Disclaimer

यह ब्लॉग पूरी तरह काल्पनिक है। किसी से समानता संयोग होगी। बिना डॉक्टर की सलाह के दवाइयाँ ((जैसे स्तन वर्धक या हार्मोन परिवर्तन)न लें - यह जानलेवा हो सकता है।— अनीता (ब्लॉग एडमिन)

BeingFaltu Crossdressing Story | मैं था Manish, बन गया Neha – A True Hindi Transformation

📝 Story Preview:

मेरा नाम मनीष है। हमारे घर में कुल चार लोग हैं — मम्मी, पापा, मेरी एक बहन जो मुझसे दो साल बड़ी है, और मैं। घर में सबसे छोटा होने की वजह से मैं सबका दुलारा हूं, लेकिन सबसे ज़्यादा मेरी बहन का। वो जब भी बोर होती है, तो उसका सबसे मनपसंद टाइमपास मैं ही होता हूं — मुझे छेड़ना, तंग करना, चिढ़ाना — यही उसका पसंदीदा शौक है।

पापा सुबह जल्दी ऑफिस चले जाते हैं और रात को देर से लौटते हैं, इसलिए ज़्यादातर वक्त घर पर मम्मी और दीदी के साथ ही गुजरता है।

जब दीदी उन्नीस साल की हुईं, तो उन्होंने पड़ोस के ब्यूटी पार्लर में ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी। लेकिन मम्मी चाहती थीं कि पढ़ाई पर असर न पड़े, इसलिए दीदी एक दिन छोड़कर एक दिन ही पार्लर जाया करती थीं।

एक दिन स्कूल से आकर मैं अपने होमवर्क में लगा हुआ था, और दीदी पार्लर जाने की तैयारी कर रही थीं। तभी अचानक बारिश शुरू हो गई। पार्लर पास ही था, लेकिन बारिश के दिनों में ग्राहक कम ही आते हैं, तो दीदी ने वहां खाली बैठने की बजाय घर पर ही रुकने का फैसला कर लिया। उन्होंने टीवी ऑन करने की कोशिश की, लेकिन लाइट की लो वोल्टेज की वजह से टीवी ने भी काम करना बंद कर दिया।

थोड़ी देर में दीदी मेरे पास आकर बैठ गईं — शायद बोरियत दूर करने के लिए मुझे पढ़ाने का मन बनाया, लेकिन वो भी ज़्यादा देर नहीं चला। कुछ ही देर में मम्मी ने उन्हें किसी काम से अपने कमरे में बुला लिया।

जब दीदी वापस आईं, उसी वक्त बिजली भी पूरी ताकत से लौट आई थी। अचानक से कूलर तेज़ स्पीड में चल पड़ा — मैं उस वक्त ठीक कूलर के सामने बैठा था। दीदी को आता देख जैसे ही मैंने ऊपर सिर उठाया, शायद तेज हवा की वजह से कोई बाल मेरी आंख में चला गया।

आंख में तीव्र जलन होने लगी और आंसू बह निकले। मैं आंख को जोर से मलने लगा। दीदी ने ये देखा तो तुरंत रूमाल लेकर मेरे पास आ गईं। उन्होंने रूमाल में हल्की फूंक मारकर मेरी आंख पर लगाना शुरू किया, ताकि जलन थोड़ी कम हो सके। धीरे-धीरे मेरी आंख ठीक तो हो गई, लेकिन हल्की-हल्की जलन अब भी बनी हुई थी।

मैं घर का सबसे छोटा था — दीदी और मम्मी दोनों ही मुझसे बहुत प्यार करते थे, लेकिन जब गुस्सा आता तो डांटने से भी पीछे नहीं हटते थे। दीदी मुझे गुस्से में घूरते हुए बोलीं,
"लड़कियों जैसे बाल रख रखे हैं! जब इनकी देखभाल नहीं कर सकते तो इतने लंबे बाल रखते ही क्यों हो?"

इतने में मम्मी भी कमरे में आ गईं। दीदी ने उन्हें सारी बात बताई, तो मम्मी भी गुस्से में आ गईं।
"कितनी बार कहा है इसे बाल कटवा ले, लेकिन नहीं — इसे तो बस अपनी मनमानी करनी है,"
वो बड़बड़ाती हुई अपने रोज़ के अंदाज़ में किचन की तरफ चली गईं।

पता नहीं उस पल दीदी को क्या सूझा। अचानक बोलीं,
"एक काम कर, इधर आकर ज़रा बैठ।"

मैं कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन उनके कहने पर चुपचाप जाकर बैठ गया। वो खुद मेरे पीछे, पलंग पर बैठ गईं और फिर धीरे-धीरे मेरे बालों में कंघी चलाने लगीं।

थोड़ी देर बाद मैंने महसूस किया कि वो मेरे बालों को दो हिस्सों में बाँट रही हैं।
मैंने थोड़ा झुंझलाकर पूछा, "दिदी, ये आप क्या कर रही हो मेरे बालों में?"
वो मुस्कुराते हुए बोलीं, "कुछ नहीं... तूने हाफ गर्लफ्रेंड मूवी देखी है न? उसमें श्रद्धा कपूर ने जो हेयरस्टाइल बनाई थी, वही ट्राय कर रही हूँ। परसों जब पार्लर गई थी, वहीं सीखी थी। अब प्रैक्टिस करनी है तो तुझ पर कर रही हूँ।"

मैंने कहा, "तो मम्मी पर कर लो न!"
वो हँसते हुए बोलीं, "अरे, ये यंग लड़कियों की हेयरस्टाइल है — मम्मी पर सूट नहीं करेगी। और फिर उन्हें फुर्सत कहाँ कि एक घंटा बैठ जाएं मेरे सामने? तू बस चुपचाप बैठा रह।"

मैंने कोशिश की समझाने की, "देखो दी, मुझे बहुत काम है — स्कूल का होमवर्क पूरा करना है। इतना टाइम नहीं है मेरे पास।"
पर दीदी ने मुस्कुराते हुए कहा, "सब पता है मुझे तेरा काम... अब एक शब्द और नहीं। चुपचाप बैठा रह, और मूव मत करना।"

मैंने हार मान ली और आँखें बंद करके बैठ गया। दीदी पूरी तरह से मेरे बालों में बिज़ी हो गईं।

करीब एक घंटे बाद दीदी ने मेरे बालों में वही श्रद्धा कपूर वाली हेयरस्टाइल बना दी — दो चोटियाँ, जो दोनों कंधों के आगे लटक रही थीं। वैसे तो मेरे बाल पहले से ही काफी लंबे थे — पोनीटेल बनाने पर वो कंधे से नीचे तक आ जाते थे। लेकिन चोटी बनाने के बाद वो मुश्किल से कंधे के आगे तक पहुँच रहे थे।

थोड़ी देर बाद मैं थोड़ा असहज महसूस करने लगा, तो मैंने दोनों चोटियाँ पीछे कर दीं। तभी दीदी ने मेरी तरफ देखा और बोलीं,
"वॉव! तेरे बालों पर तो ये स्टाइल कमाल लग रहा है!"

"अब बस एक मिनट रुकना..."

इतना कहकर वो एक छोटा-सा डिब्बा लेकर मेरे पास आईं।

मैंने थोड़ा डरते हुए पूछा, "ये क्या है?"
वो मुस्कराई और बोलीं, "चुपचाप सुन जो कह रही हूँ। और हाँ, जा के कुर्सी पर बैठ जा।"

मैंने कहा, "ठीक है..." और कुर्सी पर जाकर बैठ गया।

फिर दीदी ने मेरी आँखों पर हल्का-सा आइलाइनर लगाया, फिर काजल, और उसके बाद हल्की गुलाबी लिपस्टिक। थोड़ी सी फेस पाउडर भी लगा दी।

उसके बाद दीदी ने अपना एक नीले रंग का टॉप मुझे पकड़ा दिया,
"ये पहन ले।"

मैंने कुछ कहे बिना, चुपचाप पहन लिया। फिर उन्होंने मेरे गले में मोती की माला पहना दी।

जैसे ही मैं टॉप पहन रहा था, मेरे बालों की चोटियाँ खुल गईं। मेरे बाल वैसे भी बहुत सिल्की और शाइनी थे, तो दीदी बोलीं,
"कोई बात नहीं... अब खुलें बालों में ही सेट कर देते हैं।"

और फिर उन्होंने मेरे खुले बालों को सबसे फीमिनिन स्टाइल में सजा दिया।

थोड़ी देर बाद वो मुस्कराते हुए बोलीं,
"And now... you're ready for the perfect selfie!"

मैंने आईने में खुद को देखा — वो मैं था, लेकिन फिर भी मैं नहीं था।
वो मेरा पहला क्रॉसड्रेसिंग का अनुभव था... और मैं आज भी उस पल को कभी नहीं भूल पाया।

पिछले एक महीने से मेरी कमर में अजीब सा दर्द हो रहा था। न ठीक से बैठ पाता था, न खड़ा हो पाता था। मम्मी-पापा ने शहर के अच्छे से अच्छे डॉक्टर से मिलवाया, दर्जनों टेस्ट करवाए, पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। हालत ऐसी हो गई थी कि ज़्यादा देर खड़े रहो तो दर्द, बैठो तो दर्द — और लेटो तो करवट बदलना भी भारी लगने लगा।

एक दिन मम्मी को उनकी किसी जान-पहचान वाली आंटी ने एक पंडितजी का नाम बताया। कहा कि बहुत सटीक टोटके बताते हैं, और कई बार उनके उपायों से आराम भी मिला है। मम्मी तो वैसे भी थक चुकी थीं डॉक्टरों के चक्कर लगाकर, तो तुरंत बुला लिया पंडितजी को।

जब पंडितजी घर आए, मैं दूसरे कमरे में टीवी देख रहा था — मेरी नज़र में ये सब बस टाइमपास था। पर दीदी और मम्मी दोनों उनके पास ही बैठी थीं, बहुत ध्यान से उनकी बातें सुन रही थीं।

पंडितजी चले गए। मुश्किल से दो मिनट हुए होंगे कि दीदी मेरे कमरे में घुस आईं — और वो कुछ ज़्यादा ही खुश लग रही थीं। मतलब... इतनी खुश तो उन्होंने कॉलेज में एडमिशन मिलने पर भी नहीं हुई थीं।

मैंने झट से पूछा, "क्या हुआ दी, इतनी खुश क्यों हो?"

वो एक आंख मारते हुए बोलीं, "तेरे लिए सरप्राइज़ है, छोटू!"

"क्या? कैसा सरप्राइज़?" — मैं थोड़ा उत्साहित हो गया।

दीदी ने मुस्कराते हुए कहा, "अभी नहीं बताऊंगी... इंतज़ार कर!"

तभी मम्मी भी कमरे में आ गईं। मैंने फौरन पूछा, "मम्मी, दीदी क्या बोल रही हैं? कोई सरप्राइज़ है मेरे लिए?"

मम्मी बोलीं, "एक मिनट बैठ, बताती हूँ..." फिर वो कुछ सोचते हुए बोलीं,
"तू कुछ दिन पहले किसी मोबाइल के बारे में बात कर रहा था न?"

बस ये सुनते ही मैं उछल पड़ा! "हां मम्मी! बोल रहा था — और अभी उस पर डिस्काउंट भी चल रहा है। आप दिला दो न प्लीज़!"

मम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा, "ठीक है, दिला दूंगी... लेकिन..."

इतना कहकर मम्मी चुप हो गईं।

मैं थोड़ा हैरान होकर बोला, "क्या हो गया मम्मी? अचानक क्या सोचने लगीं? बात पूरी तो करो! कब दिलाओगी मोबाइल?"

दीदी बीच में कूद पड़ीं, "अरे ज़रा सब्र तो कर, पहले बात तो सुन ले मम्मी की।"

मैंने चिढ़ते हुए कहा, "सुन तो रहा हूं, पर मम्मी बोल ही कहां रही हैं?"

अब मैं और दीदी आपस में बहस करने लगे, बिल्कुल बच्चों की तरह।

तभी मम्मी ने बीच में टोका, "लड़ो मत दोनों, और ध्यान से सुनो मेरी बात।"

फिर उन्होंने मुझे सीधा देखा और बोलीं, "तुम्हें मोबाइल चाहिए, है ना?"

मैंने तुरंत कहा, "हाँ!"

मम्मी ने गंभीर होते हुए कहा,
"देखो बेटा, इतने दिनों से तुम्हारी कमर में दर्द है। हम तुम्हें कई डॉक्टरों के पास ले गए, दवाइयाँ दिलाईं, टेस्ट करवाए — लेकिन आराम नहीं मिला। अब पंडितजी ने एक उपाय बताया है। अगर तुम वो कर लोगे... और तुम्हारी तबीयत में सुधार आया — तो मैं तुम्हें मोबाइल ज़रूर दिला दूंगी।"

अब मम्मी बोलती जा रही थीं... पर सच कहूं तो मेरी रुचि सिर्फ उस 'मोबाइल' वाले हिस्से में थी। टोटका क्या है, उपाय कैसा है — मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।

मैं तो बस ये सोच रहा था — मोबाइल मिलेगा... या नहीं?



"हाँ पर मोबाइल के बीच में अब ये सब कहां से आ गया? कमर दर्द, दवाइयाँ वगैरह?" — मैंने झुंझलाते हुए कहा।

उससे पहले कि मम्मी कुछ कहतीं, दीदी बीच में कूद पड़ीं — "तुझे एक बार में बात समझ नहीं आती क्या? पहले जो बोल रही हैं वो सुन ले। और हां, अगर इस बार मम्मी की बात बीच में टोकी ना, तो मोबाइल कैंसिल! और बात पूरी होने के बाद अगर कोई नखरा किया — तो हमेशा-हमेशा के लिए मोबाइल गया समझ?"

मैंने भारी दिल से सिर झुकाकर कहा, "ठीक है दी... समझ गया।"

अब मैं चुप हो गया। दीदी की धमकी और मोबाइल की चाह — दोनों ने मेरी ज़ुबान पर ताला लगा दिया था।

मम्मी वहीं से दोबारा शुरू हुईं — "देखो बेटा, मैं बात घुमाऊंगी नहीं। जो है साफ-साफ बता रही हूँ। और मुझे ‘ना’ नहीं सुननी है, ये सब तुम्हारे भले के लिए ही है।"

मैं कुछ बोलने ही वाला था कि दीदी की बात याद आ गई — मैंने खुद को रोका।

मम्मी ने आगे कहा — "मैंने तुम्हारी बीमारी के बारे में एक पंडितजी से बात की थी। उन्होंने तुम्हारी कुंडली देखकर बताया कि तुम पर किसी ने काला जादू किया है। और इसी वजह से कोई दवा असर नहीं कर रही।"

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था — काला जादू? Seriously?

मम्मी की आवाज़ में दृढ़ता थी — "पंडितजी ने जो उपाय बताया है, वो थोड़ा कठिन है... लेकिन तुम्हें करना ही पड़ेगा। कल से सावन शुरू हो रहा है। और पूरे सावन भर, तुम्हें लड़की बनकर रहना होगा।"

"क्या?" — मेरी आवाज़ हलक में अटक गई।

"और हर सोमवार को 16 श्रृंगार करके, व्रत रखकर, शिवजी के मंदिर जाकर उन्हें जल और बेलपत्र चढ़ाना होगा।"

अब मैं बस मम्मी का मुँह ताक रहा था — जैसे उन्होंने मुझे सज़ा-ए-मौत सुना दी हो।

"अगर ऐसा किया," मम्मी बोलीं, "तो तुम पूरी तरह से ठीक हो जाओगे। और वादा रहा — फिर मोबाइल भी मिलेगा।"

मैं अब भी स्तब्ध था। कुछ बोल ही नहीं पाया।

तभी दीदी ने कमान संभाली — "इसलिए हमने फैसला लिया है कि इस एक महीने तुम स्कूल नहीं जाओगे। अगर जाना चाहो तो सिर्फ फीमेल ड्रेस में जाना होगा — यानी सलवार-सूट या स्कर्ट, जो भी लड़की की यूनिफॉर्म होती है।"

"मैं नहीं जाऊंगा कहीं। और मैं ये सब नहीं करने वाला!" — मैंने गुस्से से जवाब दिया।

दीदी का लहजा सख्त हो गया — "हमने तुमसे पूछा नहीं है। ये सूचना दी गई है। और हां, शायद तुमने गौर नहीं किया, मम्मी ने जब '16 श्रृंगार' कहा था — उसका मतलब सिर्फ लिपस्टिक या चुन्नी नहीं है।"

वो रुक कर बोली —
"सुबह नहाकर बालों में चोटी बनाना, साड़ी पहनना, साड़ी से मैचिंग इयररिंग्स, नाक में नथ, गले में नेकलेस, होंठों पर लिपस्टिक, आंखों में काजल, गालों पर पाउडर, हाथों में चूड़ियाँ, कमर में कमरबंद, पैरों में पायल, और हाथ-पैर के नाखूनों में नेल पॉलिश लगाकर तैयार होकर शिव मंदिर जाना होगा। पूरा-पूरा लड़की बनकर!"

"मम्मी ने ये सब कब कहा?" — मैंने अविश्वास से पूछा।

दीदी ने ताना मारा — "तभी तो बोल रही थी कि मम्मी को बीच में मत टोको। अब चुपचाप तैयार हो जाओ — नेहा बनने के लिए!"

"क्या मतलब है नेहा बनने का?" — मैंने चौंक कर पूछा।

दीदी ने हँसते हुए कहा — "अब तुम्हारा नाम भी बदल गया है — नेहा। और सबसे पहले हम ब्यूटी पार्लर जा रहे हैं, जहाँ तुम्हारे कान और नाक छिदवाएंगे।"

"क्या?!" — अब मेरी हालत खराब होने लगी।

"और बाकी चीजें भी..." — दीदी बोलीं।

"क्या मतलब है बाकी चीज़ों से?" — मैं डरते-डरते पूछ बैठा।

"अब सब यहीं जान लोगे क्या? चलो जल्दी! और हां, जींस मत पहनना। कैप्री पहन लो — पार्लर पास ही है।"

मैंने हार मान ली। एक स्लीवलेस बनियान और घुटनों तक की कैप्री पहनकर बाहर आ गया — खुद को शीशे में देखने की भी हिम्मत नहीं हुई।

दीदी ने मुस्कराकर कहा — "अरे वाह, नेहा रेडी हो रही है!"


फिर दीदी मुझे अपने साथ ब्यूटी पार्लर ले गईं। मैं चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल रहा था — भीतर ही भीतर एक अजीब घबराहट थी। अंदर पहुँचते ही उन्होंने मुझे एक नर्म-सी आरामदेह चेयर पर बिठा दिया। पार्लर की हल्की सी खुशबू, दीवारों पर लगे पोस्टर और धीमी म्यूज़िक — सब कुछ अजीब था, अनजाना था।

फिर एक लड़की आई — उसने मेरे कान और नाक को पहले किसी तरल से भिगोई हुई रुई से साफ किया। फिर मेरे कानों और नाक पर छोटे-छोटे निशान बनाए — किसी मार्कर से। उस वक़्त भी मुझे समझ नहीं आया कि मैं यहां क्या करने आया हूं... लेकिन दीदी की आंखों में वो जिद थी जो किसी भी बहस की इजाज़त नहीं देती।

"बस अब एक आख़िरी चीज़... थोड़ा-सा दर्द होगा," — इतना कहकर दीदी ने वो piercing gun मंगवा ली।

मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई।

गन को उसने मेरे पहले कान पर सेट किया — और ठक्!

फिर दूसरे कान पर — वही ठक्, वही झटका, वही सिहरन।

मैंने बस आंखें बंद कर लीं... और सब कुछ सह लिया।

लेकिन मेरी नाक... वो तो मैंने मना कर दी थी। मैंने साफ कहा था — "नहीं दीदी, नाक मत छेदो प्लीज़।"

पर दीदी ने मेरी एक न सुनी — और तीसरी बार ठक्! — इस बार नाक में। मेरी आंखों में पानी आ गया, पर दीदी ने बस मुस्करा कर कहा — "अब तो Neha पूरी लग रही है!"

मैं कुछ बोल नहीं पाया... बस चेयर की कुर्सी पर थमा बैठा रहा।

इसके बाद शुरू हुआ एक और टॉर्चर — waxing का session

जैसे ही दीदी ने कहा "अब हाथ और पैर की वैक्सिंग करेंगे", मैं लगभग चीख पड़ा — "नहीं! मैंने सुना है ये बहुत दर्दनाक होता है... मैं नहीं करवाऊंगा!"

पर दीदी कहाँ मानने वाली थीं?

"ठीक है, वैक्सिंग नहीं... Veet से करते हैं।"

और फिर उन्होंने मेरी पूरी बॉडी — हाथ, पैर, यहां तक कि underarms भी — hair removal cream से साफ कर दिए। कुछ ही देर में मेरी स्किन बिल्कुल चिकनी और मुलायम हो गई थी।

"अब जाकर गरम पानी से नहा लो," — दीदी ने एक lotion पकड़ा दिया — "इसे लगाना, स्किन सॉफ्ट रहेगी।"

नहाने के बाद जब मैं बाहर आया, तो मुझे अपनी ही त्वचा पर यकीन नहीं हो रहा था — न बाल, न खुरदुरापन... बस एक अजनबी-सी चमक।

फिर दीदी ने मुझे मेकअप चेयर पर बिठाया।

चेहरे पर हल्के हाथों से एक सुकूनभरी मालिश की, फिर bleaching cream लगाई — आंखें बंद थीं मेरी, पर महसूस कर सकता था — मेरे अंदर कुछ बदल रहा है।

5-10 मिनट बाद जब मुँह साफ किया गया, तो चेहरे पर कोई हल्की-सी चमक आ गई थी। फिर golden facial cream और गुलाबजल से एक लंबा session चला — कभी उंगलियों का गुदगुदाता स्पर्श, कभी रूई की नमी... और मैं बस वहीं गुम होता जा रहा था।

अंत में, मेरे eyebrows के ऊपर के अनचाहे बाल साफ किए गए — एक-एक कर के।

फिर upper lips की बारी आई। दर्द हुआ... हाँ, थोड़ा ज्यादा ही। लेकिन अब तक तो मैंने मान लिया था — मैं चाह कर भी कुछ नहीं बदल सकता।

सारा काम पूरा हुआ, तो दीदी बोलीं — "यहाँ का काम खत्म... अब बाकी सब घर पर करेंगे।"

मैंने जल्दी से एक बड़ा सा रूमाल उठाया और अपने मुँह पर बाँध लिया। बाहर निकलने में बेशर्म-सी झिझक थी। पर दीदी के चेहरे पर सिर्फ संतोष था।

लेकिन मैं?

मैं अपनी ही हालत देखकर कांप उठा — sleeveless टीशर्ट से मेरे चिकने, बालहीन गोरे हाथ साफ दिख रहे थे। Capri से मेरी smooth, soft legs भी सबको दिख रही थीं। हर निगाह अब मुझे जैसे चीरती जा रही थी... और मैं, रूमाल के पीछे छिपकर खुद को ढकने की नाकाम कोशिश कर रहा था।



घर पहुँचते ही दीदी ने बिना कोई वक्त गँवाए मेरे लंबे बालों को करीने से सुलझाया और सलीके से सेट किया। उनकी उंगलियाँ जब मेरे बालों में चल रही थीं, तो एक हल्की सी सिहरन सी दौड़ गई शरीर में — शर्म और झिझक के साथ एक अजीब तरह की नमी थी हवा में।

फिर उन्होंने अपनी अलमारी से एक ब्लैक ब्लाउज़ निकाला — वो भी हुक आगे वाला, ताकि मैं खुद पहन सकूं। उसके साथ एक मैचिंग पेटीकोट दिया। ब्लाउज़ तो मैंने किसी तरह पहन लिया, हुक लगाने में थोड़ी मशक्कत ज़रूर हुई पर हो गया।

पर असली चुनौती तो पेटीकोट के नाड़े को कसकर बाँधना थी — वो तो जैसे मेरे बस की बात ही नहीं थी।

दीदी मुस्कुराईं और बोलीं — "हट, तू रहने दे," और खुद ही झुककर मेरा पेटीकोट कस कर बाँध दिया। उस पल मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अब सचमुच उनके हाथों में ढल रहा हूँ... हर पल थोड़ा और 'मैं' से दूर और 'नेहा' के करीब।

फिर वो एक बॉक्स लेकर आईं — उसमें थी चूड़ियों का एक multicolour सेट, लगभग 24 चूड़ियाँ।

"पावागढ़ मंदिर से लाई थी," दीदी ने बताया, "पर थोड़ी ढीली थीं... अब खुशी है कि किसी के तो काम आ रही हैं।"

मैं चुपचाप खड़ा देखता रहा — और पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने मेरी दोनों कलाइयों में एक-एक दर्जन चूड़ियाँ पहना दीं। चूड़ियाँ मेरी कलाई में आसानी से फिसल कर चली गईं — और उनके खनकने की आवाज़ जैसे पूरे कमरे में मेरी हार की घोषणा कर रही थी।

अब बारी थी चेहरे की सजावट की। दीदी ने मेरी आँखों में काजल भरा — गहराई से, फिर आइलाइनर लगाया — बहुत बारीकी से। फिर होंठों पर पहले लिपस्टिक और उस पर एक हल्का-सा लिपग्लॉस — जैसे वो चाहती हों कि मेरा हर इमोशन अब होंठों से बोले।

मम्मी पास आकर मेरे पैरों में चांदी की पायल बाँधने लगीं — हर घुंघरू के साथ मेरी पहचान और दूर होती जा रही थी।

और फिर सबसे आख़िरी में दीदी ने मेरे कानों में ईयरिंग्स पहनाए और उनकी पेंच कस दी।

"ठहरो... एक चीज़ रह गई," — कहकर उन्होंने मेरी नाक में एक गोल सी नथ पहनाई।

अब तक मैं थक चुका था — शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी।

मैं चुपचाप नीचे बैठ गया और बोला — "अब नहीं खड़ा हो सकता... जो करना है, बैठ कर करो।"

दीदी ने कुछ नहीं कहा — सिर्फ हल्का सा मुस्कुरा दीं। फिर बोलीं, "ठीक है, बस नेल पॉलिश लगानी रह गई है... वो मैं अभी पार्लर से लेकर आती हूँ।"

और वो निकल गईं।

मैं अब भी वही बैठा था — ब्लैक ब्लाउज़, कसकर बंधा पेटीकोट, काजल भरी आँखें, रंगे होंठ, खनकती चूड़ियाँ और पैरों में घुंघरू वाली पायलें।

मेरे बालों की लटें गालों को छू रही थीं, और हर सांस के साथ मैं खुद को नेहा के और करीब महसूस कर रहा था... चुपचाप, बिना बोले।

उसी वक्त मम्मी ने दीदी का मोबाइल उठाया — और मेरी एक तस्वीर खींच ली।

मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी आत्मा को कागज़ पर उतार दिया हो।



सावन शुरू हुआ तो ज़िंदगी ने जैसे करवट ही ले ली। अब तो हर दिन सुबह का मतलब था — साड़ी, ब्लाउज़ और उससे मिलती-जुलती ज्वेलरी पहनना। जैसे ये सब अब कोई त्योहार नहीं, बल्कि मेरी नई दिनचर्या बन चुकी थी।

सुबह छह बजे मम्मी मुझे नींद से उठातीं — आंखें खुलतीं तो सामने वही साड़ी का सेट, वही तैयार होने की लंबी लिस्ट। वॉशरूम, नहाना, फिर मम्मी का मुझे तैयार करना — चूड़ियाँ, बिंदी, पायल, झुमके, सब कुछ जैसे किसी रिटुअल की तरह।

फिर एक घंटा — घर के मंदिर में बैठकर भोलेनाथ का ध्यान। "ऊँ नमः शिवाय..." की माला के हर मोती के साथ मैं खुद को थोड़ा और खोता चला जाता था... और शायद उसी में कुछ शांति भी मिलने लगी थी।

शुरुआत में सब बोझ सा लगता था — साड़ी पहनकर बैठना, चलना, यहाँ तक कि लेटना तक मुश्किल होता। पर चौथे दिन के बाद जैसे शरीर ने समझौता कर लिया — और मन ने भी।

अब तो मम्मी दिन भर साड़ी में ही रहने देती थीं — सिर्फ रात को दीदी की स्लिवलेस टी-शर्ट और कैप्री या स्कर्ट पहनने की इजाज़त मिलती थी। वही मेरा असली आराम का वक्त होता — जब मैं बिस्तर पर गिरता और थोड़ी देर में नींद अपने आप आ जाती।

दिन भर वो दोनों यही चाहती थीं कि मैं एक ही जगह न बैठूं — न ही कहीं चुपचाप खड़ा रहूं। हमेशा कोई न कोई काम देती रहतीं — सफाई, सामान लाना, पूजा की तैयारी...

हैरानी की बात ये थी कि अब मेरी पीठ का दर्द भी कम हो गया था। चेहरे पर भी हल्का सा निखार आ गया था — शायद उस एक्टिव दिनचर्या की वजह से... या शायद वो घंटा भर का मंदिर में बैठना, आंखें बंद कर शांति से "ॐ नमः शिवाय..." का जाप करना — कुछ तो था जो भीतर से बदल रहा था।

सब कुछ ठीक चल रहा था — कल तक

क्योंकि कल तक जो कुछ भी हुआ, वो घर के अंदर था।

लेकिन आज, दीदी ने एक ऐसा बम फोड़ा कि मेरे पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई।

उन्होंने बिना भूमिका के ही कह दिया —
"तैयार हो जा, आज बाहर चलना है — वो भी साड़ी में ही।"

मैं हक्का-बक्का रह गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे नींद से झकझोर कर किसी और ही दुनिया में फेंक दिया हो।

इतना भी काफी नहीं था — उन्होंने अगले दिन का प्लान भी बता दिया, और उसे सुनकर तो मेरे अंदर एक झटका सा दौड़ गया।

"कल तीज है, और इस बार तू भी व्रत रखेगा — पूरा सोलह श्रृंगार के साथ, बाकायदा पूजा-पाठ करेगा हमारी तरह।"

मेरे तो हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। मन में जैसे डर की लहरें दौड़ गईं — बाहर जाना... और वो भी साड़ी पहनकर, तैयार होकर... क्या लोग क्या सोचेंगे? क्या होगा अगर कोई जान-पहचान वाला दिख गया?

मैंने मम्मी से जाकर शिकायत की — लेकिन वो भी दीदी की ही तरफदारी करने लगीं।

"सही कह रही है तेरी दीदी," मम्मी बोलीं, "पंद्रह दिन हो गए, घर में ही पड़ा है। हर बात की भी हद होती है — बाहर निकलना जरूरी है।"

और मम्मी जब हल्के गुस्से में बोलती हैं — तो वहां बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।

आखिर वो कहावत तो सुनी ही है न...



होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥



फिर दीदी ने बात संभालते हुए अपना आख़िरी ब्रह्मास्त्र भी चला ही दिया। बोलीं —
"कौन सा ज़िंदगी भर ये सब करना है तुझे? तुझे तो शुक्रिया कहना चाहिए मुझे, जो तुझे ये सब करने का मौका मिल रहा है। अब कोई बहस नहीं... समझे?"

फिर बिना मेरी कोई प्रतिक्रिया सुने, सीधा बोल पड़ीं —
"चलो, अब निकलना है।"

मैंने भी खीझते हुए जवाब दे ही दिया —
"आप हमेशा घोड़े पर क्यों सवार रहती हैं? कुछ भी होता है, तो बस — चलो!"

वो बिना पल गंवाए बोलीं —
"चलने को इसीलिए कह रही हूँ, क्योंकि कल हरियाली तीज है। और जितनी देर करोगे, उतनी ज़्यादा भीड़ मिलेगी मेहंदी वालों के पास। जितना जल्दी चलेंगे, उतना कम वेट करना पड़ेगा — समझे?"

मैंने भी बात पलटते हुए कहा —
"तो आप ही क्यों नहीं लगा देतीं मुझे घर पर ही? वैसे भी आपको मेहंदी लगाना बहुत अच्छा आता है!"

दीदी मुस्कराईं, लेकिन उनकी आँखों में शरारत थी।
"हां, लगाना तो आता है… लेकिन आज मेरा मन नहीं है। और दूसरी बात — तुझे तो मैं लगा दूंगी, लेकिन फिर मैं खुद के लिए लाइन में अकेले खड़ी रहूं? तू रहेगा साथ, तो कंपनी बनी रहेगी — समझा?"

फिर जैसे कुछ और पूछने का मौका ही न देते हुए बोलीं —
"अब चले, या और कुछ बाकी है?"

मैं कुछ कह पाता, इससे पहले ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और लगभग घसीटते हुए घर के बाहर ले आईं। पीछे से मम्मी ने भी जैसे किसी साजिश के तहत, तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया।

अब तो मेरे "चाहने" या "न चाहने" का कोई ऑप्शन ही नहीं बचा था।

मैंने रुकते हुए कहा —
"दीदी, ठीक है, आपकी बात मान ली… अब आप मेरी भी एक बात मान लीजिए।"

वो बोलीं —
"कौन सी बात?"

मैंने बड़ी मासूमियत से कहा —
"अपना स्टॉल दे दो, मैं अपने मुँह पर बाँध लूंगा।"

दीदी खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
"दे तो देती… लेकिन तूने कभी किसी को साड़ी पहनकर मुँह पर स्टॉल बाँधे देखा है? नहीं ना? वो सलवार-कमीज़ के लिए होता है — साड़ी में ऐसा नहीं करते। और अगर तूने सलवार-कमीज़ पहनी होती, तो कसम से मना नहीं करती… लेकिन साड़ी में? बिल्कुल नहीं!"

फिर जैसे मुझ पर कोई एहसान कर रही हों, वो बोलीं —
"चलो, एक काम कर सकती हूँ… तेरा पल्लू सिर पर पिन से ठीक से सेट कर देती हूँ, ताकि सरके नहीं। कम से कम बाजार में तू 'आकर्षण का केन्द्र' तो न बने। सोच, अगर मेहंदी लगाते वक़्त तेरा पल्लू कंधे से नीचे सरक गया, तो मेहंदी वाले की नजर और आस-पास के लोगों की निगाहें कहाँ-कहाँ जाएंगी…!"

मैंने बुझे मन से कहा —
"मैं वैसे ही डरा हुआ हूँ, और आप ऊपर से और डरा रही हैं..."

फिर दीदी ने मेरी साड़ी का पल्लू सिर पर इस तरह से सेट किया कि माथा और आंखें तक आधी ढँक गईं। मैंने खुद को आईने में देखा — मैं अब पहले वाला मैं नहीं था।

धीरे-धीरे हम दोनों बाज़ार की ओर चल दिए। वहाँ जहां आम दिनों में मेहंदी वाले लड़के खाली बैठे रहते हैं, वहीं आज माहौल कुछ और ही था — तीज के ठीक पहले की चहल-पहल, रंग-बिरंगे कपड़े, और लड़कियों की लंबी कतारें।

हमारी किस्मत अच्छी थी — दो लड़कियों की मेहंदी बस अभी-अभी खत्म ही हुई थी, और हम पहुंचते ही हमारा नंबर आ गया।

मैं कुछ बोला भी नहीं — चुपचाप जाकर एक स्टूल पर बैठ गया। सबकुछ जैसे स्वप्न जैसा लग रहा था।

दीदी ने ही कहा —
"भैया, बहुत दूर से आए हैं — ज़रा अच्छे से, गाढ़ी वाली मेहंदी लगाना समझे?"

फिर उन्होंने मेहंदी वाले की डिजाइन बुक से कुछ देर डिज़ाइन देखते हुए एक डिज़ाइन पसंद की और बोलीं —
"ये वाली लगाओ।"

और खुद आगे बढ़कर अपनी बारी के लड़के के पास बैठ गईं। उधर मेरी हथेलियों पर भी अब मेहंदी की ठंडी सिहरन उतरने लगी थी…



"नेहा बना मनिष: हरियाली तीज की वो दोपहर"

हरियाली तीज... एक बड़ा ही पवित्र त्योहार होता है। कहते हैं इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती का पुनर्मिलन हुआ था। इस दिन सुहागन और कुंवारी लड़कियां सोलह श्रृंगार कर के, पूरी श्रद्धा और रीति-रिवाज़ से माता पार्वती का पूजन करती हैं। मान्यता है कि इससे पति-पत्नी के बीच प्रेम बढ़ता है, बच्चों की उम्र लंबी होती है और आत्मा की शुद्धि होती है।

अब ये सब मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि जब मैं बाज़ार में बैठा था — अपने हाथों में महेंदी लगवाते हुए — तो मेरे अंदर अजीब ही हलचल चल रही थी। वो लड़का जो महेंदी लगा रहा था, उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे। पाँच मिनट में एक हाथ पूरा, फिर अगले पाँच में दूसरा। कोहनी तक पूरा हरा-हरा हो गया था मेरा हाथ।

दूसरी ओर, दीदी की भी महेंदी पूरी हो चुकी थी। पैसे पहले ही दिए जा चुके थे, तो अब बैठकर इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं थी। हम दोनों चुपचाप घर की ओर निकल पड़े।

मैं रास्ते भर भगवान से मन ही मन यही प्रार्थना कर रहा था, “हे भगवान, बस अब कोई पहचान वाला न दिख जाए। न कोई रिश्तेदार, न दीदी की सहेली, न स्कूल का कोई लड़का या लड़की। वरना स्कूल में तो मेरी खैर नहीं।”

और तभी... किस्मत को भी शायद मज़ा आ रहा था मेरा तमाशा देखने का। एक हलका टकराव हुआ और मेरे मुँह से "सॉरी" निकला — और आवाज़ सुनते ही वो रुक गई।

अनिता। मेरी गर्लफ्रेंड।

वो अपनी मम्मी के साथ आई थी। मुझे देखा, ग़ौर से देखा, फिर थोड़ा मुस्कुराई और "इट्स ओके" कहकर आगे बढ़ गई।

मेरा तो दिमाग ही सुन्न हो गया। “हे भगवान! ये क्या हो गया? अब कैसे समझाऊंगा उसे? क्या सोच रही होगी वो मेरे बारे में?”

तभी दीदी पास आईं और शरारत से बोलीं, “ये वही लड़की है न, जिसकी तारीफों के पुल तू रोज़ मेरे सामने बांधता है? क्या नाम है इसका?”

मैंने धीरे से जवाब दिया, “अनिता...”

दीदी तो जैसे मौके की तलाश में थीं। चिढ़ाते हुए बोलीं, “तो बुला दूं अभी? बात करा दूं?”

और वो सच में ज़ोर से बोलीं, “अनिता...”


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