैसे दिन बढ़ते गए, दीवारें सिकुड़ने लगीं।

और एक छत के नीचे रह रहे ये दो जुड़वाँ... जैसे किसी जंग के मैदान में खड़े हों।
बिना बंदूक, बिना तलवार — बस जुबानें थीं, जो अब कटार बन चुकी थीं।

छोटी छोटी बातों पर तकरार — रिमोट किसके पास रहेगा, इंटरनेट की स्पीड किसका हक है, मम्मी किसकी बात पहले सुनेगी, चाय कौन बनाएगा...

हर दिन एक नया मुद्दा।
हर रात एक नया शोर।

माँ बाप दोनों थक चुके थे।
अब वो चुप रहने लगे थे, जैसे किसी युद्ध के बीच दो बेबस दर्शक।
कभी माँ बीच में आतीं, कभी पिता।
पर जैसे इस घर में अब कोई किसी की सुनता ही नहीं था।

एक दिन, लड़ाई ज़रा ज्यादा बढ़ गई।

अंकित का ऑफिस का वर्क फ्रॉम होम चल रहा था, मीटिंग में था। कविता ज़ोर ज़ोर से किसी सीरीज़ का सीन देख रही थी, हँस रही थी।
अंकित ने बस इतना कहा — "थोड़ा धीरे कर ले, मीटिंग है।"

और बस... जैसे कविता को चिंगारी दिख गई।

"मीटिंग, मीटिंग... लगता है शादी भी लैपटॉप के साथ करेगा।"

"तेरा काम बस दूसरों को ताना देना रह गया है, खुद कुछ करता नहीं तू," अंकित झल्लाया।

"मैं कुछ करती नहीं?" कविता उठ खड़ी हुई, "तू तो बस बैंक का बाबू बन गया है, जिंदगी का कोई मजा नहीं छोड़ा तूने!"

"कम से कम तेरे जैसे बिना दिमाग की नहीं हूँ।"

अब बहस बढ़ चुकी थी।

माँ बीच में आईं — थकी थकी सी आवाज़ में बोलीं,
"बेटा, तू तो समझदार है... बहन है, पराया धन होती है, कल को चली जाएगी, फिर तुझे ही पछताना पड़ेगा..."

माँ का यह कहना था कि कविता ठहाका मार कर हँस दी। एक तीखी, बेपरवाह हँसी।

"मां, क्या कुछ भी बोलती हो! मैं कहीं नहीं जा रही इतनी जल्दी। पर मुझे तो डर है कहीं आपका बेटा ही किसी की बहू बनकर ना चला जाए!"

पूरा कमरा एक पल को ठहर गया।

माँ की आँखें फैल गईं, पिता अखबार पढ़ते-पढ़ते चौंक कर देखने लगे।
अंकित की आँखें लाल हो गईं — एक ऐसी लालिमा, जो अपमान और गुस्से के बीच कहीं जन्मी थी।

और फिर...

चटाक।

एक झन्नाटेदार थप्पड़ कविता के गाल पर पड़ा।
इतना तेज़ कि कमरे की हवा भी कांप उठी।

माँ की चीख निकल गई।
"अंकित!!"

कविता की आँखें फटी की फटी रह गईं। वो वहीं थमी खड़ी रह गई, एक हाथ अपने गाल पर रखे हुए — जैसे अभी भी यक़ीन नहीं हो रहा था कि ये सच में हुआ है।

पिता जी उठ खड़े हुए, पर कुछ कह नहीं पाए।
माँ, आँखों में आँसू लिए, अंकित की तरफ देखती रहीं।
अंकित की साँसें तेज़ चल रही थीं, उसका चेहरा पसीने से भीग चुका था।
उसे खुद नहीं समझ आ रहा था कि... उसने ये क्या कर दिया।

और आज तक कभी भी ऐसा नहीं हुआ था ,

के किसी भी सदस्य ने किसी दूसरे को तमाचा मारा हो ,पर आज ये हो गया था ,

मां बाप सदमे में कविता एक को भी समझ नहीं आ रहा था के आखिरी ये हुआ क्या।


थप्पड़ के बाद घर में जो सन्नाटा पसरा था, वो अब धीरे-धीरे टूट रहा था — पर शांति की तरफ नहीं, बल्कि तूफान की ओर।

अगले ही पल अंकित के पापा ने तेज आवाज में कहा,
"दोनों दूर हट जाओ एक-दूसरे से!"

उनकी आवाज़ में अब वो नरमी नहीं थी जो अक्सर बच्चों से बात करते समय रहती थी — ये आदेश था, चेतावनी भी।
उन्हें पता था — अगर कविता ने खुद पर से ज़रा भी काबू खो दिया... तो आज अंकित की खैर नहीं।

अंकित एक ओर जाकर दीवार के पास खड़ा हो गया, सिर झुकाए, जैसे अपनी ही छाया से बच रहा हो।
कविता दूसरी ओर खड़ी थी, होंठ भींचे हुए, आँखें छलकने को तैयार... लेकिन नहीं, वो रोने वाली नहीं थी — उसका गुस्सा उसके आँसुओं से बड़ा था।

पिता कुछ देर तक चुप रहे। फिर गहरी साँस लेते हुए बोले:

"बचपन से हमने तुम दोनों को एक जैसा प्यार दिया है। कोई भेदभाव नहीं किया। दोनों को एक जैसे खिलौने, एक जैसी शिक्षा, एक जैसा सम्मान। हमेशा यही सिखाया के तुम दोनों जुड़वाँ हो — एक-दूसरे के साथी।
लेकिन आज अंकित ने जो किया... वो ग़लत है। बहुत ग़लत। और उसे उसकी सज़ा मिलनी ही चाहिए।"

उनके शब्द घर में गूंज गए। जैसे एक फैसला सुनाया जा चुका हो।

पर तभी — माँ बीच में बोल पड़ीं,
"इसमें अंकित की क्या गलती है? कविता ने ही उसे उकसाया। लड़कियाँ आजकल ज़ुबान बहुत चला लेती हैं। कोई कुछ भी कहे, तो क्या बेटा हमेशा सहता रहेगा?"

उनकी आवाज़ में माँओं वाली वह पारंपरिक ममता थी — जिसमें बेटा चाहे जैसा भी हो, वो मासूम ही होता है।

कविता माँ की तरफ घूरती हुई बोली,
"क्या माँ? आप ये कह रही हैं? आप ही तो हमें सिखाती थीं कि इस घर में लड़का-लड़की बराबर हैं।
पर आज सिर्फ इसलिए कि वो 'लड़का' है, उसे मुझे मारने का हक मिल गया?
अगर मैं चाहूँ, तो अभी उसका वही थप्पड़ लौटाकर दे सकती हूँ!"

वो चुप हो गई, एक पल को रुकी... उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं, जैसे हर शब्द के साथ वो खुद को बाँध रही हो।

पिता ने देखा — अब ये बहस हाथ से निकल रही है।
माँ-बेटी के बीच जंग की चिंगारी उठ चुकी थी।

पिता ने हाथ उठाया और ज़ोर से कहा:
"बस! अब एक शब्द और नहीं!"

घर एक पल में फिर से चुप हो गया।

उन्होंने गहरी निगाह से दोनों को देखा — कविता और अंकित को, फिर अपनी पत्नी को।

"गलती दोनों की है। किसी एक की नहीं। कविता ने कहा, पर अंकित ने हाथ उठाया। दोनों ने सीमा लांघी है।
इसलिए — अब दोनों एक-दूसरे से माफ़ी माँगेंगे। अभी और यहीं।"

पर दोनों चुप रहे।

कविता की आँखों में चिंगारियाँ थीं, लेकिन कोई नम्रता नहीं।
अंकित का चेहरा पत्थर हो चुका था — जैसे उसकी जुबान पर ताला लगा हो।

पिता ने अब थक कर सिर झुका लिया।

"ठीक है... अब मैं थक गया हूँ।"
फिर उन्होंने एक नज़र पत्नी की तरफ देखा, और धीमे से उनके कान में कुछ कहा।

माँ की आँखें चौड़ी हो गईं — "सच में?"

पिता मुस्कुराए — एक हल्की, रहस्यमयी मुस्कान।

फिर उन्होंने एक सीधा ऐलान किया —
"हमने एक नया तरीका सोचा है। अब ये लड़ाई माफ़ी से नहीं सुलझेगी। अब तुम दोनों को सीखना पड़ेगा — एक-दूसरे की जगह क्या होती है।


पहले तो अंकित और कविता को कुछ समझ नहीं आया। दोनों एक-दूसरे की तरफ हैरानी से देखने लगे। तभी कविता की माँ ने मुस्कुराते हुए समझाया,
“तुम्हारे पापा का कहने का मतलब ये है कि जैसे बचपन में तुम दोनों एक जैसे मैचिंग कपड़े पहनते थे, अब से घर में भी तुम दोनों बिल्कुल एक जैसे कपड़े पहना करोगे।”

कविता ने झुंझलाकर कहा, “लेकिन अब हम बच्चे थोड़ी हैं…!”

माँ की मुस्कान गायब हो गई, और उसने सख्ती से कहा,
“मुझे पता है कि तुम दोनों इतनी आसानी से नहीं मानोगे, इसलिए जब तक मन से तैयार नहीं हो जाते, तब तक तुम दोनों की आंखों पर पट्टी बांध दी जाएगी। किसी तरह की बहस नहीं चलेगी।”

इतना कहने के बाद, एक-एक करके दोनों की आंखों पर काले रंग का कपड़ा बांध दिया गया। माहौल में अचानक सन्नाटा छा गया।

फिर, उन्हें उनके-उनके कमरों में छोड़ दिया गया। घर में अजीब सा सन्नाटा था — और हर दीवार मानो उनके अगले कदम को देख रही थी।

कुछ समय बाद...

अंकित की माँ धीरे से कविता के कमरे में गईं। दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला हुआ था। अंदर झांक कर देखा — कविता अपनी आँखों से पट्टी हटाकर मोबाइल चला रही थी।

जैसे ही माँ ने कमरे में कदम रखा, कविता ने घबरा कर मोबाइल छिपाने की कोशिश की।
लेकिन माँ की आवाज़ ठंडी और सख्त थी, “अब कोई फायदा नहीं है कविता... अब तुम्हें सज़ा मिलेगी।”

कविता थोड़ी सहम गई।
“चलो, खड़ी हो जाओ... और अपने दोनों हाथ पीछे करो।”

कविता ने चुपचाप वैसा ही किया। उसकी साँसें थोड़ी तेज़ हो गईं।
माँ ने बिना किसी नरमी के, उसके दोनों हाथों को उसकी पीठ के पीछे कसकर बांध दिया। रस्सी की गांठें मजबूत थीं — जैसे माँ का ग़ुस्सा अब उस रस्सी में उतर आया हो।

और हाथ बांधने  में उन्हें जरा भी दया नहीं आ रही थी ,


कविता पर क्यों के वो शायद अब भी कविता पर गुसा थी, कविता के दोनो हाथ अब उसके पीठ  के पिछे बंधे हुए थे,


उसके बाद कविता को बेड पर बिठा कर ,उसकी आंखों पर एक काले रंग की चमड़े से बनी किसी चीज को उसकी आंखों पर बांध दिया 

उसकी गर्दन के पीछे जैसे एक छोटा सा लॉक लगा दिया ,

फिर एक चैन को उसकी गर्दन में बांध कर, उस चैन को बिस्तर से बांध दिया,

फिर दोनो पैरो को भी रस्सी से बांध बिस्तर के दोनो कोनो ,से लॉक कर दिया ,

उसे कमरे में लॉक करके ,उसका मोबाइल लेकर चली गई ,और दरवाजे को भी लॉक कर दिया ,


कमरे की हवा में एक सन्नाटा छाया हुआ था, जिसमें सिर्फ कविता की तेज़ साँसों की आवाज़ गूँज रही थी। वह बिस्तर पर बैठी थी, उसकी पीठ ठंडी दीवार से सटी हुई, और उसके दिल की धड़कनें गर्दन में बंधी चेन से ज़्यादा तेज़ी से काँप रही थीं।


उसकी आँखों पर काले चमड़े का पट्टा कसकर बाँध दिया गया था—एक अँधेरा जो सिर्फ़ रंग नहीं, बल्कि डर का एहसास था। हर साँस के साथ चमड़े की गंध उसके नथुनों में भरती, और वह अपनी ही धड़कनों को कानों में सुनती, जैसे कोई घड़ी टिक-टिक कर रही हो।


गर्दन के पीछे लगे छोटे से लॉक की ठंडक उसकी त्वचा पर चुभ रही थी। चेन का हर हल्का सा हिलना उसे याद दिलाता कि वह जकड़ी हुई है—सिर्फ़ बिस्तर से नहीं, बल्कि अपने ही डर से। पैरों की रस्सियाँ उसकी त्वचा को रगड़ रही थीं, हर कोशिश के साथ और तंग होती जा रही थीं।


जब दरवाज़े की चाबी घूमी, और कदमों की आवाज़ दूर होती गई, तो कविता ने पहली बार अपने अकेलेपन को महसूस किया। मोबाइल की गैर-मौजूदगी में वह समय और भी धीमा हो गया था।


दुसरी तरफ  अंकित था ,जो अच्छे बेटे की तरह आंखों पर पट्टी बांधे हुए 

अपने बिस्तर पर कान में, हैंड्सफ्री लगाकर गाने सुनते हुए बैठा हुआ था। 


पापा ने उसे बिस्तर से खड़े होने को कहा ,उसे लगा के वो उसकी आंखे खोलने के लिए आए हैं ,

पर ये क्या अंकित के पापा ने अंकित के दोनो हाथ पीठ के पीछे  किए ,

उन को  कस कर किसी चीज से बांध दिया ,

आंखों की पट्टी को टाइट किया ,और कान में हैंडस्फ्री की आवाज को तेज कर दिया ,

उसके बाद उसे भी अंकिता के  कमरे में ले जाकर दरवाजा लॉक कर दिया ,


बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा था ,कुछ दिखाई नही दे रहा था ,

दोनो भाई बहन के हाथ बंधे हुए थे  , टीवी नहीं थी नो सोशल मीडिया ,

ना ही दुनिया से कोई कनेक्टिविटी ,

दोनो को ही नहीं पता था के दोनो ही एक दसरे की मदद करने में सक्षम नहीं थे


,अंकित को लग रहा था के कविता को थप्पड़ मारने की बजह से ,

सजा के रूप में उसे  बांध  कर कविता के कमरे   में छोड़ा  गया है ,

जिससे कविता अपना बदला ले सके  ,

ये सोच कर ही अंकित के ,हाथ पैर  फूल गए के पता नहीं, 

कब कहां से कविता का थप्पड़ उसके गालो पर पड़ेगा या थप्पड़ों की  बारिश होगी ।


कमरे में एक अजीब-सी खामोशी थी, लेकिन उस खामोशी के भीतर बेचैनी की चीखें घुली हुई थीं।

कविता को लग रहा था कि अंकित की मां ने उसे सिर्फ इसलिए अंकित के कमरे में रखा है ताकि वो कविता पर नजर रख सके। और शायद यही बात अंकित के दिमाग में भी चल रही थी — कि वो बस एक मोहरा है इस बंधन की निगरानी के लिए।

दोनो के हाथ और पैर में दर्द लगातार बढ़ता जा रहा था। बंधे हुए शरीर की नसें जैसे धीरे-धीरे सुन्न हो रही थीं, लेकिन सबसे भारी हो रहा था — सम्मान का भार।

दोनों दर्द में थे, लेकिन कोई चीखना नहीं चाहता था। कहीं सामने वाले को कमजोर न लग जाएँ... कहीं वो सोच ले कि ये तो सह ही नहीं पाया... — इसी डर ने दोनों को चुप रखा।

लेकिन एक दर्द होता है — जो बाकी सब दर्द से ऊपर होता है।
वो है वॉशरूम जाने की तड़प।

जब इंसान को एहसास हो कि — अब नहीं जा सकता, पता नहीं कितनी देर तक ये सहना पड़ेगा,
तो वक़्त जैसे रुक जाता है।
हर पल बस एक ही बात दिमाग में गूंजती है — वॉशरूम... वॉशरूम... वॉशरूम...

और वो पल जब ये सहनशीलता की सीमा पार कर जाती है —
दोनों एकसाथ चीख पड़े —
“प्लीज़ खोल दो! वॉशरूम जाना है!”

उस चिल्लाहट ने एक और सच्चाई को उजागर कर दिया —
दोनों बंधे हुए हैं।

अभी तक दोनों को लग रहा था कि शायद सामने वाला खुला है, केवल वही बंधा हुआ है।
अब वो भ्रम टूट चुका था।

थोड़ा चुप रहकर कविता ने आवाज़ में नाटक भरकर कहा —
“अब मेरी ज़रूरत पड़ी तो मुझसे मदद मांग रहा है? अब तो मैं बिल्कुल भी नहीं खोलने वाली!”

अंकित ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया —
“मुझे तो तू तब खोलेगी, जब तू खुद को खोल पाएगी!”

अंदर से दोनों परेशान थे, लेकिन जुबान पर वही टकराव।

कविता की आवाज़ थोड़ी नरम पड़ी —
“तुझे क्या लगता है, मैं तेरे पास आ सकती हूं? मेरे हाथ पीठ के पीछे बंधे हैं… आंखों पर काली पट्टी बंधी है… और गले में पट्टा है जो किसी चेन से जुड़ा है… पैर भी बंधे हैं… मैं चाहूं भी तो हिल नहीं सकती।”

अंकित अब थोड़ा गंभीर हुआ —
“मेरे साथ भी यही है… मेरे दोनों हाथ बंधे हैं… आंखों पर काली पट्टी है… मुझे भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा…”

कविता ने धीरे से कहा —
“लेकिन तेरे पैरों पर कुछ नहीं बंधा है… और तेरे गले में कोई चेन भी नहीं… तू कोशिश कर सकता है… मेरी तरफ रेंग कर आ…”

अंकित कुछ नहीं बोला। भीतर से डर, झिझक, शर्म और संकोच — सब एक साथ उबाल पर थे।
पर अब वक्त बातों का नहीं था — भरोसे का था।

कविता ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा —
“माँ ने कहा था कि चाभी मेरे पैरों के मोजे में है…
अगर तू मेरे पास आकर मोजे से चाभी निकाल सके…
और मेरी आंखों की पट्टी खोल दे…
तो मैं तुझे रास्ता बता सकती हूं…
हम दोनों बाहर निकल सकते हैं…”

एक लंबा सन्नाटा।

फिर कविता की धीमी आवाज़ आई —
“देख… तेरे पास कोई और रास्ता नहीं है…
मुझपर भरोसा कर…
प्लीज़ कोशिश कर…”

अब अंकित के पास सोचने का समय नहीं था।
प्रेशर हर सेकंड बढ़ता जा रहा था।

अंकित को भी कविता की बात में तर्क समझ आया ,अंकित  जैसे तैसे करके बिस्तर के पास गया ,


अंकित ने कविता के पैरों के पास पहुँचकर साँस रोक ली। मोज़ों से आ रही गंध इतनी तेज़ थी कि उसकी आँखें छलछला आईं। वह मन ही मन बुदबुदाया—"भगवान, ये क्या हाल बना दिया है?"


उसने कोशिश की—मुँह दूसरी तरफ़ घुमाया, नाक बंद करने की कोशिश की (जो हाथ बँधे होने के कारण मुश्किल थी), लेकिन गंध तो हवा में थी! और वह हवा उसके चेहरे के बिल्कुल सामने से गुज़र रही थी।


कविता ने उसकी ख़ामोशी से बेचैन होकर झल्लाते हुए पूछा—

"अंकित! तू है कहाँ? क्या कर रहा है? जल्दी कर ना!"


अंकित ने घुटते हुए जवाब दिया—

"यार... तुम्हारे पैरों से... इतनी बदबू आ रही है कि मैं तो... उफ्फ!"


कविता चुप हो गई। एक पल के लिए उसे लगा कि अंकित मज़ाक कर रहा है, लेकिन फिर उसे याद आया—वह पूरे दिन भागदौड़ करती रही थी, और मोज़े भी गीले हो चुके थे।


थोड़ी देर की शर्मिंदगी के बाद, उसने अपनी हँसी दबाते हुए गंभीर आवाज़ में कहा—

"सुन, अंकित... हमारे पास कोई चॉइस नहीं है। अगर तूने चाबी नहीं निकाली, तो तुझे अपनी अंडरवियर में ही सुसु करनी पड़ेगी। और उसकी गंध... मेरे मोज़ों से कहीं ज़्यादा भयानक होगी!"


अंकित ने सोचा—"गीली अंडरवियर की बदबू vs कविता के पैरों की बदबू?"


दोनों ही विकल्प भयानक थे।


लेकिन कविता ने फिर दबाव डाला—

"तू तय कर ले... या तो मेरे मोज़े की गंध झेल, या फिर अपनी पैंट में पेशाब करके पूरे कमरे को सड़ा दे!"


अंकित ने गहरी साँस ली (और तुरंत पछताया, क्योंकि गंध फिर नाक में चली गई)। उसने मन ही मन हार मान ली।


और फिर अंकित ने कुछ सोचकर, धीरे-धीरे अपना मुंह कविता के पैरों के पास ले जाने की कोशिश की। बदबू के मारे उसकी हालत खराब थी, पर उसके पास कोई और रास्ता नहीं था। तभी अचानक उसका बैलेंस बिगड़ गया — और कविता का मोजे वाला पैर सीधे उसके मुंह पर लग गया। घिन और मजबूरी की मिली-जुली हालत में, अंकित ने हिम्मत करके धीरे-धीरे कविता के पैर से मोजा उतार ही दिया।

मगर जैसे ही मोजा उतरा, वो उसके हाथ से छूटकर कहीं गिर गया। आंखों पर पट्टी थी, हाथ बंधे थे — कुछ समझ ही नहीं आया कि मोजा आखिर गया कहां।

काफी देर तक जब मोजा नहीं मिला, तो कविता गुस्से से चिल्लाई,
"ये क्या किया तूने! इतनी मुश्किल से मोजा उतारा था... और अब उसे ही खो दिया? उसमें चाभी थी गधा कहीं का!"

इस पर अंकित भी तिलमिला गया, और थोड़ी झुंझलाहट में बोला,
"मैंने जानबूझकर थोड़ी किया है! तुम्हारे गंदे पैरों से मोजा उतारने में ही मेरी सांसें रुक रही थीं। मुझे कोई शौक नहीं है उस बदबू को झेलने का। मेरे दोनों हाथ बंधे हैं, आंखों पर पट्टी है... गलती हो गई, छूट गया मोजा — अब क्या कर सकता हूं? ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं, पर मिल नहीं रहा। अब बताओ, मैं क्या करूं?"

कविता ने ठंडी आवाज में कहा,
"अब बस एक ही ऑप्शन बचा है... तुझे मेरा दूसरा मोजा भी अपने मुंह से ही उतारना पड़ेगा। और इस बार प्लीज़, कोई गड़बड़ मत करना। अगर इस बार चाभी भी खो गई... तो समझ ले, तेरा यही हाल बना रहेगा।"

अंकित की सांस अटक गई।
"और नहीं... प्लीज़ नहीं..."
पर उसके पास कोई चारा नहीं था। न हाथ चल सकते थे, न आंखों से कुछ देख सकता था। सिर झुकाया और धीरे-धीरे खुद को कविता के दूसरे पैर की तरफ ले गया — वही बदबूदार मोजा, वही गंध जो दिमाग को सुन्न कर दे।

मजबूरी ने हिम्मत दी, और अंकित ने उस मोजे को अपने मुंह से पकड़कर धीरे-धीरे नीचे खींचना शुरू किया। हर सेकंड उसकी हिम्मत को चबा रहा था, पर इस बार उसने पूरी सावधानी बरती। सांस रोके, एकदम ध्यान से — ताकि मोजा हाथ से फिसले नहीं, ताकि चाभी कहीं गुम न हो जाए। ये उसका आखिरी मौका था।

आख़िरकार मोजा उतरा।

और साथ ही... चाभी भी मिली। उसी मोजे के अंदर।

अंकित के चेहरे पर थोड़ी राहत दिखी। उसने चाभी को मुंह में फंसा लिया — और अब नई उलझन सामने थी।

“अब इस चाभी से खोलूं क्या?”
उसने मन ही मन सोचा।

उसे अब तक नहीं पता था कि ताले की लोकेशन क्या है। बस इतना जानता था — कहीं उसकी गर्दन के पीछे, कोई लॉक है। और वो लॉक ही उसकी आंखों पर बंधी पट्टी और हथकड़ियों को कंट्रोल करता है। पर कहां? कैसे?

कविता भी कुछ खास मदद नहीं कर सकती थी।
"मुझे नहीं पता ताला कहां है," उसने कहा। "बस इतना सुना है कि तेरी गर्दन के पीछे कहीं लॉक लगा है... शायद किसी होल में फिट है… पर कैसे खोलना है, मुझे नहीं पता।"

अब ये एक अंधेरे में रास्ता तलाशने जैसा था।

अंकित, जिसने अपने मुंह में चाभी पकड़ रखी थी, अब गर्दन झुकाकर इधर-उधर हिलाने लगा — उम्मीद थी कि कोई लॉक टच हो, कोई क्लिक की आवाज आए। उसकी हर हरकत में बेबसी थी — और साथ ही, एक अजीब सी आशा कि शायद अगला मोड़ उसे आज़ादी की तरफ ले जाए।

अंकित मोजे की बदबू से परेशान था, पर अब कोई और रास्ता नहीं था। उसकी आंखों पर पट्टी बंधी थी, हाथ पीछे कसकर बांध दिए गए थे, और अब उसके पास एक ही तरीका बचा था — अपने मुंह से कविता का दूसरा मोजा उतारना।


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