📝 Story Preview:
अनीता ने अपने पति अमित पर आँख मूंदकर भरोसा किया।
प्यार में ज़िंदगी की हर कसौटी पार की —
घरवालों के खिलाफ जाकर शादी की,
नौकरी की, घर चलाया, हर त्याग किया।
लेकिन जब अमित की जिंदगी में फिर एक चेहरा — रौशनी — सामने आया,
तो अनीता टूटी नहीं…
बल्कि उसने एक ऐसा फैसला लिया
जो प्यार, वफादारी और सत्ता के मायनों को ही पलट देता है।
अब सवाल ये नहीं कि अनीता ने माफ किया या बदला लिया…
सवाल ये है कि
क्या अमित अब वही रहेगा जो था?
या बनेगा वो, जो अनीता चाहती है?
कहानी में मिलेगा:
✅ पति-पत्नी और तीसरे रिश्ते की उलझन
✅ पावर और कंट्रोल की जंग
✅ जब एक पुरुष अपनी पहचान ही खो देता है
✅ और... जब प्यार एक क़ैद बन जाता है!
क्या आप तैयार हैं वो जानने के लिए जो अमित के साथ हुआ?
जानिए कैसे 'प्रेम' और 'स्वामित्व' के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है।
अमित और अनीता की शादी को अब लगभग दो साल हो चुके थे। दोनों एक सधन, शांत और समझदारी भरी शादीशुदा ज़िंदगी जी रहे थे। दोनों ही नौकरीपेशा थे—अनीता एक प्रतिष्ठित कंपनी में सीनियर असिस्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत थी, जबकि अमित, जिसने बी.एड किया था, सरकारी स्कूल में शिक्षक बनने की उम्मीद में दिन गिन रहा था। अभी वो एक प्राइवेट स्कूल में थोड़ी-बहुत तनख्वाह पर पढ़ा रहा था, और खाली समय में कोचिंग क्लास लेकर कुछ अतिरिक्त आमदनी भी कर लेता था।
एक सुबह की बात है। अमित ने नहा-धोकर फ्रेश होकर कपड़े पहनने के लिए अलमारी खोली। वैसे तो उसे अपनी अलमारी से मतलब होता था, पर उस दिन जाने क्या सोचकर उसने अनीता की अलमारी भी खोल दी। अंदर जो देखा, उससे वो थोड़ा चौंक गया—अनीता की अलमारी में न कोई साड़ी थी, न सलवार-कमीज़, न कोई पारंपरिक भारतीय परिधान। पूरी अलमारी बस कोट-पैंट और ऑफिस की फॉर्मल ड्रेसों से भरी हुई थी।
थोड़ी हैरानी के साथ, अमित ने मुस्कुराते हुए अनीता से पूछा,
"यार अनु, तुम्हारे सारे पुराने कपड़े—साड़ियाँ, सलवार-कमीज़ वगैरह कहाँ चले गए? एक भी नहीं दिख रही।"
अनीता उस वक्त मोबाइल देख रही थी, उसने बड़े ही कूल अंदाज़ में जवाब दिया,
"अरे वो सब पुराने हो चुके थे। अब मैं ऑफिस में भी ज़्यादातर कोट-पैंट पहनती हूँ, और घर में जीन्स-टीशर्ट ज्यादा कंफर्टेबल लगती है। तो वो पुराने कपड़े तो वैसे भी यूज़ नहीं हो रहे थे। बर्तनवाली आई थी, तो मैंने उसे दे दिए, बदले में कुछ बर्तन ले लिए।"
अमित ने हँसते हुए सिर हिलाया,
"हां, सही किया। पर यार, कभी-कभार घर पर पहनने के लिए तो कुछ रखना चाहिए न? तुम्हें साड़ी में देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, तुम सच में बहुत खूबसूरत लगती हो जब साड़ी पहनती हो।"
अनीता ने उसकी तरफ देखा, फिर मुस्कुराते हुए बोली,
"तुम्हें तो पता है कितना टाइम मिलता है मुझे... और साड़ी वगैरह संभालने का अब मन ही नहीं करता। वैसे..." — उसने थोड़ा रुककर मजाकिया लहजे में कहा — "अगर तुम्हें साड़ी इतनी पसंद है, तो तुम्हारे लिए ले आती हूँ।"
और वो खिलखिलाकर हँस पड़ी।
अमित ने थोड़ा झेंपते हुए कहा,
"अरे यार, मेरा वो मतलब नहीं था। घर में दो ही लोग हैं और अगर दोनों ही पैंट-शर्ट में रहेंगे तो घर का माहौल कैसा लगेगा? कोई तो होना चाहिए जो इंडियन ड्रेसेज़ पहने, जो उस एहसास को बनाए रखे।"
अनीता अब भी मुस्कुरा रही थी, लेकिन उसकी आँखों में हल्की शरारत भी चमक रही थी—जैसे कुछ सोच रही हो, कुछ प्लान कर रही हो...
उस दिन जब अमित और अनीता के बीच साड़ी की बात हुई थी, तो अनीता ने मुस्कुराकर कहा था,
"हाँ बात तो सही है... चलो, मैं कुछ सोचती हूँ।"
और फिर वहीँ बात वहीं अधूरी रह गई थी।
दिन बीतते चले गए। तकरीबन एक महीना बीत गया।
एक शुक्रवार की रात, खाना खा कर दोनों सोफे पर बैठे थे। टीवी चल रहा था, पर ध्यान किसी का नहीं था। अमित ने अचानक बात छेड़ी,
"यार अनु, तुमने उस दिन के बाद कुछ सोचा?"
अनीता ने चौंक कर उसकी ओर देखा,
"किस बारे में?"
"अरे वही... साड़ी पहनने वाली बात," अमित बोला कुछ संकोच से।
अनीता ने एक हल्की सी मुस्कान के साथ कहा,
"मैंने कब कहा था कि मैं साड़ी पहनूँगी? मैंने तो बस इतना कहा था कि अगर तुम्हें साड़ी इतनी पसंद है, तो तुम ही पहन लो। और तुम खुद ही तो कहते हो कि साड़ी पहनकर कोई भी खूबसूरत लग सकता है... तो क्यों न तुम ही ट्राय कर लो?"
अमित थोड़े खीझते हुए बोला,
"क्या यार, तुम हर बार बात को उलटी दिशा में क्यों ले जाती हो?"
अनीता ने चुटकी ली,
"तो तुम सीधी दिशा में ले लो, और मेरी बात मान लो। हर बार क्यों मैं ही तुम्हारी बात मानूँ? तुम कभी मेरी बात क्यों नहीं मानते?"
बात-बात में बहस छिड़ गई। छोटे से मज़ाक ने तूल पकड़ लिया। दोनों एक-दूसरे की बातों में तर्क ढूंढ़ते रहे, पर सुलह की राह नहीं निकली। नाराज़गी बढ़ती गई।
आखिरकार दोनों बिस्तर पर पीठ करके सो गए—एक-दूसरे से मुँह फेर कर, चुपचाप।
सुबह भी वही सन्नाटा पसरा रहा। अनीता ने अमित से बात तक नहीं की।
उसे अमित की ये आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी—कि वह कभी अपनी गलती नहीं मानता, बहस करता है और फिर खुद ही लड़कियों की तरह रूठ जाता है।
हर बार वही मनाने जाती थी। लेकिन इस बार, अनीता ने सोच लिया था—अब नहीं।
अब अमित को खुद समझाना पड़ेगा कि रिश्ते सिर्फ मनवाने से नहीं, मानने से भी चलते हैं।
पूरा हफ्ता बीत गया। एक ही घर में रहते हुए, दोनों अजनबियों की तरह रहने लगे। न बातचीत, न नज़रों का सामना।
अनीता ने कई बार चाहा कि बात खत्म करे, पर हर बार अमित का ठंडा रवैया उसे रोक देता।
आखिरकार एक शाम, उसने खुद को संभाला, गुस्से को निगला, और जाकर अमित के पास बैठ गई।
धीरे से उसका हाथ पकड़ा और बोली,
"अमित... देखो, अगर तुम्हारी दिली ख्वाहिश है कि घर में साड़ी और इंडियन ड्रेस हों, तो मुझे कोई ऐतराज नहीं है। बस तुम नाराज़ मत रहो। मैं अपनी गलती मानती हूँ... प्लीज़ माफ कर दो।"
अमित मुस्कुराया, जैसे उसी पल का इंतज़ार था।
"अब आया न ऊँट पहाड़ के नीचे!" उसने हँसते हुए कहा।
"ठीक है... माफ किया।"
अनीता ने भी हँसते हुए सिर हिलाया,
"ठीक है, मैं आज ही तुम्हारी पसंद की चीज़ें ले आऊँगी... पर एक शर्त है।"
"क्या?" अमित ने चौंककर पूछा।
"तुम्हें भी मेरे साथ चलना पड़ेगा शॉपिंग के लिए।"
"ठीक है, मैं रेडी हूँ!" अमित झट से बोला।
थोड़ी ही देर में दोनों तैयार हो गए। अनीता ने कार ड्राइव की और वे मार्केट की ओर निकल पड़े।
पहला पड़ाव था एक सुंदर सी साड़ी की दुकान। वहाँ अनीता ने अमित की पसंद से एक प्यारी सी साड़ी खरीदी—सॉफ्ट फैब्रिक, हल्के रंग की, बेहद एलीगेंट।
फिर उससे मैच करती आर्टिफिशियल ज्वेलरी ली गई, चूड़ियों का सेट, नेल पॉलिश, लिपस्टिक—सब कुछ एकदम मैचिंग।
अमित थोड़ा अचरज में तो था, लेकिन ख़ुश भी। उसकी बात जो मानी जा रही थी।
घर लौटते वक़्त अनीता ने कहा,
"तुम घर चलो, मैं थोड़ा शॉपिंग और करके आती हूँ।"
अमित घर लौट आया, जबकि अनीता मार्केट में दोबारा कुछ और लेने निकल गई।
वो क्या खरीद रही थी, अमित ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
उसे तो बस यह सुकून था कि उसकी बात अनीता ने मान ली थी।
पर वो नहीं जानता था कि अनीता इस बार सिर्फ बात मानने नहीं, कुछ सिखाने की तैयारी में है...
शाम का समय था। दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया। हर दिन की तरह उस दिन भी अमित ने खाने के बाद अपनी चाय की फ़रमाइश की। अनीता ने मुस्कुराते हुए उसे चाय दी, और अमित आराम से पी गया। लेकिन आज की चाय में कुछ अलग था—कुछ ऐसा जो धीरे-धीरे अमित की पलकों को भारी करने लगा।
उसे लगा जैसे उसे नींद आ रही है। आंखें बंद होती चली गईं... और फिर सब सन्नाटा।
जब दोबारा होश आया, तो समय का कोई अंदाज़ा नहीं था।
उसने खुद को हिलाने की कोशिश की—पर उसके हाथ, उसके पैर, जैसे किसी ने बाँध रखे थे।
आँखें खोलना चाही, पर कुछ भी नज़र नहीं आया।
उसकी साँसें तेज़ होने लगीं।
हर अंग में कुछ खिंचाव, कुछ दर्द था।
"ये क्या हो रहा है?" उसके मन में चीख उठी।
वह ज़ोर से चिल्लाया, "अनीता! अनीता!"
तभी एक जानी-पहचानी आवाज़ आई, जो पास से ही थी,
"क्यों चिल्ला रहे हो? मैं यहीं हूँ... डरो मत, अपने ही घर में हो।"
अनीता ने उसके माथे से पसीना पोंछा। कुछ राहत मिली।
"ये तुमने क्या किया है अनीता? मुझे बाँध क्यों रखा है?" अमित बोला काँपती आवाज़ में।
अनीता ने एक शरारती मुस्कान के साथ कहा,
"बताती हूँ मेरी जान... इतनी क्या जल्दी है?"
फिर धीरे से उसने अमित की आँखों से पट्टी हटाई।
अमित की नज़र सबसे पहले अपने शरीर पर पड़ी—और वह अवाक् रह गया।
उसने देखा कि उसने कोई बनियान या टीशर्ट नहीं पहनी थी, बल्कि...
...एक सुनहरे वर्क वाला ब्लाउज पहना हुआ था।
नीचे उसी से मिलती-जुलती पिंक रंग की पेटीकोट कसकर बाँधी गई थी।
कमर पर चाँदी की करधनी झिलमिला रही थी।
हाथों में साड़ियों की चुड़ियाँ खनक रही थीं।
अमित की आँखें फैल गईं, चेहरे पर हैरानी और अपमान दोनों छलकने लगे।
"ये... ये क्या किया है तुमने मेरे साथ?" वो बौखलाया।
अनीता ने अपनी बाहें मोड़ीं, और पूरे आत्मविश्वास से बोली,
"भूल गए क्या? हमारी लड़ाई? तुम्हारी इच्छा थी कि साड़ी और इंडियन ड्रेस घर में हों...
तो मैंने वो भी मान ली। पर मेरी भी तो इच्छा थी न... कि तुम एक बार इन्हें पहन कर देखो।"
"और वैसे भी... घर में मर्दों वाले सारे काम तो मैं ही करती हूँ।
कार किसने खरीदी? घर किसके पैसों से है? सैलरी किसकी ज़्यादा है?
तो फिर मैं क्यों पहनूँ ये सब साड़ी-ब्लाउज? तुम क्यों नहीं?
अब से हर शनिवार और रविवार, तुम 'अनीता' बनकर घर में रहोगे—साड़ी में, गहनों में, और घर के सारे काम करोगे।"
"और रात को चाय अब मैं नहीं बनाऊँगी।
अब से तुम बनाओगे... और मुझे दे जाओगे, मेरे पैरों तक।"
अमित अवाक् था।
"तुम... तुम पागल हो गई हो क्या?" वो चीखा।
"नहीं," अनीता ठंडे लहजे में बोली, "अब बारी है तुम्हारे दिमाग के ठीक होने की।"
"तुम ऐसा कैसे कर सकती हो?" अमित ने विरोध जताया।
अनीता ने हँसते हुए कहा,
"खुद ही तो कहते थे न कि साड़ी पहनकर कोई भी खूबसूरत लग सकता है?
तो अब लगो न खूबसूरत... है है है!"
अमित बौखला उठा,
"प्लीज़ अनु, ऐसा मत करो... कोई देखेगा तो क्या कहेगा?"
"जो कहना हो कहने दो," अनीता ने दृढ़ता से कहा।
"और हाँ... आज से तुम अपने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना बंद कर रहे हो। कोचिंग क्लास भी नहीं।"
अमित का दिल बैठ गया।
"क्यों?" उसने कांपते स्वर में पूछा।
"क्योंकि मुझे सब पता चल चुका है," अनीता बोली।
"रौशनी कौन है अमित?"
अमित सन्न रह गया।
अनीता ने अपने मोबाइल में कुछ तस्वीरें दिखाई—अमित और रौशनी की साथ-साथ हँसती हुई, पार्क में, एक कैफे में...
अब अमित के पास कहने को कुछ नहीं था। आवाज़ तक नहीं निकल रही थी।
उसका चेहरा पीला पड़ चुका था।
"क्या हुआ?" अनीता ने तीखे स्वर में कहा।
"बस? और कुछ सबूत चाहिए? मुझे बेवकूफ समझा था?"
"मेरे पैसों से, मेरी कार में बैठकर, किसी और लड़की के साथ गुलछर्रे उड़ाओगे...
और मुझ पर ही आर्डर चलाओगे?"
अमित ने कुछ कहना चाहा, पर अनीता ने हाथ उठाकर रोक दिया।
"अब सुनो अमित... ये सिर्फ़ शुरुआत है। अब तुम देखो, कैसे तुम्हारे झूठ की हर परत उतरती है।
कमरे की हवा में एक अजीब सी खामोशी थी। वो खामोशी, जो तूफ़ान से पहले आती है।
अमित अब भी अनीता की आँखों में देख रहा था — जहाँ नफ़रत नहीं थी, पर प्यार भी वैसा नहीं बचा था। वहाँ कुछ और था... एक दृढ़ निश्चय, एक निर्णय... जो शायद पलटने वाला नहीं था।
अनीता ने एक गहरी साँस ली और फिर बोली — आवाज़ में पूरी गंभीरता थी,
“वैसे मेरी जगह कोई और लड़की होती न, तो अब तक तुम्हें धक्के मार कर घर से बाहर निकाल देती। लेकिन मैं तुमसे प्यार करती हूँ।”
अमित की आँखें भर आईं।
“मैं समझती हूँ कि अगर घर में वाइफ ज़्यादा कमाए, तो हस्बैंड के मन में जलन या हीन भावना आ सकती है… कई बार उसी से ऐसी ग़लतियाँ हो जाती हैं। पर मैं ये भी जानती हूँ कि तुम भी मुझसे प्यार करते हो।”
अमित अब सिर झुकाए हुए था। उसे कोई सफाई नहीं सूझ रही थी।
“इसलिए न तो मैं तुम्हें तलाक दूंगी और न ही घर से निकालूंगी। लेकिन...”
अनीता रुकी, फिर आँखों में सीधी नज़र डालते हुए बोली,
“…अब सब कुछ वैसे नहीं चलेगा जैसे तुम चाहते थे। समझे?”
अमित ने धीरे से कहा, “थैंक्यू अनीता… मैं वादा करता हूँ, अब कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगा। प्लीज़… मुझे माफ़ कर दो। मैं शर्मिंदा हूँ।”
उसने हाथ जोड़ दिए।
“प्लीज़... जो सजा चाहो मुझे दे दो, पर माफ कर दो।”
अनीता ने ठंडी मुस्कान के साथ कहा,
“हम्म… सज़ा तो तुम्हें मिलेगी ही। और अब तो तुम खुद ही मांग रहे हो, तो सुनो ध्यान से।”
“अब से, जब तक तुम्हारी गवर्नमेंट जॉब नहीं लगती, तुम घर से बाहर नहीं जाओगे।
घर का सारा काम तुम करोगे — झाड़ू, पोंछा, बर्तन, कपड़े, खाना बनाना।
और खाली समय में पढ़ाई करोगे — तैयारी करोगे नौकरी की।
और…”
अनीता ने अपनी आवाज़ और सख़्त की,
“…जब मैं ऑफिस से लौटूं, तो जो कुछ मैं कहूँगी, वो मानोगे। समझे?”
अमित ने सर हिला दिया। उसके पास और कोई विकल्प नहीं था।
“इसके अलावा तुम्हारी बहुत इच्छा थी कि कोई इंडियन ड्रेस पहने…”
वो हँसी, एक ठंडी और तयशुदा हँसी थी।
“…तो अब से तुम घर में वही पहनोगे। साड़ी, सलवार, ब्लाउज, पेटीकोट — जो भी मैं दूँगी।”
अमित की आँखें फटी की फटी रह गईं।
“हर सुबह मेरे उठने से पहले उठोगे — झाड़ू लगाओगे, चाय बनाओगे, और मेरे लिए तैयार होकर लंच पैक करोगे।”
वो कुछ कहना चाहता था, पर अनीता ने हाथ उठाकर रोक दिया।
“और हाँ… अगर कभी कोई भी बेवकूफी की — जैसे समय से न उठे, या काम में गलती करे, या मेरी बात न माने — तो तुम सज़ा के लिए तैयार रहो।
मैं तुम्हें मुर्गा बनाऊंगी… हाथ-पैर बांध दूंगी… और जब तक मेरा मन नहीं करेगा, वैसे ही बंधे रहोगे।”
अमित अब थोड़ा काँप रहा था,
“पर… अनी…”
“कोई ‘पर’ नहीं अमित,” अनीता ने उसे काटते हुए कहा,
“ये फाइनल है। अगर तुम्हें ये पसंद नहीं, तो मैं अभी अपना सामान लेकर मायके चली जाती हूँ।”
वो चुप रहा।
“तो चुप रहने का मतलब ‘हाँ’ है। गुड डिसीजन।”
फिर उसने अमित के हाथ-पैर खोल दिए।
अमित थककर बिस्तर पर बैठ गया, लेकिन वो जानता था — अब जो शुरू हो चुका है, वो किसी खेल जैसा नहीं है।
अनीता ने एक डिब्बा खोला और बोली,
“सबसे पहले नेलपॉलिश लगाएँगे… फिर मेहंदी… फिर तुम ब्रेकफास्ट बनाओगे।”
वो सामने बैठ गई — मेज पर बिठाकर, अपने हाथों से अमित की उंगलियों पर गुलाबी नेलपॉलिश लगाने लगी।
सर्द शाम की वो घड़ी थी जब अनीता रोज़ की तरह ऑफिस से लौटी। थकी हुई, मगर चेहरे पर हल्की मुस्कान थी — वो मुस्कान जो धीरे-धीरे अमित के बदलते बर्ताव से आ रही थी। दरवाज़ा खोला, अंदर आई, और देखा कि अमित पहले से ही किचन में कुछ सजा रहा था। गुनगुना खाना और गुलाब जल की खुशबू।
“वाह अमित, तुम तो सच में परफेक्ट वाइफ बन गए हो,” अनीता ने हँसते हुए कहा।
अमित ने सिर झुकाया, मगर उसके मन में तूफ़ान चल रहा था। वो जानता था, अब बस कुछ मिनटों का खेल बचा है।
खाना खाने के बाद, अनीता ने सोफे पर बैठते हुए कहा,
“चलो ज़रा टीवी ऑन करते हैं, कुछ हल्का-फुल्का देखते हैं…”
रिमोट उठाया, न्यूज़ चैनल लगाया —
और तभी स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज़ का रेड बैनर चमका:
🔴 "देखिए! स्कूल टीचर अमित श्रीवास्तव अपनी पत्नी को बेवक़ूफ़ बना कर, प्रेमिका संग मॉल में रंगरलियाँ मना रहा है!"
अगले ही पल स्क्रीन पर वो वीडियो चलने लगा —
रौशनी के साथ मॉल में घूमता हुआ अमित, उसके साथ हँसता, फिर बीच मॉल में उसे ज़ोरदार किस करता अमित।
टीवी पर सब कुछ चल रहा था।
अमित ठीक उसी पल किचन से प्लेट लेकर बाहर आया — लेकिन स्क्रीन पर खुद को देखकर उसके हाथ से प्लेट गिर पड़ी।
छनननन…
अनीता ने धीरे से टीवी की ओर इशारा किया — आवाज़ बंद कर दी, लेकिन स्क्रीन अब भी सब कह रही थी।
वो अमित की ओर देखती रही।
"क्यों?"
बस एक शब्द। आवाज़ सर्द थी, आँखें आग सी।
अमित काँप गया।
“म… मैं… अनीता… वो… मैं…”
"तुमने मुझे कहा था कि तुम घर में हो, मेरी बात मानते हो… नेलपॉलिश, चाय, झाड़ू, मेकअप सब कर रहे हो… और पीछे से ये?”
अमित ने अब गिरते हुए स्वर में कहा,
"मुझे माफ़ कर दो अनीता… ये बस एक गलती थी… बस एक बार की…”
अनीता उठी — अब उसमें वो पत्नी नहीं थी जिसे अमित झूठ बोल कर मना लेता।
उसकी आँखों में अब पत्नी नहीं, इंसाफ था।
"एक बार की? जब तुमने नेलपॉलिश हटा कर स्कूल गए थे, वो एक बार थी? जब रौशनी संग मॉल गए थे, वो एक बार थी? जब मुझे बेवकूफ बना कर मेरी आंखों में देख कर झूठ बोले थे, वो भी एक बार थी?"
अमित अब फर्श पर बैठ चुका था।
“प्लीज़ अनीता… मेरी बात सुनो…”
“मैंने तुम्हें मौका दिया था सुधारने का। तुमने मेरी सजा को मज़ाक समझा। अब सज़ा मैं तय करूंगी… और अबकी बार ये कोई ‘रोलप्ले’ नहीं होगा, अमित। ये रियल लाइफ है।”
रातभर अमित को नींद नहीं आई।
उसका मन बेचैन था, शरीर थका हुआ और आत्मा अपराध-बोध से कुचली हुई।
अनीता से की गई बेवफाई का बोझ उसकी छाती पर पड़ा था — वो जानता था, उसने अनीता के भरोसे को तोड़ा है, और अब कोई भी माफ़ी शायद कम ही पड़े।
सुबह-सुबह डरते-डरते, काँपते हाथों से चाय का कप बनाकर अमित ने अनीता के पास लाकर रखा।
अनीता उस वक्त शांत थी — लेकिन वो खामोशी किसी तूफान से कम नहीं थी।
जब वो चाय पी रही थी, अमित ने धीरे-धीरे अपनी सफाई देनी शुरू की।
वो बोले जा रहा था — अपने अफेयर की सफाई, अपने झूठ को छुपाने की वजहें, और फिर माफी की गुहार।
अनीता बस सुनती रही। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
फिर उसने धीरे से कहा —
“जो हुआ… वो नहीं होना चाहिए था। और ये गलती… माफ करने लायक नहीं है, अमित।”
अमित की आँखें भर आईं —
"मैं जानता हूँ… पर जो भी सज़ा दोगी, वो मंज़ूर है। बस एक मौका और दे दो।”
अनीता की आँखों में कठोरता लौट आई।
उसने कप उठाया, खाली किया… और उठ खड़ी हुई।
"ठीक है… तो सुनो।”
उसने एकटक अमित की ओर देखा —
"अपने सारे कपड़े उतारो… और उन्हें एक बैग में पैक करके मेरी गाड़ी में रख दो।"
अमित कुछ देर तक स्तब्ध खड़ा रहा — लेकिन फिर चुपचाप आदेश का पालन करने लगा।
कपड़े एक-एक कर के उतारे —
शर्ट… पैंट… टीशर्ट… अंत में बची सिर्फ अंडरवियर और बनियान।
अनीता का चेहरा अब और भी सख्त हो गया।
"अब ये जो अंडरवियर और बनियान है, इसे काट दो। अभी… यहीं… मेरी आंखों के सामने।”
अमित ने कांपते हुए कैची उठाई और अपने आखिरी कपड़े भी टुकड़ों में काट दिए।
अब वो नंगा था — सिर झुका हुआ, शर्म से डूबा हुआ… बिल्कुल बेबस।
अनीता बिना कुछ बोले ऑफिस चली गई।
शाम का समय
दरवाज़ा खुला।
अनीता थकी-हारी घर लौटी। उसने दरवाज़ा खटखटाया तो अमित दौड़कर आया और दरवाज़ा खोला — खुद को दिवार के किनारे खड़ा कर लिया।
अनीता की नज़र भी नहीं पड़ी उस पर। वो सीधी जाकर सोफे पर गिर पड़ी।
उसके चेहरे पर थकान, गुस्सा, तनाव… सब कुछ एकसाथ था।
वो चुप थी, लेकिन भीतर कुछ चल रहा था।
फिर कुछ क्षणों की खामोशी के बाद उसने कहा —
"अमित, इधर आओ।"
अमित धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
"सर पर खड़े होने को नहीं कहा है — नीचे बैठो।"
अनीता की आवाज़ सख्त थी।
अमित बैठ गया — सिर झुका हुआ।
"मेरे पैर से हिल्स उतारो… और सॉक्स भी।”
उसने ऐसा ही किया — धीरे से अनीता के पैर छुए, हील्स निकाली, फिर सॉक्स।
"अब इन्हें अच्छे से साइड में रखो, जैसे नौकर करते हैं… और फिर मेरी पैरों की मालिश करो।”
अमित की उंगलियाँ काँप रही थीं — लेकिन उसने मसाज शुरू कर दी।
अनीता की आँखें बंद थीं — लेकिन मन अब भी खुला नहीं था।
धीमे क़दमों से किचन की तरफ़ बढ़ते हुए, उसके दिल में एक डर समाया हुआ था — किसी तूफ़ान के आने से पहले की खामोशी जैसा डर। हाथ धोकर पानी का गिलास और चाय लेकर वो अनीता के पास पहुँचा। अनीता ने बिना उसकी तरफ़ देखे चाय का कप लिया और एक सिप लेने के बाद उठकर बेडरूम की तरफ़ चली गयी।
कुछ देर बाद अमित भी दबे पाँव बेडरूम में पहुँचा। उसने देखा अनीता अपने ऑफिस के कपड़े उतार रही थी, चेहरा थका हुआ और आँखें लाल। उसकी आवाज़ सख़्त थी, "अब क्या है?"
अमित ने झिझकते हुए कहा, "प्लीज़... खाना लग गया है... खा लो।"
अनीता ने एक झटके में मुड़कर उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में ग़ुस्से का समुंदर था।
"अब बहुत चिंता हो रही है? जब सुनीता के साथ रंगरलियाँ मना रहे थे तब ये खाना-वाना याद नहीं आया था? खुद ही खा लो जाकर... और मुझे अकेला छोड़ दो।"
अमित जानता था कि अनीता ने सुबह से कुछ नहीं खाया होगा। वह ऐसे मौकों पर खाना नहीं खाती थी — कुछ भी नहीं बोलती थी, बस खुद से और दुनिया से दूर हो जाती थी। इसलिए अमित भी चुप रहा... और खाना नहीं खाया।
अगले दिन भी यही हुआ।
अनीता सुबह उठी, बिना नाश्ता किए ऑफिस चली गयी। लंच बॉक्स भी नहीं लिया। बस चाय पीकर निकल गयी। और शाम को वापस आकर भी कुछ नहीं खाया।
ये सिलसिला यूँ ही पांच दिन चलता रहा।
हर शाम जब अनीता घर लौटती, अमित दरवाज़ा खोलता, पानी और चाय देता। फिर उसके पैर से उसके हिल्स और सॉक्स उतारता और वो चुपचाप बेडरूम में चली जाती — बिना एक शब्द बोले। अमित का दिल हर दिन और भारी होता जा रहा था।
शुक्रवार की शाम, अनीता थोड़ी अलग लगी। उसकी चाल डगमगा रही थी। शायद उसने शराब पी रखी थी। चेहरा बुझा हुआ था और आँखों में गहराई थी — थकान, ग़ुस्सा और टूटा हुआ भरोसा सब झलक रहा था।
अमित ने हमेशा की तरह उसके सॉक्स और शूज उतारे... लेकिन आज वो खुद को रोक नहीं पाया।
धीरे से बोला,
"देखो अनीता... अब बहुत हुआ। मुझे अपनी गलती का गहरा अफ़सोस है। मैं इन पाँच दिनों में कुछ नहीं खा पाया हूँ... बस तुमसे बात करना चाहता हूँ। प्लीज़ मुझसे बात करो, चाहे मारो, डाँटो... पर ऐसे मत रहो। मैं टूट रहा हूँ..."
अनीता एकदम गुस्से से भर उठी। उसकी आवाज़ काँप रही थी,
"किस बात की सज़ा दूँ तुम्हें? और क्या सज़ा दूँ? प्यार करती हूँ तुमसे, और तुमने वही चीज़ तोड़ी जिस पर हमारा रिश्ता टिका था — भरोसा। बोलो, क्या है इसकी सज़ा?"
अमित चुप था। उसका सिर झुका हुआ था।
अनीता के गुस्से का ज्वालामुखी फूट पड़ा —
"बस एक ही सज़ा है इसकी — मैं तुम्हें अब अपनी आँखों के सामने नहीं देखना चाहती!"
और ऐसा कहते हुए उसने ग़ुस्से में चार-पाँच थप्पड़ जड़ दिए अमित के चेहरे पर। अमित ने कुछ नहीं कहा... न पलटा, न बचा। बस खड़ा रहा — जैसे सज़ा को स्वीकार कर चुका हो।
लेकिन उसी दौरान शायद अनीता का पैर किसी फ़र्श पर रखी चीज़ से टकरा गया और वह लड़खड़ाकर गिरने ही वाली थी कि अमित ने उसे तुरंत थाम लिया।
अनीता को और भी ग़ुस्सा आ गया —
"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे हाथ लगाने की! अब शहादत का मरहम चाहिए? पहले ज़ख्म दिया, अब सहारा दे रहे हो?"
फिर वह अंदर से एक रस्सी निकालकर लायी और अमित के दोनों हाथ पीछे मोड़कर बाँध दिए। फिर उसे खींचती हुई ड्राइंग रूम की खिड़की के पास ले गयी और रस्सी को खिड़की के ग्रिल से बाँध दिया।
"अब वहीं खड़े रहो। जब तक मैं चाहूँगी, वहीं रहोगे। यही तुम्हारी जगह है।"
और दो और थप्पड़ मारे, फिर अपने कमरे में चली गयी।
बिस्तर पर गिरते ही नींद में डूब गयी — शायद शराब, थकान और ग़ुस्से ने एक साथ दिमाग़ को बंद कर दिया था।
और अमित... रस्सियों से बँधा, अंधेरे कमरे के कोने में... खड़ा रहा।
उसकी आँखों से आंसू गिरते रहे — एक टूटा हुआ आदमी, जो अब भी उम्मीद कर रहा था... बस, एक बार अनीता उसे माफ़ कर दे।
अगले दिन सुबह...
अनीता की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। सिर में हल्का दर्द था — शायद रात की शराब और थकान का असर था। उसने तकिये से उठकर इधर-उधर देखा, और मन ही मन सोचा — "अमित अब तक चाय क्यों नहीं लाया? इतनी देर हो गई..."
थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद भी जब अमित नहीं आया, तो अनीता ग़ुस्से से उठी। पैर पटकते हुए बाहर निकली — और जो नज़ारा देखा, उससे उसके पैर वहीं जम गए।
अमित... उसी खिड़की से बंधा हुआ था। बिना कपड़ों के... नींद में, थका हुआ, ठंडा पड़ा हुआ सा।
जो आपने अभी पढ़ा, वो तो बस शुरुआत थी — कहानी का सबसे रोमांचक हिस्सा अभी बाकी है!
पासवर्ड डालिए और जानिए आगे क्या हुआ 🔓
👉 पासवर्ड नहीं पता? Get Password पर क्लिक करो password जानने के लिए।
⭐ ⭐ मेरी कहानी की वेबसाइट पसंद आई हो तो Bookmark करना — भूलना मत!
https://beingfaltu.blogspot.com